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ब्रह्म में ढूँढ्यौ पुरानन गानन बेद-रिचा सुनि चौगुने चायन।
देख्यौ
सुन्यौ कबहूँ न कितूँ वह कैसे सरूप औ कैसे सुभायन॥ [1]
टेरत
हेरत हारि परयौ रसखानि बतायो न लोग लुगायन।
देख्यौ
दुरौ वह कुंज-कुटीर में बैठौ पलोटत राधिका-पायन॥ [2]
-
श्री रसखान, रसखान
रत्नावली
श्री
रसखान कहते हैं, "मैंने
ब्रह्म को पुराणों में ढूँढ़ा, वेदों की ऋचाओं को चौगुने चाव से सुना, यह सोचकर कि शायद इससे ब्रह्म का पता चल जाए। लेकिन दुर्भाग्य से, मैंने उन्हें वहाँ कहीं नहीं पाया। मेरे
सारे प्रयत्न निष्फल हुए, और मैं यह जान न पाया कि उस ब्रह्म का स्वरूप और स्वभाव कैसा है। [1]
जीवन
है ब्रजवासिन को, वृषभानु किशोरी को प्राण पियारो।
गोपिन
पीन पयोधर मोहित, नंद यशोदा को वारो दुलारो॥
-
ब्रज के सेवैया
श्री
कृष्ण ब्रजवासियों के जीवन हैं, श्री राधारानी के प्राण प्यारे हैं।
गोपियों के हृदयों पर सदैव मोहित रहते हैं, नंद-यशोदा के दुलारे हैं।
मुक्ति
पूछे गोपाल से मेरि मुक्ति बताये - ब्रज के सेवैया
मुक्ति
पूछे गोपाल से मेरि मुक्ति बताये।
ब्रज
रज उड़ मस्तक लगे मुक्ति मुक्त होइ जाए॥
-
ब्रज के सेवैया
एक
बार मोक्ष (मुक्ति) ने श्री कृष्ण से पूछा, "मैं सभी को मोक्ष देती हूँ, लेकिन मेरा उद्धार और मुक्ति कैसे होगी?"
श्री
कृष्ण ने उत्तर दिया, "ब्रज में जाओ, वहां की रज जब तुम्हारे मस्तक पर लगेगी, तो तुम भी मुक्त हो जाओगी, तुम्हारा भी उद्धार हो जाएगा ब्रज की रज
से।"
पूरा
उल्लेख यहाँ पड़ें
ब्रज
धूरि प्राणों से प्यारी लगे, ब्रज मंडल माहीं बसाये रहो - ब्रज के सवैया
ब्रज
धूरि प्राणों से प्यारी लगे, ब्रज मंडल माहीं बसाये रहो।
रसिकों
के सुसंग में मस्त रहूं, जग जाल से माहीं बचाये रहौ॥
-
ब्रज के सवैया
हे
"राधे"! मुझ पर ऐसी कृपा करें कि मुझे ब्रज की रज प्राणों से भी अधिक
प्रिय लगे, और
मुझे ब्रज मंडल में बसाए रखें। मैं नित्य रसिक संतों के संग में आनंदित रहूँ, और मुझे संसारिक आसक्तियों से सदैव बचाए
रखें।
श्री
कृष्ण ही कृष्ण पुकारा करूं, निज आंसुओं से मुख धोता रहूं - ब्रज के सवैया
श्री
कृष्ण ही कृष्ण पुकारा करूं, निज आंसुओं से मुख धोता रहूं।
ब्रज
राज तुम्हारे वियोग में, यूँ दिन रात सदा रोता रहूं॥
-
ब्रज के सवैया
हे
ब्रजराज श्री कृष्ण, आपके वियोग में मैं दिन-रात अश्रुधारा बहाता रहूँ, आपका नाम "कृष्ण कृष्ण"
पुकारता रहूँ, और
अपने आँसुओं से अपना मुख धोता रहूँ। आपके प्रेम का यह विरह ही मेरा जीवन बने।
श्री वृन्दावन सों वन नहि, नन्द गाँव सों गाँव - ब्रज के सवैया
श्री
वृन्दावन सों वन नहि, नन्द गाँव सों गाँव।
बंशीवट
सों वट नहीं, कृष्ण
नाम सों नाम॥
वृंदावन
जैसा कोई वन नहीं है, नंद गाँव जैसा कोई गाँव नहीं है, वंशी वट जैसा कोई वट वृक्ष नहीं है, और कृष्ण जैसा कोई नाम नहीं है।
जहाँ
गेंदा गुलाब अनेक खिले, बैठो क्यूँ करील की छावन में - ब्रज के सवैया
जहाँ
गेंदा गुलाब अनेक खिले, बैठो क्यूँ करील की छावन में।
मन
तोह मिले, विश्राम
वही, वृषभान
किशोरी के पायन में॥
-
ब्रज के सवैया
अरे
मन, जहाँ
अनगिनत गुलाब खिले हुए हैं, तू क्यों करील की सूखी छाँव में बैठा है? जब तुझे वृषभानु किशोरी श्री राधारानी
जैसी अद्भुत स्वामिनी प्राप्त हो गई, और उनके चरणों का मधुर आश्रय मिल गया, तो तू इस संसार में क्यों भटक रहा है?सच्चा विश्राम तुझे केवल उनके चरणों में मिलेगा, और कहीं नहीं
तुम
जान अयोग्य बिसारो मुझे - ब्रज के सेवैया
तुम
जान अयोग्य बिसारो मुझे, पर मैं न तुम्हें बिसराया करूं।
गुणगान
करूं तेरा ध्यान करूं, तुम मान करो मैं मनाया करूं॥
-
ब्रज के सेवैया
हे
कृष्ण, आप
चाहे मुझे अयोग्य समझकर भुला दें, पर मुझ पर ऐसी कृपा करें कि मैं आपको कभी न भूलूँ। सदैव आपके गुणों
का गान करूँ, आपका
ही ध्यान करूँ, और जब
आप मुझसे "मान" करें, तो मैं आपको मनाने का प्रयास करूँ
अन्न
वस्त्र भूमि ग़ज धेनु तू लुटायो कर - रसिक संत
अन्न
वस्त्र भूमि ग़ज धेनु तू लुटायो कर,
तदपि
के बटे से भी श्याम नहीं रीझे। [1]
वो
काम से न रीझे, धन
धाम से न रीझे,
वो तो राधा राधा नाम के रटे से श्याम रीझे॥ [2]
-
रसिक संत
एक
रसिक संत कहते हैं, "यदि आप भोजन, वस्त्र, भूमि, हाथी, गाय, आदि दान करते हैं, तो भी श्याम सुन्दर इससे प्रसन्न नहीं होते। [1]
न तो
वे कर्म-धर्म से संतुष्ट होते हैं, न ही धन या भौतिक संपत्ति से। यदि आप वास्तव में उन्हें तीव्र
प्रसन्न करना चाहते हैं, तो एकमात्र उपाय है कि श्री राधा नाम को अपने हृदय में धारण
करें।"
श्री
राधा नाम ही प्रेम और भक्ति का सर्वोत्तम साधन है, जो श्री कृष्ण को अत्यंत प्रिय है। [2]
रसिक
संत की दया के बिना, श्री राधा की असली महिमा का खुलासा नहीं किया जा सकता है।
रसिक
संत की दया के बिना, श्री राधा की असली महिमा का खुलासा नहीं किया जा सकता है।
-ब्रज
रसिक
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मन
में बसी बस चाह यही, पिय नाम तुम्हारा उचारा करूँ - ब्रज के सवैया
मन
में बसी बस चाह यही, पिय नाम तुम्हारा उचारा करूँ।
बिठला
के तुम्हे मन मंदिर में, मन मोहिनी रूप निहारा करूँ॥
-
ब्रज के सवैया
अब
मेरी केवल यही एकमात्र इच्छा शेष है, कि मैं दिन-रात तुम्हारा ही नाम लेता रहूँ। अपने मन के मंदिर में
तुम्हारे लिए सिंहासन सजाऊँ, और तुम्हारे अति मनमोहक रूप का दर्शन करते हुए कभी तृप्त न हो सकूँ।
नित
बाँकी यह झाँकी निहारा करौं - ब्रज के सवैया
नित
बाँकी यह झाँकी निहारा करौं, छवी छाख सों नाथ छकाये रहौ।
अहो
बांके बिहारी यही बिनती, मेरे नैनों से नैना मिलाये रहौ॥
-
ब्रज के सवैया
हे
बाँके बिहारी जी! मैं नित्य आपकी अद्भुत और बाँकी झांकी को निहारता रहूँ, और आप अपनी अनुपम छवि का दर्शन कराकर मुझ
पर अपनी कृपा बरसाते रहें। हे प्रिय बिहारी, मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि मेरे नैनों से आपके नैन सदा जुड़े
रहें, और यह
प्रेममय संग कभी ना टूटे।
राधारानी
के भक्त श्री कृष्ण द्वारा अत्यधिक माननीय हैं - ब्रज रसिक
राधारानी
के भक्त श्री कृष्ण द्वारा अत्यधिक माननीय हैं और श्री कृष्ण उनकी संगति चाहते
हैं। ब्रज का एक मोर, जो राधारानी का अनन्य भक्त था, जिसके कारण श्री कृष्ण ने उसका पंख को हमेशा के लिए अपने सिर पर रख
लिया।
राधा
राधा रटत ही मिट जाती सब बाधा - ब्रज के सवैया
राधा
राधा रटत ही मिट जाती सब बाधा।
कोटि
जनम की आपदा श्री राधा नाम से जाए॥
-
ब्रज के सवैया
केवल
श्री राधा नाम के स्मरण मात्र से समस्त बाधाएँ तुरंत मिट जाती हैं, और अनंत कोटि जन्मों की आपदाएँ भी श्री
राधा नाम के प्रभाव से समाप्त हो जाती हैं।
श्री
कृष्ण उस स्थान पर निश्चित उपस्थित रहते हैं जहाँ श्री राधा रानी का नाम लिया जाता
है -ब्रज रसिक
जब
कोई राधा नाम लेता है तो यह माना जाता है की श्री कृष्ण नाम भी उसमें उपस्थित है
क्यूंकि श्री कृष्ण उस स्थान पर निश्चित उपस्थित रहते हैं जहाँ श्री राधा रानी का
नाम लिया जाता है।
बली
जाऊं सदा इन नैनन पे, बलिहारी छटा पे होता रहूँ - ब्रज के सवैया
बली
जाऊं सदा इन नैनन पे, बलिहारी छटा पे होता रहूँ।
भूलूँ
ना नाम तुम्हारा प्रभु, चाहे जाग्रत स्वप्न में सोता रहूँ॥
-
ब्रज के सवैया
हे
कृष्ण! मैं बार-बार आपके नयनों और आपकी अनुपम छवि पर बलिहारी जाऊँ। मुझपर ऐसी कृपा
करें कि चाहे मैं जागूँ या सोऊँ, आपका नाम कभी न भूलूँ।
तेरे
ही पुजारियों की पग धूरि, मैं नित्य ही शीश चढ़ाया करूं।
तेरे
भक्त की भक्ति करूं मैं सदा, तेरे चाहने वालों को चाहा करूं॥
-ब्रज
के सवैया
हे
श्री राधा-कृष्ण, मेरी यह विनम्र कामना है कि आपके भक्तों के चरणों की धूल को नित्य
अपने मस्तक पर धारण कर सकूँ। मैं निरंतर आपके भक्तों की सेवा और भक्ति करता रहूँ, और केवल उन लोगों से प्रेम करूँ जो आपसे
प्रेम करते हैं।
सब
धामन को छाँड़ कर मैं आई वृन्दावन धाम - ब्रज के सवैया
सब
धामन को छाँड़ कर, मैं आई वृन्दावन धाम।
अहो
वृषभानु की लाड़ली, अब मेरी ओर निहार॥
-
ब्रज के सवैया
सब
धामों को छोड़कर मैं वृन्दावन धाम आयी हूँ। हे वृषभानु लाड़िली श्री राधा, अब मेरी ओर भी अपनी कृपादृष्टि डालिए।
ब्रज
गोपिन, गोपकुमारन
की, विपिनेश्वर
के - ब्रज के सवैया
ब्रज
गोपिन, गोपकुमारन
की, विपिनेश्वर
के सुख साज की जय जय।
ब्रज
के सब संतन भक्तन की, ब्रज मंडल की, ब्रज राज की जय जय॥
-
ब्रज के सवैया
ब्रज
की गोपियों, ग्वालों
की जय, विपिनेश्वर
श्री कृष्ण के सुख श्री किशोरी जू की जय, ब्रज के सब संतों और भक्तों की जय, ब्रज मंडल की जय और ब्रजराज श्री कृष्ण चंद्र जू की जय।
कलि
काल कुठार लिए फिरता - ब्रज के सवैया
कलि
काल कुठार लिए फिरता, तन नम्र है चोट झिली न झिली।
ले ले
हरिनाम मेरी रसना, फिर अंत समय ये मिली ना मिली॥
-
ब्रज के सवैया
हे मन, कलियुग अपने हाथ में कुल्हाड़ी लिए चारों
ओर विचर रहा है। तेरा शरीर कोमल है, यह उसके प्रहार सहन नहीं कर पाएगा। अभी समय है, अपनी रसना से नित्य हरिनाम जपता रह, क्योंकि कौन जानता है कि अंत समय तुझे यह
अवसर मिले या न मिले। हरिनाम ही तेरा एकमात्र सहारा
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पायो
बड़े भाग्यन सों आसरो किशोरी जू कौ - श्री ब्रज निधि ग्रंथावली, हरि पद संग्रह (50)
पायो
बड़े भाग्यन सों आसरो किशोरी जू कौ,
ओर
निरवाहि ताहि नीके गहि गहिरे। [1]
नैननि
सौं निरखि लड़ैती जू को वदन चन्द्र,
ताही
के चकोर ह्वैके रूपसुधा चहिरे॥ [2]
स्वामिनी
की कृपासों आधीन हुयी हैं 'ब्रजनिधि',
ताते
रसनासों सदां श्यामा नाम कहिरे। [3]
मन
मेरे मीत जोपै कह्यो माने मेरो तौं,
राधा
पद कंज कौ भ्रमर है के रहिरे॥ [4]
-
श्री ब्रज निधि जी, ब्रज निधि ग्रंथावली, हरि पद संग्रह (50)
हे
मेरे मन, यह
अत्यंत सौभाग्य की बात है कि तुमने श्री किशोरी जी की शरण ली है। अब इस प्रतिज्ञा
पर खरा उतरने का प्रयास करो और इस समर्पण के मूल्यों को गहराई से समझो। [1]
नित्य
प्रति एक चकोर पक्षी की भाँति श्री किशोरी जी के मुखचंद्र पर टकटकी लगाए रहो, और इसके अतिरिक्त किसी भी अन्य इच्छा का
त्याग कर दो। केवल किशोरि जी की रूप माधुरी का पान करना ही तुम्हारी एकमात्र इच्छा
होनी चाहिए। [2]
ब्रज
की महारानी, श्री
राधारानी की कृपा से ही तुम उन पर आश्रित हो गए हो, जिनपर साक्षात श्री कृष्ण भी सदा आश्रित रहते हैं। इसलिए, नित्य ही उनका नाम “श्यामा” रटते रहो।
[3]
श्री
ब्रज निधि जी कहते हैं, "हे प्रिय मन, मेरे प्रिय मित्र, अगर तुम मेरी बात मानो, तो मैं तुमसे यही कहता हूँ कि श्री किशोरी जी के चरण-कमल के मधुर रस
पर भँवर की भाँति नित्य मंडराते रहो।" [4]
चन्द
सो आनन कंचन सो तन - श्री हठी जी, राधा सुधा शतक (82)
चन्द
सो आनन कंचन सो तन
हौं
लखीकैं बिनमोल बिकानी। [1]
औ
अरविन्द सो आँखिन कों हठी
देखत
मेरी यै आँखी सिरानी॥ [2]
राजति
हैं मनमोहन के संग
वारौं
मैं कोटि रमारति रानी। [3]
जीवन
मूरी सबैं ब्रज को
ठकुरानी
हमारी है राधिका रानी॥ [4]
-
श्री हठी जी, राधा
सुधा शतक (82)
श्री
राधा के मुख-कमल की आभा चंद्र के समान है और उनके अंग का वर्ण स्वर्ण के समान है, जिनके दर्शन मात्र से मैं बिना किसी मोल
के बिक गया हूँ। [1]
जब
मैं उनके नेत्र-कमलों की ओर दृष्टि करता हूँ, तो मेरे नेत्र पलक झपकाना भूल जाते हैं। [2]
जब
श्री राधा मनमोहन के संग विराजती हैं, तो इस छवि पर मैं करोड़ों लक्ष्मियों और रतियों को भी वार दूँ। [3]
श्री
राधा ठकुरानी समस्त ब्रजमंडल के निवासियों के लिए जीवन-प्राण और संजीवनी हैं, और वे ही मेरी महारानी हैं। [4]
नवनीत
गुलाब से कोमल हैं - श्री हठी जी, राधा सुधा शतक (49)
नवनीत
गुलाब से कोमल हैं,
हठी
कंज की मंजुलता इनमें। [1]
गुललाला
गुलाब प्रबाल जपा,
छबि
ऐसी न देखी ललाईन में॥ [2]
मुनि
मानस मंदिर मध्य बसै,
बस
होत है सूधै सूभाईन में। [3]
रहुरे
मन तू चित चाइन सों,
वृषभानु
किशोरी के पायन में॥ [4]
-
श्री हठी जी, राधा
सुधा शतक (49)
श्री
राधा मक्खन की तुलना में अधिक कोमल और गुलाब की पंखुड़ियों से अधिक मुलायम हैं।
जैसा कि श्री हठी जी कहते हैं, उनकी सुंदरता कमल के फूल से भी अधिक है। [1]
श्री
राधा की छवि इतनी सुंदर है कि संसार में कहीं और किसी ने नहीं देखी, न गुलाल के फूल में, न गुलाब में, न प्रवाल में और न जपा के फूल में। [2]
वह उन
महान मुनियों के हृदय-मंदिर में निवास करती हैं, जिनका स्वभाव अत्यंत सरल हो चुका है और जो सम्पूर्ण समर्पण कर चुके
हैं। [3]
हे
मेरे मन, मैं
तुमसे प्रार्थना करता हूँ, बड़े प्रेम और उत्साह के साथ बस श्री राधाजू, श्री वृषभानुजी की बेटी के चरण कमलों में
निवास कर। [4]
श्री
राधे तू बड़भागिनी - ब्रज रसिक, ब्रज के सवैया
श्री
राधे तू बड़भागिनी, कौन तपस्या कीन्ह।
तीन
लोक तारन तरन, सो
तेरे आधीन॥
-
ब्रज रसिक, ब्रज
के सवैया
हे
श्री राधा, आप
वास्तव में सबसे भाग्यशाली हैं! आपने ऐसी कौनसी अद्भुत तपस्या की है, जिसके फलस्वरूप तीनों लोकों के स्वामी, श्रीकृष्ण, पूर्ण रूप से आप पर निर्भर हो गए हैं?
मन
में बसी बस चाह यही, पिय नाम तुम्हारा उचारा करूँ - ब्रज के सवैया
मन
में बसी बस चाह यही, पिय नाम तुम्हारा उचारा करूँ।
बिठला
के तुम्हे मन मंदिर में, मन मोहिनी रूप निहारा करूँ॥
-
ब्रज के सवैया
अब
मेरी केवल यही एकमात्र इच्छा शेष है, कि मैं दिन-रात तुम्हारा ही नाम लेता रहूँ। अपने मन के मंदिर में
तुम्हारे लिए सिंहासन सजाऊँ, और तुम्हारे अति मनमोहक रूप का दर्शन करते हुए कभी तृप्त न हो सकूँ।
नाम
महाधन है आपनो - श्री ललित किशोरी देव, श्री ललित किशोरी देव जू की वाणी
नाम
महाधन है आपनो, नहीं
दूसरी संपति और कमानी। [1]
छांड
अटारी अटा जग के, हमको कुटिया ब्रजमाहीं छवानी॥ [2]
टूक
मिले रसिकों की सदा, अरु पान सदा यमुना महारानी। [3]
औरन
की परवाहू नहीं, अपनी
ठकुरानी श्री राधिका रानी॥ [4]
-
श्री ललित किशोरी देव, श्री ललित किशोरी देव जू की वाणी
श्री
राधा का नाम ही मेरा सबसे बड़ा धन है, और मुझे किसी अन्य संपत्ति के संग्रह की कोई आकांक्षा नहीं है। [1]
मैं
इस भौतिक संसार को त्यागकर वृंदावन धाम में एक छोटी-सी कुटिया बनाना चाहता हूँ।
[2]
जीवन-यापन
के लिए, मुझे
रसिक संतों और भक्तों के जूठे महाप्रसाद के अंश प्राप्त होंगे, और पीने के लिए श्री यमुना जी का निर्मल
जल मिलेगा। [3]
मेरे
हृदय में केवल एक ही भावना है: मैं केवल अपनी प्रिय स्वामिनी श्री राधिका जी की
परवाह करता हूँ, और
किसी अन्य की मुझे कोई चिंता नहीं है। [4
विष्णु
चरावत गाय फिरौ - श्री नन्दन जी
विष्णु
चरावत गाय फिरौ, चतुरानन
ज्ञान भयौ निरज्ञानी।
शम्भु
सखि बन नाच नच्यौ, अरू इन्द्र कुबेर भरैं जहाँ पानी॥ [1]
भानु
थके वृषभानु की पौरहि, नन्दन चन्द्र कहौ किहि मानी।
राज
करै ब्रजमण्डल कौ, वृषभानु सुता बनिकें ठकुरानी॥ [2]
-
श्री नन्दन जी
भगवान
विष्णु ब्रज में गाय चरा रहे हैं, जिसे देखकर परम ज्ञानी ब्रह्मा जी भ्रमित हो गए हैं, और उनका सारा ज्ञान लुप्त हो चुका है।
यहाँ भगवान शिव सखी स्वरूप में नृत्य कर रहे हैं और देवराज इंद्र तथा उनके पुत्र
कुबेर, गोपी
स्वरूप में पानी भरने की सेवा कर रहे हैं। [1]
सूर्यदेव
वृषभानु जी के महल के दरवाजे पर श्री राधा के दर्शनों की लालसा में चलायमान होना
भूल गए हैं, तो
चंद्रदेव दर्शनों के लिए कैसे पीछे रहते। नित्य निकुंजेश्वरी श्री किशोरी जी, वृषभानु जी की पुत्री स्वरूप से समस्त
ब्रजमंडल में राज कर रही हैं। [2]
प्रेम
सरोवर छाँड़ि कैं तू - श्री प्रेमी जी
प्रेम
सरोवर छाँड़ि कैं तू भटके क्यों चित्त के चायन में।
जहाँ
गेंदा गुलाब अनेक खिले बैठे क्यों करील की छावन में॥ [1]
प्रेमी
कहैं प्रेम को पंथ यही रहवौ कर सूधे सुभायन में।
मन
तोह मिले, विश्राम
वही, वृषभान
किशोरी के पायन में॥ [2]
-
श्री प्रेमी जी
अरे
मन, प्रेम
के सरोवर का त्याग कर, तू अपने बनाए हुए काल्पनिक संसार में भटक कर क्यों जीवन समाप्त कर
रहा है? जहाँ
अनेक गुलाब और गेंदे खिले हैं, तू उस वन को छोड़ क्यों करील की छांव में बैठा है? [1]
कवि
प्रेमीजी सावधान कर रहे हैं कि "प्रेम के मार्ग पर बने रहने के लिए तेरा
स्वभाव बहुत ही सहज, सरल और निर्दोष होना चाहिए। जब तुझे ऐसी वृषभानु किशोरी श्री
राधारानी जैसी स्वामिनी मिल गई और उनके चरणों का आश्रय मिल गया, तो तू संसार में क्यों भटक रहा है? तुझे उनके चरणों में ही विश्राम मिलेगा
और कहीं नहीं।" [2]
एक
बार अयोध्या जाओ - डंडी स्वामी श्री हरे कृष्णानन्द सरस्वती ‘हरे कृष्ण’, वृंदावन शतक (28)
एक
बार अयोध्या जाओ, दो बार द्वारिका,
तीन
बार जाके त्रिवेणी में नहाओगे। [1]
चार
बार चित्रकूट, सौ
बार नासिक,
बार-बार
जाकर बद्रीनाथ घूम आओगे॥ [2]
कोटि
बार काशी, केदारनाथ
रामेश्वर,
गया-जगन्नाथ, चाहे जहाँ जाओगे। [3]
होंगे
प्रत्यक्ष जहाँ दर्शन श्याम श्यामा के,
वृंदावन
सा आनन्द कहीं नहीं पाओगे॥ [4]
-
डंडी स्वामी श्री हरे कृष्णानन्द सरस्वती ‘हरे कृष्ण’, वृंदावन शतक (28)
चाहे
कोई एक बार अयोध्या की यात्रा करे, दो बार द्वारिका जाए या तीन बार त्रिवेणी में स्नान कर ले। [1]
चाहे
कोई चार बार चित्रकूट जाए, सौ बार नासिक जाए, या बार-बार बद्रीनाथ की यात्रा ही क्यों न कर ले। [2]
चाहे
कोई काशी, रामेश्वरम, गया, जगन्नाथ जैसे पावन तीर्थों पर असंख्य बार तीर्थाटन कर ले। [3]
परंतु
श्री वृन्दावन धाम के अतिरिक्त कोई अन्य ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ युगल सरकार (श्री राधा कृष्ण) के
प्रत्यक्ष दर्शन हों और उनका दिव्य मधुर रस सुलभ हो सके। [4]
सब
धामन को छाँड़ कर मैं आई वृन्दावन धाम - ब्रज के सवैया
सब
धामन को छाँड़ कर, मैं आई वृन्दावन धाम।
अहो
वृषभानु की लाड़ली, अब मेरी ओर निहार॥
-
ब्रज के सवैया
सब
धामों को छोड़कर मैं वृन्दावन धाम आयी हूँ। हे वृषभानु लाड़िली श्री राधा, अब मेरी ओर भी अपनी कृपादृष्टि डालिए।
ब्रज
गोपिन, गोपकुमारन
की, विपिनेश्वर
के - ब्रज के सवैया
ब्रज
गोपिन, गोपकुमारन
की, विपिनेश्वर
के सुख साज की जय जय।
ब्रज
के सब संतन भक्तन की, ब्रज मंडल की, ब्रज राज की जय जय॥
-
ब्रज के सवैया
ब्रज
की गोपियों, ग्वालों
की जय, विपिनेश्वर
श्री कृष्ण के सुख श्री किशोरी जू की जय, ब्रज के सब संतों और भक्तों की जय, ब्रज मंडल की जय और ब्रजराज श्री कृष्ण चंद्र जू की जय।
जाकी
कृपा शुक ग्यानी भये - श्री हठी जी, राधा सुधा शतक (84)
जाकी
कृपा शुक ग्यानी भये,
अति
दानी जो ध्यानी भये त्रिपुरारी। [1]
जाकी
कृपा विधि वेद रचै,
भये
व्यास पुरानन के अधिकारी॥ [2]
जाकी
कृपा ते त्रिलोक धनी,
सुकहावत
श्री ब्रज चंद बिहारी। [3]
लोक
घटाते हठी को बचाओ,
कृपा
करि श्री वृषभानु दुलारी॥ [4]
-
श्री हठी जी, राधा
सुधा शतक (84)
श्री
राधा की कृपा से ही शुकदेव ज्ञानी हुए हैं और उन्हीं की कृपा से भगवान शिव भी
समाधि को प्राप्त हुए हैं। [1]
उन्हीं
की कृपा से ब्रह्माजी ने वेदों की रचना की है और उन्हीं की कृपा से व्यास जी ने
पुराणों की रचना की है। [2]
उन्हीं
की कृपा से तीनों लोकों के स्वामी भगवान श्री कृष्ण, वृंदावन में विहार करने वाले ब्रज चंद्र कहाने लगे हैं। [3]
श्री
हठी जी कह रहे हैं, "हे वृषभानु दुलारी, कृपा करके मुझे संसारी विषयों के बादलों से बचाइए और अपने श्री चरणों
में स्थान दीजिए।" [4]
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अलख
ब्रह्म अच्युत अगम, जाकौ ओर न छोर - ब्रज के सवैय्या
अलख
ब्रह्म अच्युत अगम, जाकौ ओर न छोर।
ताकौ
करि काजर नयन, देत
कृपा की कोर॥
-
ब्रज के सेवैय्या
समस्त
ब्रह्मांडो के स्वामी श्री कृष्ण, जिनका ओर-छोर वेद भी नहीं पा सकते, वही श्री कृष्ण को आपने श्री राधे, अपनी कृपा दृष्टि द्वारा अपनी आंखों के काजल के समान रखा है, और इस प्रकार आप अपनी कृपा दृष्टि से सभी
को आशीर्वाद और सभी पर अनुग्रह करतीं हैं।
तेरे
ही पुजारियों की पग धूरि - ब्रज के सवैया
तेरे
ही पुजारियों की पग धूरि, मैं नित्य ही शीश चढ़ाया करूं।
तेरे
भक्त की भक्ति करूं मैं सदा, तेरे चाहने वालों को चाहा करूं॥
-ब्रज
के सवैया
हे
श्री राधा-कृष्ण, मेरी यह विनम्र कामना है कि आपके भक्तों के चरणों की धूल को नित्य
अपने मस्तक पर धारण कर सकूँ। मैं निरंतर आपके भक्तों की सेवा और भक्ति करता रहूँ, और केवल उन लोगों से प्रेम करूँ जो आपसे
प्रेम करते हैं।
ब्रजराज
से नाता जुड़ा अब है, तब जग की क्या परवाह करें - ब्रज के सेवैया
ब्रजराज
से नाता जुड़ा अब है, तब जग की क्या परवाह करें।
बस
याद में रोते रहें उनकी, पलकों पर अश्र प्रवाह करें॥
-
ब्रज के सेवैया
जब
ब्रजराज श्री कृष्ण से नाता जोड़ ही लिया है तो शेष जग की चिंता क्यों करें। अब तो
बस उनकी याद में रोती रहूँ और उनकी ही याद में मेरे पलकें सदा भीगी रहें।
लाख
बार हरि हरि कहो एक बार हरिदास - श्री ललित किशोरी देव, सिद्धांन्त की साखी ( 447)
लाख
बार हरि हरि कहो एक बार हरिदास।
अति
प्रसन्न श्री लाड़ली, देत विपिन को वास॥
-
श्री ललित किशोरी देव, सिद्धांन्त की साखी ( 447)
श्री
राधारानी को अपने भक्त इतने प्रिय हैं कि यदि कोई भक्त भगवान हरि के नाम का एक लाख
बार जाप करता है और केवल एक बार श्री राधा कृष्ण के भक्त "हरिदास" का
नाम जपता है, तो
श्री राधारानी उस एक बार के नाम उच्चारण से ही अति प्रसन्न हो जाती हैं। वे अपने
भक्त पर अनंत कृपा बरसाकर, उन्हें शीघ्र ही अपने निज महल वृंदावन में वास का अद्भुत सौभाग्य
प्रदान करती हैं।
वृज
के रस कूँ जो चखै, चखै न दूसरौ स्वाद - ब्रज के सेवैया
वृज
के रस कूँ जो चखै, चखै न दूसरौ स्वाद।
एक
बार राधै कहै तौ रहे न और कछु याद॥
-
ब्रज के सेवैया
जिसने
ब्रज भूमि के दिव्य भावदशा का एक बार स्वाद चख लिया, वह फिर कोई दूसरा स्वाद नहीं चखता। जिसने एक बार "राधे"
नाम पुकार लिया, उसे
और कुछ याद रहता नहिं, क्योंकि उसका चित्त हर दूसरी स्मृति से मुक्त हो जाता है।
श्री
वृषभानु सुता पद पंकज - श्री लाल बलबीर जी, ब्रज बिनोद,श्रीराधा शतक (74)
श्री
वृषभानु सुता पद पंकज मेरी सदां यह जीवन मूर है। [1]
याही
के नाम सो ध्यान रहै नित जाकें रटे जग कंटक दूर हैं॥ [2]
श्रीवनराज
निवास दियो जिन और दियो सुख हू भरपूर है। [3]
याकौं
बिसार जो औरै भजौं 'बलबीर' जू जानिये तौ मुख धूर है॥ [4]
-
श्री लाल बलबीर जी, ब्रज बिनोद,श्रीराधा शतक (74)
वृषभानु
नन्दिनी श्री राधा जू के चरण कमल ही सदा से मेरे प्राण धन हैं। [1]
मुझे
तो एकमात्र श्री राधा जू के नाम का ही नित्य ध्यान रहता है, जिसके फलस्वरूप संसार के समस्त कांटे दूर
रहते हैं। [2]
श्री
राधा जू ने ही मुझे श्री वृंदावन धाम का वास प्रदान किया है एवं मुझे समस्त सुखों
का सार (अपने चरण कमलों का प्रेम) भी प्रदान किया है। [3]
श्री
लाल बलबीर कह रहें हैं "ऐसी परम करुणामई श्री किशोरी जू को भुलाकर यदि जीव
किसी और का भजन करता है, तो उस जीव को धिक्कार है।" [4]
पायो
बड़े भाग्यन सों आसरो किशोरी जू कौ - श्री ब्रज निधि ग्रंथावली, हरि पद संग्रह (50)
पायो
बड़े भाग्यन सों आसरो किशोरी जू कौ,
ओर
निरवाहि ताहि नीके गहि गहिरे। [1]
नैननि
सौं निरखि लड़ैती जू को वदन चन्द्र,
ताही
के चकोर ह्वैके रूपसुधा चहिरे॥ [2]
स्वामिनी
की कृपासों आधीन हुयी हैं 'ब्रजनिधि',
ताते
रसनासों सदां श्यामा नाम कहिरे। [3]
मन
मेरे मीत जोपै कह्यो माने मेरो तौं,
राधा
पद कंज कौ भ्रमर है के रहिरे॥ [4]
-
श्री ब्रज निधि जी, ब्रज निधि ग्रंथावली, हरि पद संग्रह (50)
हे
मेरे मन, यह
अत्यंत सौभाग्य की बात है कि तुमने श्री किशोरी जी की शरण ली है। अब इस प्रतिज्ञा
पर खरा उतरने का प्रयास करो और इस समर्पण के मूल्यों को गहराई से समझो। [1]
नित्य
प्रति एक चकोर पक्षी की भाँति श्री किशोरी जी के मुखचंद्र पर टकटकी लगाए रहो, और इसके अतिरिक्त किसी भी अन्य इच्छा का
त्याग कर दो। केवल किशोरि जी की रूप माधुरी का पान करना ही तुम्हारी एकमात्र इच्छा
होनी चाहिए। [2]
ब्रज
की महारानी, श्री
राधारानी की कृपा से ही तुम उन पर आश्रित हो गए हो, जिनपर साक्षात श्री कृष्ण भी सदा आश्रित रहते हैं। इसलिए, नित्य ही उनका नाम “श्यामा” रटते रहो।
[3]
श्री
ब्रज निधि जी कहते हैं, "हे प्रिय मन, मेरे प्रिय मित्र, अगर तुम मेरी बात मानो, तो मैं तुमसे यही कहता हूँ कि श्री किशोरी जी के चरण-कमल के मधुर रस
पर भँवर की भाँति नित्य मंडराते रहो।" [4]
या
लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं - श्री रसखान
या
लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं। [1]
आठहुँ
सिद्धि नवौ निधि के सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौं॥ [2]
रसखान
कबौं इन आँखिन सौं, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं। [3]
कोटिक
ए कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं॥ [4]
-
श्री रसखान
श्री
कृष्ण के हाथों की लकुटी और कम्बल के लिए तीनों लोकों का राज भी त्याज्य है । [1]
आठों
सिद्धि और नवों निधि का सुख भी जब श्री कृष्ण नंद की गाय चराते हैं उस लीला रस के
आगे फीका है। [2]
भक्ति
भाव में विभोर होकर रसखान कहते हैं कि यदि कभी इन आँखों से ब्रज के वन, बाग कुंज इत्यादि निहारने का अवसर मिले
तो सोने से बने अनगिनत महलों को भी इन मधुवन की झाड़ियों के ऊपर मैं नयौछावर कर
दूँ। [3 & 4]
हम
किसी और की परवाह नहीं करते क्योंकि हमारी ठकुरानी श्री राधा रानी है।
डोलत
बोलत राधिका राधिका - श्री लाल बलबीर जी, ब्रज विनोद (73)
डोलत
बोलत राधिका राधिका
राधा
राटौ सुख होय अगाधा। [1]
सोवत
जागत राधिका राधिका
राधिका
नाम सबै सुख साधा॥ [2]
लेतहु
देतहु राधिका राधिका
तौ 'बलबीर' टरै जग बाधा। [3]
होय
अनन्द अगाधा तबै
दिन
रैन कहौ मुख राधा श्रीराधा॥ [4]
-
श्री लाल बलबीर जी, ब्रज विनोद, राधा शतक (73)
घूमते-फिरते
और बातचीत करते समय, श्री राधिका "राधा" के नाम का जाप करें, जिससे अपार सुख प्राप्त होगा। [1]
सोते
और जागते समय, श्री
राधिका के नाम का उच्चारण करें, जो परम सुख प्रदान करने वाला है। [2]
कुछ
देते समय या लेते समय, अर्थात कोई भी कार्य करते समय, श्री राधा का नाम जपें, जो सभी समस्याओं को दूर करने वाला है। [3]
श्री
लाल बलबीर कहते हैं, "इस प्रकार, व्यक्ति को आनंद तभी प्राप्त हो सकता है जब वह दिन-रात श्री राधा के
नाम का जाप करे।" [4]
जय
मंजुल कुंज निकुंजन की - ब्रज के सवैया
जय
मंजुल कुंज निकुंजन की,
रस
पुंज विचित्र समाज की जै जै। [1]
यमुना
तट की वंशीवट की,
गिरजेश्वर
की गिरिराज की जै जै॥ [2]
ब्रज
गोपिन गोप कुमारन की,
विपनेश्वर
के सुख साज की जै जै। [3]
ब्रज
के सब सन्तन भक्तन की,
ब्रज
मंडल की ब्रजराज की जै जै॥ [4]
-
ब्रज के सवैया (श्री रसखान)
ब्रज
के शीतल कुंजों एवं निकुंजों की जै हो। कुंज में रास-विलास करने वाले रसिकों के
समाज की जै हो। [1]
यमुना
तट, वंशीवट
की, गिरिराज
के ईश्वर की और गिरिराज महाराज की जै हो। [2]
ब्रज
की गोपियों की, गोप
गवालाओं की, वृंदावणेश्वर
की और उनकी आनंदमयी लीलाओं की जै हो। [3]
ब्रज
के समस्त संतों की और भक्तों की जै हो। ब्रज मंडल की जै हो और ब्रज चूड़ामणि श्री
राधा कृष्ण की जै हो। [4]
राधिका
कान्ह को ध्यान धरै तब कान्ह ह्वै राधिका के गुण गावै - श्री देव जी
राधिका
कान्ह को ध्यान धरै तब कान्ह ह्वै राधिका के गुण गावै। [1]
त्यों
असुबा बरसे बरसाने को, पाती लिखे लिखे गुण गावै॥ [2]
राधे
ह्वै जाय घरीक में देव सु, प्रेम की पाती ले छाती लगावै। [3]
आपने
आपही में उरझे सुरझे उरझे समुझे समुझावै॥ [4]
-
श्री देव जी
[यह
श्री राधा रानी के महाभाव अवस्था का एक उदाहरण है]
सर्वप्रथम
श्री राधिका श्री कृष्ण का ध्यान करती हैं, और तभी वह अपने आप को श्री कृष्ण मानने लगती हैं और श्री राधा
(स्वयं) की स्तुति करने लगती हैं। [1]
तब
कृष्ण भाव में बरसाने का स्मरण कर उनके नेत्रों से अश्रुधार बहने लगती है एवं श्री
राधा को प्रेम भरा पत्र बरसाना लिख कर भेजती हैं (स्वयं को श्री कृष्ण मान कर)।
[2]
अगले
ही क्षण इस पत्र को प्राप्त कर सोचती हैं कि श्री कृष्ण ने उन्हें पत्र लिखा है और
उस पत्र को देख कर हृदय से लगा लेती हैं। [3]
इस
प्रकार श्री राधा अपने आप में ही उलझ-सुलझ रही हैं, स्वयं समझ रही हैं एवं स्वयं को समझा भी रही हैं। [4]
वृंदावन
रज पायलई तो पाय को क्या रहयौ।
राधा
प्यारी धयाए ली, तो
धयाए को क्या रहयौ॥
-
ब्रज रसिक
यदि
वृंदावन की रज को प्राप्त कर लिया, तो अब और कुछ पाने के लिए बचा ही नहीं। यदि राधा प्यारी का ध्यान कर
लिया तो अब कुछ शेष ध्यान करने के लिए बचा ही क्या?
विष्णु
चरावत गाय फिरौ - श्री नन्दन जी
विष्णु
चरावत गाय फिरौ, चतुरानन
ज्ञान भयौ निरज्ञानी।
शम्भु
सखि बन नाच नच्यौ, अरू इन्द्र कुबेर भरैं जहाँ पानी॥ [1]
भानु
थके वृषभानु की पौरहि, नन्दन चन्द्र कहौ किहि मानी।
राज
करै ब्रजमण्डल कौ, वृषभानु सुता बनिकें ठकुरानी॥ [2]
-
श्री नन्दन जी
भगवान
विष्णु ब्रज में गाय चरा रहे हैं, जिसे देखकर परम ज्ञानी ब्रह्मा जी भ्रमित हो गए हैं, और उनका सारा ज्ञान लुप्त हो चुका है।
यहाँ भगवान शिव सखी स्वरूप में नृत्य कर रहे हैं और देवराज इंद्र तथा उनके पुत्र
कुबेर, गोपी
स्वरूप में पानी भरने की सेवा कर रहे हैं। [1]
सूर्यदेव
वृषभानु जी के महल के दरवाजे पर श्री राधा के दर्शनों की लालसा में चलायमान होना
भूल गए हैं, तो
चंद्रदेव दर्शनों के लिए कैसे पीछे रहते। नित्य निकुंजेश्वरी श्री किशोरी जी, वृषभानु जी की पुत्री स्वरूप से समस्त
ब्रजमंडल में राज कर रही हैं। [2]
प्रेम
नगर ब्रज भूमि है जहां न जावै कोय - ब्रज के सवैया
प्रेम
नगर ब्रज भूमि है, जहां न जावै कोय।
जावै
तो जीवै नहीं, जीवै
तो बौरा होय॥
-
ब्रज के सवैया
ब्रज
की भूमि प्रेम नगर की भूमि है जहां किसी को नहीं जाना चाहिए, और यदि कोई वहां जाता है तो फिर वह जीवित
नहीं रह सकता, और
यदि जीवित रहता है तो बौरा जाता है। (यहाँ जीवित रहने का तात्पर्य संसार खतम होने
से है और बौराने का प्रेम के लिए मतवाला होने से है।)
सेस
गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै - श्री रसखान
सेस
गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै। [1]
जाहि
अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥ [2]
नारद
से सुक व्यास रहे, पचिहारे तू पुनि पार न पावैं। [3]
ताहि
अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥ [4]
-
श्री रसखान
जिनके
गुणों का गान स्वयं शेषनाग, विद्यासागर गणेश, शिव, सूर्य और इंद्र निरंतर ही गाते रहते हैं। [1]
जिन्हें
वेद अनादि (जिसका न कोई आदि है, न अंत), अनंत, अखंड (जिस प्रकृति के त्रिगुणमय तत्वों में विभाजित नहीं किया जा
सकता), अछेद
(जो गुणों से परे है), अभेद (जो समदर्शी है) बताते हैं। [2]
नारद
से शुकदेव तक जिनके अद्भुत गुणों की व्याख्या करते हुए हार गए, लेकिन जिसका पार नहीं पा सके - अर्थात
उनके सम्पूर्ण गुणों का ज्ञान नहीं कर सके। [3]
उन्हीं
अनादि, अनंत, अभेद, अखंड परमेश्वर को प्रेम से वशीभूत कर यादवों की लड़कियाँ एक कटोरा
छाछ पर नचा रही हैं। [4]
श्री
राधा माधव चरनौ - श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाईजी), पद रत्नाकर, वंदना एवं प्रार्थना (1.5)
श्री
राधा माधव चरनौ प्रणवउं बारम्बार ।
एक
तत्व दोऊ तन धरे, नित रस पाराबार॥
-
श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाईजी), पद रत्नाकर, वंदना एवं प्रार्थना (1.5)
मैं
बारम्बार श्री राधा और श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करता हूँ जो एक ही हैं (तत्व
हैं) परन्तु भक्तों को सुख देने के लिए दो तन धारण किये हुए हैं।
सब
द्वारन को छाड़ के मैं आयी तेरे द्वार।
अहो
वृषभानु की लाडली अब मेरी ओर निहार॥
हे
किशोरी जी, समस्त
द्वारों को छोड़कर मैं एक मात्र आपके द्वार आयी हूँ, कृपया अब मेरी ओर कृपा दृष्टि डालिये।
श्री
मुख यों न बखान सके वृषभानु सुता जू को रूप उजारौ। [1]
हे
रसखान तू ज्ञान संभार तरैनि निहार जु रीझन हारौ॥ [2]
चारू
सिंदूर को लाल रसाल, लसै वृजबाल को भाल टीकारौ। [3]
गोद
में मानौं विराजत है घनश्याम के सारे के सारे को सारौ॥ [4]
-
श्री रसखान जी
वृषभानु
सुता श्री राधा के मुखचंद्र की अनुपम छवि का वर्णन करना किसी के लिए भी संभव नहीं
है। [1]
श्री
रसखान कहते हैं, "पहले
अपने समस्त ज्ञान को त्याग दो, और यदि तुम उनके सौंदर्य की तुलना ग्रहों और सितारों से करना चाहो, तो जान लो कि उनका रूप-सौंदर्य इन सबसे
भी परे और अतुलनीय है।" [2]
उनके
सुंदर माथे पर रस में डूबा हुआ लाल सिंदूर, अद्भुत शोभा के साथ सुशोभित है। [3]
जब
श्री राधा श्रीकृष्ण की गोद में विराजमान होती हैं, जो वर्षा से भरे हुए बादल की भांति घनश्याम हैं, तो समझो कि उनकी गोद में सृष्टि अपने
सम्पूर्ण सौंदर्य और कलाओं के साथ निवास कर रही है। [4]
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नैन
मिलाकर मोहन सों वृषभानु लली मन में मुसकानी।
भौंह
मरोर कै दूसरि ओर, कछु वह घूंघट में शरमानी॥ [1]
देखि
निहाल भई सजनी, वह
सूरतिया मन मांहि समानी।
हमें औरन की परवाह नहीं अपनी ठकुरानी है राधिका रानी॥ [2]
जीवन
मूरी सबैं ब्रज को ठकुरानी हमारी है राधिका रानी॥
-
ब्रज के सवैया
जब
श्री कृष्ण से श्री राधिका के नैंन मिले, तब वृषभानु लली [श्री राधा] मन ही मन मुस्कुराने लगी, दूसरी ओर देखती हुई उन्होंने घूँघट से
अपने मुख को ढक लिया एवं शरमाने लगी। [1]
श्री
राधिका जू की यह लीला देख समस्त सखियाँ निहाल हो गयी, सब सखियों के हृदय में उनकी यह सुंदर छवि
बस गयी एवं सखियों को और किसी की परवाह नहीं है, उनकी तो ठकुरानी एक मात्र स्वामिनी श्री राधिका रानी हैं। [2]
'रा' अक्षर को सुनत ही, मोहन होत विभोर - श्री हनुमान प्रसाद
पोद्दार (भाईजी), पद रत्नाकर, वंदना एवं प्रार्थना (5.5)
'रा' अक्षर को सुनत ही, मोहन होत विभोर।
बसैं
निरंतर नाम सो, 'राधा' नित मन मोर॥
-
श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाईजी), पद रत्नाकर, वंदना एवं प्रार्थना (5.5)
जिनके
नाम का केवल पहला अक्षर "रा" सुनते ही त्रिभुवन मोहन श्री कृष्ण के मन
में अलौकिक आनंद की लहर दौड़ जाती है, ऐसे पवित्र और सुकुमार नाम "राधा" का मेरे हृदय में अनंत
काल तक निवास बना रहे।
क्षण
भंगुर जीवन की कलिका, कल प्रात को जाने खिली न खिली।
मलयाचल
की शीतल अरु मंद, सुगंध समीर चली न चली॥
-
ब्रज के सेवैया
कौन जानता है कि इस नश्वर जीवन की कोमल कली, कल प्रातः खिलेगी या नहीं, और क्या हमें हिमालय समान भक्ति की शीतल, मंद, और सुगंधित वायु का स्पर्श प्राप्त होगा या नहीं।
कीरत
सुता के पग-पग पै प्रयाग यहाँ, केशव की कुँज केलि कोटि कोटि काशी हैं।
स्वर्ग
अपवर्ग बृथा ही लै करेंगे कहा, जानि लेहु हमें हम वृन्दावन वासी हैं॥
-
वृन्दावन वासी
एक
वृन्दावन वासी कहता है: "जहाँ कीरती कुमारी श्री राधा के पग-पग पर प्रयाग
तीर्थ विराजमान हैं, जहाँ श्री कृष्ण के केलि कुंज में कोटि-कोटि काशी तीर्थ समाहित हैं, तो भला हम व्यर्थ में स्वर्ग, अपवर्ग आदि लोकों का निवास लेकर क्या
करेंगे? क्योंकि
हम तो वृन्दावन के वासी हैं।
सूकर
ह्वै कब रास रच्यो अरु बावन ह्वै कब गोपी नचाईं - ब्रज के सवैया
सूकर
ह्वै कब रास रच्यो अरु बावन ह्वै कब गोपी नचाईं। [1]
मीन
ह्वै कोन के चीर हरे कछुआ बनि के कब बीन बजाई॥ [2]
ह्वै
नरसिंह कहो हरि जू तुम कोन की छतियन रेख लगाई। [3]
वृषभानु
लली प्रगटी जबते तबते तुम केलि कलानिधि पाई॥ [4]
-
ब्रज के सवैया
हे
हरि! कब आपने शूकर (वराह) अवतार लेकर रास रचाया है? कब आपने वामन अवतार लेकर बृज गोपियों के संग नृत्य किया है? [1]
कब
आपने मीन (मछली) का अवतार लेकर चीर हरण किया है? कब आपने कछुआ बनकर वंशी बजाई है? [2]
कब
आपने नृसिंह अवतार लेकर किसी को अपने हृदय (छाती) से लगाया है? [3]
हे
प्यारे! जब से वृषभानु नंदनी श्री राधा जी इस बृज में प्रकट हुई हैं, तब से ही आपने केली लीला में कलानिधि पाई
है, अर्थात्
तब से ही आपकी महिमा बढ़ गई है। [4]
राधिका
कृष्ण कौ नैंन लखों सखी - श्री सरस माधुरी
राधिका
कृष्ण कौ नैंन लखों सखी,
राधिका
कृष्ण के गुण गाऊँ। [1]
राधिका
कृष्ण रटौ रसना नित,
राधिका
कृष्ण को उर ध्याऊँ॥ [2]
राधिका
कृष्ण की मोहनी मूरत,
ताकी
सदा शुचि झूठन पाऊँ। [3]
सरस
कहैं करौ सेवा निरंतर,
कुंज
को त्याग कै अनत न जाऊँ॥ [4]
-
श्री सरस माधुरी
हे
सखी राधा कृष्ण को ही नयनों से देखो और राधा कृष्ण का ही केवल गुणगान करो। [1]
रसना
से राधा कृष्ण ही नित्य रटन करो और राधा कृष्ण को ही हृदय में धारण करो। [2]
राधा
कृष्ण की मोहिनी सूरत को ही हृदय में ध्यान लगाओ और राधा कृष्ण की ही जूठन पावो।
[3]
श्री
सरस देव जी कहते हैं कि श्री राधा कृष्ण की ही नित्य निरंतर सेवा करो और वृंदावन
के कुंजों को त्याग कर अन्य कहीं ना जाओ। [4]
दीनदयाल
सुने जब ते - श्री मलूक जी
दीनदयाल
सुने जब ते,
तब ते
मन में कछु ऐसी बसी है। [1]
तेरो
कहाय कैं जाऊं कहाँ,
अब
तेरे नाम की फेंट कसी है॥ [2]
तेरो
ही आसरौ एक 'मलूक',
नहीं
प्रभु सौ कोऊ दूजौ जसी है। [3]
एहो
मुरारि पुकारि कहूं,
अब
मेरी हंसी नाँहि तेरी हँसी है॥ [4]
-
श्री मलूक जी
हे
प्रभु, जब से
मैंने आपका दीनदयाल नाम सुना है, तब से ही मैं आपका हो गया हूँ। [1]
अब जब
मैं आपका हो गया हूँ, तो आपके नाम का ही गुणगान कर रहा हूँ। [2]
श्री
मलूक जी कहते हैं कि उन्हें तो केवल श्री मुरारी कृष्ण का ही आसरा है, श्री कृष्ण के अतिरिक्त उन्हें कोई जचता
ही नहीं। [3]
हे
मुरारी, मैं
करुण क्रंदन से आपसे इतना ही कहूँगा कि अब लोग मुझपर नहीं, आप पर हँसेंगे यदि आपने मेरा कल्याण नहीं
किया (अर्थात अब तो मैं आपका हो गया)। [4]
जै जै
मचों ब्रज में चहूँ ओर ते बोल रहे नर नारी जौ जै जै - श्री छबीले जी
जै जै
मचों ब्रज में चहूँ ओर ते, बोल रहे नर नारी जौ जै जै। [1]
जै जै
कहें सब देब विमानन, ब्रह्मा त्रिलोचन बोलत जै जै॥ [2]
जै जै
कहें भृगु व्यास परासर, बोल रहे सनकादिक जै जै। [3]
जै जै
‘छबीले’ रँगीले रसीले की, बोलो श्रीबाँकेबिहारी की जै जै॥ [4]
-
श्री छबीले जी
ब्रज
में चारों ओर से नर और नारी 'जै जै' [युगल सरकार की जै हो] पुकार रहे हैं। [1]
समस्त
देवतागण अपने अपने विमानों से एवं ब्रह्मा-भगवान शंकर भी जै जैकार कर रहे हैं। [2]
भृगु, व्यास, पराशर इत्यादि भक्तगण एवं परमहंस सनकादिक इत्यादि भी ‘जै जै’ पुकार
रहे हैं। [3]
श्री
छबीले जी कहते हैं कि ब्रज के रंगीले रसीले रसिया की जै जै, सब मिल बोलो श्रीबाँकेबिहारी की जै जै।
[4]
वृन्दावन
के नाम सौं, पुलकि
उठत सब अंग - ब्रज के सेवैयाँ
वृन्दावन
के नाम सौं, पुलकि
उठत सब अंग।
जिहि
थल श्यामा श्याम नित करत रहत रस रंग॥
-
ब्रज के सेवैयाँ
वृंदावन
का नाम सुनते ही समस्त अंग पुलकित हो उठते हैं, जिस दिव्य स्थान वृंदावन में नित्य ही श्यामा श्याम रस रंग में
निमग्न विहार परायण हैं।
वृज
के रस कूँ जो चखै, चखै न दूसरौ स्वाद - ब्रज के सेवैया
वृज
के रस कूँ जो चखै, चखै न दूसरौ स्वाद।
एक
बार राधै कहै तौ रहे न और कछु याद॥
-
ब्रज के सेवैया
जिसने
ब्रज भूमि के दिव्य भावदशा का एक बार स्वाद चख लिया, वह फिर कोई दूसरा स्वाद नहीं चखता। जिसने एक बार "राधे"
नाम पुकार लिया, उसे
और कुछ याद रहता नहिं, क्योंकि उसका चित्त हर दूसरी स्मृति से मुक्त हो जाता है।
हे राधे ये कहा कहौ, धरौ जियै विश्वास - ब्रज के
सवैया
हे
राधे ये कहा कहौ, धरौ
जियै विश्वास।
सखी नहीं दासी करौ राखौ अपने पास॥
-
ब्रज
के सवैया
हे
राधे, जिनसे
मेरा अटूट विश्वास है, मैं
आपसे प्राथना करता हूँ कि चाहे आप मुझे सखी बनाओ या दासी बनाओ, कैसे भी करके मुझे
अपना सामीप्य प्रदान करो।
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को
कबि वरनन कर सकै - ब्रज के सेवैयाँ
को
कबि वरनन कर सकै ब्रज की रज को मूल।
जाके
कण कण में मिली युगल चरण की धूल॥
- ब्रज के सेवैयाँ
कोई भी रसिक कवि ब्रज की रज के मूल महत्व का पूर्ण
वर्णन नहीं कर सकता, जिसके
कण कण में युगल (राधा कृष्ण) के चरण कमलों की धूर है।
“रा“
अक्षर में बसी राधिका - ब्रज रसिक
“रा“ अक्षर में बसी राधिका, ‘धा’ में धामेश्वर हरि।
-
ब्रज
रसिक
एक
ब्रज रसिक ने कहा है कि राधा नाम युगल नाम है जिसके “रा” अक्षर में राधा बसी हैं
और धा अक्षर में धामेश्वर कृष्ण बसे हैं ।
दृग पात्र में प्रेम का जल
भरि के - ब्रज के सेवैयाँ
दृग
पात्र में प्रेम का जल भरि के, पद
पँकज नाथ पखारा करुँ।
बन प्रेम पुजारी तुम्हारा प्रभो, नित आरती भव्य उतारा करुँ॥
-
ब्रज
के सेवैयाँ
हे
नाथ, मेरे
नेत्रों से बहने वाले प्रेमाश्रुओं से आपके चरण कमलों का नित्य अभिषेक करता रहूं।
आपका प्रेम-पुजारी बनकर, आपकी
सदा आरती उतारता रहूं।
काहे को वैद बुलावत हो - ब्रज
के सवैया
काहे
को वैद बुलावत हो, मोहि
रोग लगाय के नारि गहो रे।
हे
मधुहा मधुरी मुसकान, निहारे
बिना कहो कैसो जियो रे॥ [1]
चन्दन
लाय कपूर मिलाय, गुलाब
छिपाय दुराय धरो रे।
और
इलाज कछू न बनै, ब्रजराज
मिलैं सो इलाज करो रे॥ [2]
- ब्रज के सवैया
मुझे रोग लगा है या नहीं, यह जानने के लिए आप सब वैद्य को
क्यों बुला रहे हो? मैं
स्वयं अपने रोग का इलाज कह देता हूँ, बिना श्री कृष्ण के मुस्कान को
निहारे, कहो
मैं कैसे जी पाऊँगा? उनकी
मुस्कान ही मेरी जीवन संजीवनी है। [1]
आप दवा के लिए जड़ी-बूटियों का मिश्रण करने के लिए
परेशानी उठा रहे हैं; चंदन, गुलाब और कपूर ला रहे
हैं, इन
सब को तो मुझसे दूर ही रखो, क्योंकि
मेरा इलाज कुछ और नहीं बल्कि श्री कृष्ण ही हैं, इसलिए उनकी प्राप्ति जैसे भी बने, बस वही साधन करो। [2]
भाग्यवान वृषभानुसुता सी को
तिय त्रिभुवन माहीं - श्री हरिराय जी
(राग पीलू)
भाग्यवान वृषभानुसुता सी को तिय
त्रिभुवन माहीं। [1]
जाकौं पति त्रिभुवन मनमोहन दिएँ रहत गलबाहीं॥ [2]
ह्वै अधीन सँगही सँग डोलत, जहां कुंवरि चलि जाहीं। [3]
‘रसिक’
लख्यौ जो सुख वृंदावन, सो
त्रिभुवन मैं नाहीं॥ [4]
-
श्री
हरिराय जी
संसार
में श्रीराधा जैसी भाग्यवान कोई स्त्री नहीं है। [1]
जिनके
पति तीनों लोकों के स्वामी श्रीकृष्ण सदैव उनके कन्धे पर गलबहियां डाले रहते हैं।
[2]
जहां
भी किशोरीजी जाती हैं, वे
उनके अधीन होकर संग-संग जाते हैं। [3]
रसिकों
ने जो सुख वृन्दावन में पान किया है वैसा तीनों लोकों में कहीं नहीं है। [4]
खंजन नैन फंसे छवि पिंजर, नाहिं रहैं
थिर कैसेहु माई।
छूटि गई कुल कानि सखी
‘रसखान’ लखी मुसकानि सुहाई॥ [1]
चित्र लिखी सी भई सब देह
न वैन कढ़ै मुख दीन्हें दुहाई।
कैसी करूं जित जाऊं तितै
सब बोलि उठैं वह बांवरी आई॥ [2]
- श्री रसखान, रसखान
रत्नावली
खंजन पक्षी की भांति श्री
कृष्ण की विशाल आँखों ने मुझे पूरी तरह से अपने वश में कर लिया है, और मैं अभिभूत
होकर निश्चेष्ट हो गई हूँ। समाज और कुल की मर्यादा छूट चुकी है। जब भी श्री
श्यामसुंदर मुस्कुराते हैं, मैं सब कुछ भूल जाती हूँ। [1]
मेरा शरीर अब मानो एक
चित्र बन गया है, जो हिल-डुल नहीं सकता, और मेरे मुख से कोई शब्द
नहीं निकलते। अब मैं कहाँ जाऊँ? जहाँ भी जाती हूँ, लोग कहते हैं, 'देखो, वह बावरी आ
रही है।' [2]
जैसो तैसो रावरौ कृष्ण प्रिय सुख धाम।
चरण सरण निज
दीजिऔं सुन्दर सुखद ललाम॥
- ब्रज
के सेवैया
हे कृष्ण प्रिया श्री राधा, सम्पूर्ण
आनन्द की स्रोत! निश्चित रूप से मैं आपका हूँ, मैं
आपका हूँ! कृपया मुझे अपने सुंदर, आनंदमय श्री चरणों
में पूर्ण समर्पण प्रदान करें।
हे राधा रानी सदा, करहुं कृपा की कोर।
कबहु
तुम्हारे संग में, देखूं नंदकिशोर॥
- ब्रज के सेवैया
हे राधा रानी, मुझ पर सदा अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखें। अपनी ऐसी करुणा
बरसाएं कि मुझे भी आपके संग नंदकिशोर श्री कृष्ण के दिव्य दर्शन का सौभाग्य
प्राप्त हो।
कब गहवर की गलिन में, फिरहिं होय
चकोर।
जुगल चंद मुख निरखिहौं, नागर नवल किशोर॥
- ब्रज के सवैया
ऐसा कब होगा कि मैं गह्वर
वन की कुंज गलियों में चकोर की भाँति विचरण करता हुआ नवल युगल किशोर (श्री राधा
कृष्ण) के मुखचंद्र को निरखूँगा।
ब्रह्म नहीं माया नहीं, नहीं जीव नहिं काल।
अपनी हू सुधि
ना रही रह्यौ एक नंदलाल॥
- ब्रज
के सवैया
न मैं ब्रह्म के रहस्य को जानना
चाहता हूँ, न माया के विषय में, न ही मैं जीव के स्वरूप को समझना चाहता हूँ, और न ही काल के रहस्य को। मेरी तो बस यही कामना है कि
मैं अपनी सुध-बुध खो दूँ और मेरे चित्त में सदा केवल श्री राधा-कृष्ण का ही ध्यान
बना रहे।
कोटि तप साधि कृश कर ले
शरीर किन्तु,
कबहू न तन के घटे ते श्याम रीझे हैं। [1]
अन्न वस्त्र भूमि गज धेनु तू लुटायौ कर,
नेकहू न दान के किये ते श्याम रीझे हैं॥ [2]
बिन्दु योग जप तप संयम नियम धारि,
तदपि न हठ पै डटे ते श्याम रीझे हैं। [3]
काम ते न रीझे धन धाम ते न रीझे,
एक राधे राधे नाम के रटे ते श्याम रीझे हैं॥ [4]
- ब्रज के कवित्त
कोटि-कोटि तप और साधना भी यदि इस शरीर से की जाएं, तब भी केवल
शारीरिक प्रयासों से श्री कृष्ण को नहीं रिझाया जा सकता। [1]
आप चाहे भोजन, वस्त्र, भूमि, हाथी, गाय, इत्यादि कितना
भी दान करें, उस दान से भी श्री कृष्ण को प्रसन्न नहीं किया जा सकता। [2]
योग, जप, तप, संयम, व्रत, नियम आदि का
अनंत कोटि बार भी हृदय में धारण कर हठ पर डटे रहें, फिर भी श्री कृष्ण नहीं
रीझेंगे। [3]
न तो वे कर्म-धर्म से
रीझते हैं, न ही धन-धाम से। यदि आप वास्तव में श्री कृष्ण को शीघ्र प्रसन्न करना चाहते
हैं, तो एक ही उपाय है—"राधे-राधे" नाम का नित्य रटन करें। [4]
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उर ऊपर नित्य रहूँ लटका,
अपनी बनमाल का फूल बनादे।
[1]
लहरें टकराती रहे जिसमें,
कमनीय कलिन्दजा का कूल
बनादे॥ [2]
कर कंजसे थामते हो जिसको,
उस वृक्ष कदम्ब का मूल
बना दे। [3]
पद पंकज तेरे छूयेंगे कभी,
ब्रजराज ! हमें ब्रज धूल
बनादे॥ [4]
- ब्रज के
सेवैयाँ (श्री हरे कृष्ण जी द्वारा रचित)
हे श्रीकृष्ण, आपके वक्षस्थल
की शोभा बढ़ाने वाली बनमाला का एक फूल बनकर मैं सदैव आपके समीप लटका रहूँ। [1]
हे कृष्ण, जो यमुना की
कोमल लहरों के स्पर्श से सदा प्रसन्न रहती है, मुझे उसी यमुना का तट बना
दीजिए। [2]
जिस कदंब की डाल पर आप
अपना हाथ रखकर खड़े होते हैं, मुझे उसी कदंब का वृक्ष
बना दीजिए। [3]
हे ब्रज के नाथ, जिस ब्रज-धूल
को कभी आपके चरण कमलों का स्पर्श प्राप्त होगा, मुझे उस ब्रज-रज का एक
अंश बना दीजिए। [4]
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बरसानो जानो नहीं, जपो नहीं राधा नाम।
तो तूने जानो
कहाँ, ब्रज को तत्व महान॥
- ब्रज
के सेवैयाँ
न तो तूने बरसाना को जाना, न
ही राधा नाम का जप किया, तो तूने ब्रज के महान
तत्व को अभी जाना ही कहाँ है?
ब्रजभूमि मोहनी, जा चौरासी कोस।
श्रद्धा सहित
पगधरे, पाप सब कर खौय॥
- ब्रज
के सेवैयाँ
ब्रज भूमि मोहिनी है, जो
भी जीव श्रद्धा भाव से चौरासी कोस में पग धरता है, उसके
समस्त पापों का निश्चित ही नाश होता है।
कुंज विहारी हमारो है
जीवन,
कुंज विहारिन है सर्वष
मेरी। [1]
कुंज विहारी है इष्ट
अनुपम,
कुंज विहारिन की है नित
चेरी॥ [2]
कुंज विहारी के नाम जपौं
मुख,
ध्यान धरौं उर सांझ
सवेरी। [3]
कुंज विहारी बिहारिन
राधिका,
सरस नैंन में आय बसेरी॥ [4]
- श्री सरस
माधुरी
कुंज बिहारी ही हमारे
जीवन हैं, और कुंज बिहारीणी ही मेरी सर्वस्व हैं। [1]
कुंज बिहारी ही मेरे अनुपम इष्ट हैं, और श्री कुंज बिहारीणी की
ही मैं नित्य दासी हूं। [2]
प्रातः से सायं तक, अनन्य भाव से मैं श्री कुंज बिहारी और कुंज बिहारिणी का ही नाम जप और ध्यान
करती हूं। [3]
श्री सरस देव जी कहते हैं कि उनके नयनों में श्री राधिका जू, जो श्री कुंज
बिहारी के संग विहार परायण हैं, सदा निवास करती हैं। [4]
(राग तोड़ी
जौनपुरी / राग काफ़ी)
पद रज तज किमि आस करत हो,
जोग जग्य तप साधा की। [1]
सुमिरत होय मुख आनन्द अति,
जरन हरन दुःख बाधा की॥ [2]
ललित किशोरी शरण सदा रहु,
सोभा सिन्धु अगाधा की। [3]
परम ब्रह्म गावत जाको जग,
झारत पद रज राधा की॥ [4]
- श्री ललित
किशोरी, अभिलाष माधुरी , विनय (219)
अरे मूर्ख, यदि तुमने
हमारी श्री राधा रानी की शरण नहीं ली और उनके चरणों की रज को त्याग दिया, तो योग, यज्ञ, तप, साधना आदि से
क्या आशा रखते हो? [1]
जिनके (श्री राधा) के नाम स्मरण मात्र से ही मुख पर आनंद की लहरें उठती हैं, और समस्त
दुखों व बाधाओं का नाश जड़ से हो जाता है। [2]
श्री ललित किशोरी जी कहते हैं कि वे तो सदैव श्री राधा महारानी की शरण में
रहते हैं, जो अनंत शोभा (सुंदरता, कृपा आदि गुणों) का अथाह
सागर हैं। [3]
जिस परम ब्रह्म श्री कृष्ण की भक्ति पूरी सृष्टि करती है, वही श्री राधा
रानी के चरणों की रज को झाड़ते (साफ़ करते) हैं। [4]
बरसाने के वास की, आस करे शिव शेष।
जाकी महिमा
को कहे, श्याम धरे सखि भेष॥
- ब्रज
के सेवैयाँ
शिव एवं शेषनाग इत्यादि भी बरसाना वास की आशा रखते हैं, बरसाना की महिमा कौन बखान कर सकता है, जहां स्वयं भगवान श्री कृष्ण भी सखि का रूप धारण करके
वहाँ प्रवेश करते हैं।
कछु माखन के बल बढ्यौ, कछु गोपन करी सहाय।
श्री राधा जू
की कृपा सों, गोवर्धन लियो उठाय॥
- ब्रज
के सैवैया
कुछ बल श्री कृष्ण का माखन से आया, कुछ गोप सखाओं से, परंतुं
उन्होंने गोवर्धन श्री राधारानी की कृपा से ही उठाया था।
श्रीराधारानी चरण विनवौं बारंबार।
विषय वासना
नास करि करो प्रेम संचार॥
- श्री
हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाईजी), पद
रत्नाकर, वंदना
एवं प्रार्थना (7.1)
मैं बार बार श्री राधा रानी के चरणों में प्रणाम करता हूँ, जिन चरणों की कृपा से विषय वासनाओं का नाश होता है एवं
प्रेम भक्ति का संचार होता है।
श्री राधारानी के चरन बन्दौ बारम्बार।
जिनके
कृपा-कटाक्ष ते रीझे नन्द कुमार॥
- श्री
हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाईजी), पद
रत्नाकर, वंदना
एवं प्रार्थना (5.1)
मैं बारम्बार श्री राधारानी के चरणों की वन्दना करता हूँ, जिनके कृपा कटाक्ष से नन्द कुमार रीझ जाते हैं।
जितनी वह दूर रहें हम सों, उतनी हम उनकी
चाह करें।
सुख अद्भुत प्रेम की पीड़
में है, हम आह करें वो वाह करें॥
- ब्रज के सवैया
मेरे प्रियतम
श्यामसुंदर चाहे मुझसे जितने भी उदासीन रहें, मैं उनसे उतना ही अधिक
प्रेम करता जाऊं। विरह की वेदना में एक अद्भुत और अलौकिक सुख छिपा है। कितना अच्छा
हो कि जब भी मैं आहें भरूं, मेरी वेदना उन्हें इतनी प्रिय लगे कि वे प्रसन्न होकर "वाह" कह
उठें।
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संपति सौं सकुचाई कुबेरहि
रूप सौं दीनी चिनौति अनंगहि। [1]
भोग कै कै ललचाई पुरन्दर
जोग कै गंगलई धर मंगहि॥ [2]
ऐसे भए तौ कहा ‘रसखानि’
रसै रसना जौ जु मुक्ति तरंगहि। [3]
दै चित ताके न रंग रच्यौ
जु रह्यौ रचि राधिका रानी के रंगहि॥ [4]
- श्री रसखान, रसखान
रत्नावली
यदि आप इतने संपन्न हों
कि स्वयं कुबेर भी आपकी संपदा देखकर चकित हो जाएं, और आपका रूप इतना अनुपम
हो कि कामदेव भी लज्जित हो जाए। [1]
यदि आपका जीवन भोग-विलास
से ऐसा भरा हो कि स्वर्ग के राजा इंद्र भी ईर्ष्या करें, और आपकी
योग-साधना देखकर स्वयं शंकर जी, जिनके मस्तक पर गंगा
विराजती हैं, आपके जैसा ध्यान करने की इच्छा करें। [2]
यदि आपकी वाणी में
सरस्वती जी का ऐसा वरदान हो कि उसे सुनकर मुक्ति की लहरें प्रवाहित होने लगें। [3]
परंतु श्री रसखान कहते
हैं, "यह सब व्यर्थ है यदि आपने उनसे प्रेम नहीं किया, जिनका हृदय
पूर्णतः श्री राधा रानी के प्रेम में डूबा हुआ है।" [4]
श्री नँदनंदजू आनंद कंद
जू
श्री व्रजचंद विहारी की जै जै। [1]
नव घनश्याम जू अति अभिराम जू
मन मद मत्त प्रहारी की जै जै॥ [2]
गज गति गामिनी प्रीतम भामिनी
गोपिन प्रान पियारी की जै जै। [3]
नव रसखान दया की निधान
श्रीवृषभानु दुलारी की जै जै॥ [4]
- श्री रसखान, रसखान रत्नावली
श्री नंद नंदन आनंद कंद श्री कृष्ण की जै हो। श्री व्रजचंद विहारी की जै हो।
[1]
नव घनश्याम रूपी सबको
मोहित करने वाले श्री कृष्ण की जै हो। अहंकार एवं वासना को नष्ट करने वाले श्री
कृष्ण की जै हो। [2]
गज के समान गति वाली
प्रीतम लाल जी की भामिनी श्री राधा की जै हो। गोपियों की प्राणों से भी अधिक
प्यारी श्री राधा की जै हो। [3]
नव नवायमान रस की खानी
एवं दया की निधान श्री राधा जू की जै हो। श्रीवृषभानु दुलारी श्री राधा की जै हो। [4]
मोहि वास सदा वृन्दावन
कौं,
नित उठ यमुना पुलिन नहाऊँ। [1]
गिरि गोवर्द्धन की दे परिक्रमा,
दर्शन कर जीवन सफल बनाऊँ॥ [2]
सेवाकुञ्ज की करुँ आरती,
व्रज की रज में ही मिल जाऊँ। [3]
ऐसी कृपा करौ श्रीराधे,
वृन्दावन छोड़ बाहर न जाऊँ॥ [4]
- ब्रज के सवैया
हे श्री राधा, मुझे नित्य के लिए श्रीधाम वृंदावन में निवास प्रदान करें, जहाँ मैं
प्रतिदिन प्रातः श्री यमुना जी में स्नान कर सकूँ। [1]
जहाँ मैं गिरिराज गोवर्धन
की परिक्रमा करूँ और ब्रजभूमि के दर्शन से अपने जीवन को सार्थक बना सकूँ। [2]
जहाँ मैं सेवाकुंज की
आरती में सम्मिलित हो सकूँ और अंततः ब्रज की पवित्र रज में ही विलीन हो जाऊँ। [3]
हे श्री राधा, मुझ पर ऐसी
अनंत कृपा करें कि मैं कभी भी श्री वृंदावन धाम को छोड़कर कहीं और जाने की इच्छा न
करूँ। [4]
पड़ी रहो या गेल में साधु
संत चली जाए।
ब्रजरज उड़ मस्तक लगे, तो मुक्ति मुक्त हो जाए॥
- ब्रज के सेवैया
ब्रज की गलियों में ही पड़े रहो जहां भक्त चलते हैं, इस ब्रज रज का
ऐसा प्रभाव है कि जब यह रज उड़ कर मुक्ति के मस्तक पर पड़ती है तो मुक्ति भी मुक्त
हो जाती है [यह ब्रज रज की महिमा है जो मुक्ति को भी मुक्त करती है]
मेरो सुभाव चितैबे को माई
री
लाल निहार के बंसी बजाई।
[1]
वा दिन तें मोहि लागी
ठगौरी सी
लोग कहें कोई बावरी आई॥ [2]
यों रसखानि घिरयौ सिगरो
ब्रज
जानत वे कि मेरो जियराई।
[3]
जो कोऊ चाहो भलो अपनौ तौ
सनेह न काहूसों कीजौ री
माई॥ [4]
- श्री रसखान, रसखान
रत्नावली
हे सखी! मेरे स्वभाव को देखकर ही गोपाल ने अपनी बाँसुरी बजाई। [1]
उस दिन से मैं मानो
ठगी-सी रह गई हूँ। अब तो मुझे देखकर लोग कहते हैं, "यह कोई बावरी
है जो यहाँ आ गई है।" [2]
पूरा ब्रजमंडल मुझे बावरी
समझता है, पर मेरे हृदय की सच्ची बात तो केवल श्री कृष्ण जानते हैं और मेरा अपना हृदय।
[3]
जो कोई अपना भला चाहता हो, तो हे सखी!
उसे किसी से प्रेम नहीं करना चाहिए। [4]
ऐ रे मन मतवारे छोड़ दुनियाँ के द्वारे।
श्रीराधा नाम
के सहारे, सौंप जीवन-मरण॥
- ब्रज
के सवैया
अरे मेरे मूर्ख मतवारे मन, तू
दुनिया के द्वारों में भटकन छोड़ दे। अब तो तू केवल और केवल राधा नाम को ही सहारा
बना और जीवन-मरण श्री राधा रानी को सौंप दे।
मानुष हौं तो वही रसखानि, बसौं ब्रज
गोकुल गाँव के ग्वारन। [1]
जौ पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु
मँझारन॥ [2]
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो कियो हरिछत्र पुरंदर
धारन। [3]
जौ खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदी कूल कदंब की
डारन॥ [4]
- श्री रसखान
इस पद में श्री रसखान जी ने ब्रज के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा का वर्णन किया
है। वह कहते हैं, वास्तव में सच्चा मनुष्य वही है जो ब्रज में ग्वाल बालों के संग रहे, जिन्हें श्री
कृष्ण बेहद प्रेम करते हैं (इसका एक अर्थ यह भी है कि यदि मैं अगले जन्म में
मनुष्य बनूँ तो ब्रज का ग्वाल बनूँ)। [1]
यदि पशु बनूँ तो नंद की
गायों के साथ रहूँ। [2]
यदि पत्थर बनूँ तो
गोवर्धन पर्वत का बनूँ, जिसे श्री कृष्ण ने अपनी उंगली पर उठा लिया था। [3]
यदि पक्षी ही बनूँ तो
यमुना नदी के किनारे कदम्ब की डाल पर बसेरा बनाऊँ। कहने का अभिप्राय यह है कि हर
योनि में केवल और केवल ब्रज में ही निवास करूँ और ब्रज को कभी भी न त्यागूँ। [4]
जिनके उर में घनस्याम बसे,
तिन ध्यान महान कियो न कियो। [1]
वृन्दावन धाम कियो जिनने,
तिन औरहू धाम कियो न कियो॥ [2]
जमुना जल पान कियो जिनने,
तिन औरहु पान कियो न कियो। [3]
रसना जिनकी हरि नाम न ले,
तिन मानुस जन्म लियो न लियो॥ [4]
- ब्रज के सवैया
जिनके हृदय में घनश्याम बसे हैं, वह ध्यान करें या न करें, इससे कुछ फर्क
नहीं पड़ता। [1]
यदि वृंदावन धाम में चले
गए, तो अन्य किसी धाम में जाने की आवश्यकता नहीं है। [2]
यदि यमुना जल पान कर लिया, तो और कोई
पवित्र जल पान करने की आवश्यकता नहीं है। [3]
यदि हरि नाम ही न लिया, तो निस्संदेह
धिक्कार है, ऐसा मानव जीवन पाकर भी व्यर्थ में गंवा दिया। [4]
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ऐसे किशोरी जू नाहीं बनो,
कैसे सुधि मोरि बिसार रही हो। [1]
हे दीनन स्वामिनि रस विस्तारिणी,
का मम बार बिचार रही हो॥ [2]
तोर बिलोकत ऐसी दशा,
मोहे क्यों भवसिंधु मे डार रही हो। [3]
मो सम दीन अनेकन तारे,
वा श्रम सों अब हार रही हो॥ [4]
- ब्रज के सवैया
हे किशोरी जी, ऐसे आप मत बनिए, अपने इस जन की सुधि को बिसार मत देना। [1]
हे दीनन की एक मात्र
स्वामिनी, हे रस विस्तारिणी, ऐसा क्या हो गया कि मुझ पर कृपा करने की बारी आयी, और आप विचार
कर रही हो? [2]
हे स्वामिनी, मैं आपको
निहार रहा हूँ, आपके होते हुए मेरी ऐसी दशा क्यों है? मुझे इस भव सिंधु से
निकालकर अपने चरणों में पहुँचाइए। [3]
हे श्री राधे, मेरे जैसे
अनेक दीन जनों पर आपकी कृपा हुई है, मेरी बारी आयी तो आप
क्यों हार मान रही हो? [4]
श्री राधा माधव चरनौ प्रणवउं बारम्बार ।
एक तत्व दोऊ
तन धरे, नित रस पाराबार॥
- श्री
हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाईजी), पद
रत्नाकर, वंदना
एवं प्रार्थना (1.5)
मैं बारम्बार श्री राधा और श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करता
हूँ जो एक ही हैं (तत्व हैं) परन्तु भक्तों को सुख देने के लिए दो तन धारण किये
हुए हैं।
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करौ कृपा श्रीराधिका, बिनवौं
बारंबार।
बनी रहै स्मृति मधुर सुचि, मंगलमय सुखसार॥
- श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाईजी), पद रत्नाकर, वंदना एवं
प्रार्थना (15.1)
हे श्री राधे जू, बार-बार आपसे
ऐसी विनय की याचना करता हूँ कि मेरे हृदय में आपकी मंगलमय सुख सार स्वरूप मधुर
स्मृति नित्य ही बनी रहे।
जित जित भामिनि पग धरै, तित तित धावत लाल।
करत पलक पट
पाँवरि, रूप विमोहित बाल॥
- ब्रज
के सेवैया
जहाँ जहाँ श्री राधा जू के चरण पड़ते हैं, वहीँ वहीँ श्री श्यामसुन्दर उनके रूप माधुरी से विमोहित
हो दौड़ते हैं, और अपने पलकों के पाँवड़े बिछाते
जाते हैं।
श्री राधे प्राणन बसी, और न कछू
सुहाय।
दर्शन दीजै राधिके, मन मन्दिर में
आय॥
- ब्रज के सवैया
श्री राधा ही मेरे
प्राणों में बसी हैं, मुझे और कुछ नहीं सुहाता है। हे श्री राधा, मेरे मन रूपी मंदिर में
आकर मुझे दर्शन दीजिए
श्री मुख यों न बखान सके
वृषभानु सुता जू को रूप उजारौ। [1]
हे रसखान तू ज्ञान संभार तरैनि निहार जु रीझन हारौ॥ [2]
चारू सिंदूर को लाल रसाल, लसै वृजबाल को भाल
टीकारौ। [3]
गोद में मानौं विराजत है घनश्याम के सारे के सारे को सारौ॥ [4]
- श्री रसखान जी
वृषभानु सुता श्री राधा के मुखचंद्र की अनुपम छवि का वर्णन करना किसी के लिए
भी संभव नहीं है। [1]
श्री रसखान कहते हैं, "पहले अपने समस्त ज्ञान को त्याग दो, और यदि तुम
उनके सौंदर्य की तुलना ग्रहों और सितारों से करना चाहो, तो जान लो कि
उनका रूप-सौंदर्य इन सबसे भी परे और अतुलनीय है।" [2]
उनके सुंदर माथे पर रस में डूबा हुआ लाल सिंदूर, अद्भुत शोभा
के साथ सुशोभित है। [3]
जब श्री राधा श्रीकृष्ण की गोद में विराजमान होती हैं, जो वर्षा से
भरे हुए बादल की भांति घनश्याम हैं, तो समझो कि उनकी गोद में
सृष्टि अपने सम्पूर्ण सौंदर्य और कलाओं के साथ निवास कर रही है। [4]
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मन भूल मत जैयो, राधा रानी के चरण।
राधा रानी के
चरण, श्यामा प्यारी के चरण।
बाँके ठाकुर
की बाँकी, ठकुरानी के चरण॥ [1]
वृषभानु की
किशोरी, सुनी गैया हूँ ते भोरी।
प्रीति जान
के हूँ थोरी, तोही राखेगी शरण॥ [2]
जाकुँ श्याम
उर हेर, राधे-राधे-राधे टेर।
बांसुरी में
बेर-बेर, करे नाम से रमण॥ [3]
भक्त
‘प्रेमीन’ बखानी, जाकी महिमा रसखानी।
मिले भीख
मनमानी, कर प्यार से वरण॥ [4]
एरे मन
मतवारे, छोड़ दुनिया के द्वारे।
राधा नाम के
सहारे, सौंप जीवन मरण॥ [5]
- श्री प्रेमी जी
हे मन, श्री राधा रानी के
चरण कमलों को मत भूलना। श्यामा प्यारी के दिव्य चरण कमल, और ठाकुर बांके बिहारी की मनमोहिनी ठकुरानी के चरण कमल।
[1]
वृषभानु नंदिनी, जो
अति भोली और दयालु हैं, गाय से भी अधिक सरल
और उदार। तुम्हारे थोड़े से प्रेम को देखकर भी तुम्हें अपना आश्रय प्रदान करेंगी।
हे मन, श्री राधा रानी के चरण कमलों को मत भूलना। [2]
श्री राधा सदैव श्री कृष्ण के हृदय में निवास करती हैं, और श्री कृष्ण अपनी मधुर बांसुरी से "राधे
राधे" का नाम जपते हुए आनंदित रहते हैं। हे मन, श्री
राधा रानी के चरण कमलों को मत भूलना। [3]
रसिक भक्तों के मुख से सदैव गायी जाती हैं उन चरण कमलों की
अमृतमयी महिमा। जो भी वर चाहो वह मिल जाएगा, प्रेमपूर्वक
उनकी सेवा करो। हे मन, श्री राधा रानी के
चरण कमलों को मत भूलना। [4]
संसार के द्वार छोड़कर, व्यर्थ
भटकना अब बंद कर, और पूरे विश्वास से
श्री राधा नाम को थाम ले।अपना जीवन और मरण, दोनों
उनके चरणों में अर्पित कर दे। हे मन, श्री
राधा रानी के चरण कमलों को मत भूलना। [5]
नैन मिलाकर मोहन सों
वृषभानु लली मन में मुसकानी।
भौंह मरोर कै दूसरि ओर, कछु वह घूंघट
में शरमानी॥ [1]
देखि निहाल भई सजकी, वह सूरतिया मन
मांहि समानी।
हमें औरन की परवाह नहीं
अपनी ठकुरानी है राधिका रानी॥ [2]
- ब्रज के सवैया
जब श्री कृष्ण से श्री
राधिका के नैंन मिले, तब वृषभानु लली [श्री राधा] मन ही मन मुस्कुराने लगी, दूसरी ओर
देखती हुई उन्होंने घूँघट से अपने मुख को ढक लिया एवं शरमाने लगी। [1]
श्री राधिका जू की यह लीला देख समस्त सखियाँ निहाल हो गयी, सब सखियों के
हृदय में उनकी यह सुंदर छवि बस गयी एवं सखियों को और किसी की परवाह नहीं है, उनकी तो
ठकुरानी एक मात्र स्वामिनी श्री राधिका रानी हैं। [2]
सुख करे तन को मन को,
सखि प्रेम सरोवर को यह
पानी। [1]
हम करिकें स्नान यहाँ,
ब्रज की रज को निज शीश
चढ़ानी॥ [2]
वास मिलें ब्रजमण्डल को,
विनती हमको इतनी ही
सुनानी। [3]
हमें औरन की परवाह नहीं,
अपनी ठकुरानी श्री राधिका
रानी॥ [4]
- ब्रज के
सेवैयाँ
सखी, यह प्रेम सरोवर का जल ऐसा है जो तन को और मन को सुख
देने वाला है। [1]
हम यहाँ स्नान करके ब्रज
की रज को अपने शीश पर चढ़ाते हैं। [2]
हमें बस इतनी ही विनती
करनी है कि हमें ब्रज मंडल का नित्य वास मिल जाए। [3]
हमें किसी और की परवाह
नहीं, हमारी ठकुरानी केवल और केवल श्री राधिका रानी ही हैं। [4]
वास करें ब्रज में फिर,
दूसरे देशन की कहूं राह
ना जानी। [1]
प्रेम समाए रहयौ हिय में,
बनि है कबहूंन विरागी न
ज्ञानी॥ [2]
संग रहे रसिकों के सदा,
अरु बात करे रस ही रस
सानि। [3]
हमें औरन की परवाह नहीं,
अपनी ठकुरानी श्री राधिका
रानी॥ [4]
- ब्रज के
सेवैयाँ
हम सदा नित्य ही ब्रज में
वास करते हैं, हमें अन्य देशों और प्रदेशों का रास्ता भी जानना नहीं है। [1]
हमारे हृदय में नित्य ही
प्रिया लाल का प्रेम समाया है, अतः हम न तो वैरागी बनना
चाहते हैं और न ही ज्ञानी (हम तो प्रिया लाल के अनन्य प्रेमी हैं बस)। [2]
हम नित्य ही रसिकों के
संग में रहते हैं, और रस की चर्चा ही करते हैं, तथा रस ही ग्रहण करते
हैं। [3]
हमें किसी और की परवाह
नहीं, हमारी ठकुरानी केवल और केवल श्री राधिका रानी ही हैं। [4]
अंग ही अंग जड़ाऊ जड़े, अरु सीस बनी
पगिया जरतारी।
मोतिन माल हिये लटकै, लटुबा लटकै लट घूँघर वारी॥ [1]
पूरब पुन्य तें ‘रसखानि’ ये माधुरी मूरति आय निहारी।
चारो दिशा की महा अघनाशक, झाँकी झरोखन बाँके
बिहारी॥ [2]
- श्री रसखान जी, रसखान रत्नावली
श्री बांके बिहारी अंग-अंग पर सोने-चांदी के तारों से सुसज्जित वस्त्र धारण
किए हुए हैं, और उनके सिर पर जरी से बनी पीले रंग की भव्य पगड़ी सुशोभित है। उनके गले में
मोतियों की सुंदर माला झूल रही है, और उनके चेहरे पर
घुँघराले बालों की लट मनमोहक ढंग से सजी है। [1]
पुराने पुण्य और भक्ति का
फल तब प्राप्त होता है, जब श्री बांके बिहारी की मोहिनी मूर्ति का दर्शन मिलता है। चारों दिशाओं के
समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, जब मन के झरोखे से श्री
बांके बिहारी के रूप का अनुभव किया जाता है। [2]
तुम दोउन के चरण कौ बन्यौ
रहै संयोग।
जो कछु तुम चाहो, करौ राधा माधव
दोऊ॥
- ब्रज के
सेवैयाँ
मेरा ऐसा संयोग हो कि मैं
नित्य ही आप दोनों [श्री राधा कृष्ण] के चरणों से जुड़ा रहूं, चाहे इसके लिए
आप दोनों कुछ भी चाहो सो करो, परन्तु, हे राधा माधव, मुझे अपने
चरणों में ही रखो।
अहो किशोरी स्वामिनी, गोरी परम दयाल।
तनिक कृपा की
कोर लखि, कीजै मोहि निहाल॥
- ब्रज
के सवैया
अहो स्वामिनी किशोरीजी, आप
गौर वर्ण की हो एवं परम दयाल हो। आप जैसा और कृपालु कोई नहीं है। कृपया मेरी ओर इक
कृपा की दृष्टि डाल कर प्रेम रस से निहाल कर दीजिए।
कुंज गली में अली निकसी
तहाँ साँवरे ढोटा कियौ
भटभेरो। [1]
माई री वा मुख की मुसकान
गयौ मन बूढ़ि फिरै नहीं
फेरौ॥ [2]
डोरि लियौ दृग चोरि लियौ
चित डारयौ है प्रेम के
फंद घनेरो। [3]
कैसे करों अब क्यों
निकसौं
रसखानि परयौ तन रूप को
घेरो॥ [4]
- श्री रसखान
जब मैं कुंज गली से निकल
रही थी तभी श्याम सुंदर से मेरी भेंट हुई। [1]
हे सखी, मेरा मन अब
उसकी मुस्कान में डूब गया। यदि मैं कोशिश करना चाहूँ परन्तु अब कभी वापस नहीं आ
सकेगा। [2]
उसकी मनमोहक मुस्कान ने
मेरी आँखों को चुरा लिया है और मेरे हृदय को प्रेम के फंदे में बाँध दिया है। [3]
अब मैं क्या करूँ, अब कहाँ जाऊँ? श्री रसखान
क़हते हैं कि अब मेरा पूर्ण अस्तित्व श्री श्याम सुंदर के अद्बुत रूप से घिर गया
है। [4]
ऐसे नहीं हम चाहन हारे, जो आज तुम्हें
कल और को चाहे।
आँख निकार दिए दोउ फैंके, जो और की ओर
लखे और लखाय॥
- ब्रज के सवैया
हे राधा कृष्ण: हम ऐसे
आपके प्रेमी नहीं हैं जो आज तुम्हें चाहें और कल किसी और को। वह आँखें निकाल कर
फेंक देने योग्य हैं जो श्री राधा कृष्ण के अतिरिक्त किसी और को देखें या दिखाएँ।
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जय शरणागत वत्सल की, जय पूतना प्राण त्रिहारी की जय जय ।
ब्रजभूषण
कष्ण मुरारी की जय, जगभूषण रास बिहारी की जय जय ॥
- ब्रज
के सवैया
शरणागत पर कृपा बरसाने वाले, पूतना के प्राण हर कर उसका उद्धार करने वाले, ब्रज के अद्भुत श्रृंगार स्वरूप और जगत के परम आभूषण, रास बिहारी श्री कृष्ण मुरारी की जय हो।
चलो सखी वहाँ जाइये जहाँ
बसें बृजराज।
गोरस बेचन हरि मिले एक
पंथ दो काज॥
- ब्रज के
सेवैयाँ
आओ सखी, चलो वहाँ चलते
हैं जहां ब्रज राज श्री कृष्ण का निवास है। हम अपने गोरस (दुग्ध उत्पाद) बेचेंगे
और हरि (श्री कृष्ण) से भी मिलेंगे, एक मार्ग से दो उद्देश्य
पूर्ण होंगे।
प्यारी श्रृंगार निज करसों बनायौ लाल,
सीस फूल लाल
लाल भरी माँग रोरी की। [1]
लालन के हृदय
कौ प्रकाश बनि बैंदी लाल,
बैठ्यौ पीय
माथे लाल या सों छवि कोरी की॥ [2]
राधा मुख
चन्द्र को प्रकाश दिस दसहु में,
कारौ तुम रंग
मन करौ टेव चोरी की। [3]
साँच कहुँ
कुमर बिलग जिन मानौ कछु,
झुकनि लौ
झुकि है वृषभानु की किशोरी की॥ [4]
- ब्रज
के कवित्त
श्री श्यामसुंदर अपने हाथों से श्रीराधारानी का श्रृंगार कर रहे
हैं। वह उनके सिर पर लाल फूल सजा कर उनकी माँग में लाल सिंदूर भर रहे हैं। [1]
श्री लाल जी के हृदय का प्रकाश ही मानो श्री राधिका की लाल
बिंदी बन गया है, जो उनके माथे पर
विराजमान है और उनकी सुंदरता की वृद्धि कर रहा है। [2]
श्रीराधाजी के मुख कमल का तेज चन्द्रमा के समान दसों दिशाओं में
व्याप्त हो रहा है, श्री श्याम सुंदर
श्याम वर्ण के हैं एवं हृदय को चुराने वाले हैं ! [3]
हे नित्य किशोर श्री कृष्ण, मैं
सत्य कहता हूँ, आप स्वयं को तनिक भी विलग न
मानना, श्री वृषभानु नंदिनी का झुकाव आपकी ओर है और आपके कंधे
पर सिर रख रही हैं। [4]
नहिं ब्रह्म सों काम कछु हमको, वैकुंठ की राह न जावनी है।
ब्रज की रज
में रज ह्वै के मिलूँ, यही प्रीति की रीति निभावनी है॥
- ब्रज
के सेवैयाँ
हमको ब्रह्म [भगवान] से कोई काम नहीं, न ही हमें वैकुंठ से कुछ लेना देना है, हम वैकुंठ की राह को देखते भी नहीं। हमारी इतनी ही आशा
है की ब्रज की रज में हम भी एक कण होकर [रज] बनकर मिल जाएँ, यही प्रीति की रीति हमें निभानी है
आप ही मखेश्वरी
क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी है,
देवे सी त्रिवेद
भारतीश्वरी अधारी है। [1]
आप ही प्रमाण शासनेश्वरी
रमेश्वरी है,
क्षमेसी प्रमोद
काननेश्वरी निहारी है॥ [2]
कवि जय रामदेव ऐसी श्री
बृजेश्वरी के,
चरणन कोटि-कोटि वन्दना
हमारी है। [3]
राधे जू कृपाकटाक्ष मोपर
करोगी कब,
आये हम स्वामिनीजू शरण
तिहारी है॥ [4]
- श्री जयरामदेव
हे श्री राधा, आप ही
मखेश्वरी, क्रियेश्वरी एवं स्वधेश्वरी हैं तथा आप ही समस्त देवी-देवताओं समेत वेदों की
आधार हैं। [1]
आप ही तीनों लोकों की
शासक हैं, पतितों को क्षमा करनेवाली हैं, एवं आप ही के एक अंश से
लक्ष्मी, पार्वती एवं सरस्वती देवी का प्राकट्य होता है। [2]
श्री जय रामदेव जी कहते
हैं "ऐसी हमारी ब्रज की महारानी श्री राधा के चरण कमलों में मेरा कोटि-कोटि
प्रणाम है।" [3]
हे श्री राधे, मैं आपके शरण
में आया हूँ, कब आप मुझपर कृपा करोगी। [4]
तजि सब आस, करै वृन्दावन
वास खास,
कुंजन की सेवा में, निशंक चित धारे हैं। [1]
जप, तप, योग, यज्ञ, संयम, समाधि, राग,
ज्ञान, ध्यान, धारणा में मन नाहीं धारे हैं॥ [2]
देव, पितृ, भैरव, भवानी, भूत, प्रेत आदि
लोक-परलोक ते छबीले भये न्यारे हैं। [3]
एक बात जानैं, कछु दूजी पहिचानत नाहीं।
हम हैं श्रीबाँकेबिहारी जी के, बिहारी जू हमारे हैं॥ [4]
- श्री छबीले जी
सभी आशाओं को त्यागकर वृंदावन में निवास करना चाहिए और प्रेमपूर्वक निष्कपट
भाव से कुञ्ज-निकुंजों की सेवा में लीन रहना चाहिए। [1]
जप, तप, योग, यज्ञ, संयम, समाधि, राग, ज्ञान और
ध्यान जैसे सभी प्रकार के साधनों को मन से निशंक होकर त्याग देना चाहिए। [2]
श्री छबीले जी कहते हैं
कि देवता, पितृ, भैरव, भवानी, भूत, प्रेत और इस लोक तथा परलोक की सभी इच्छाओं को त्यागने पर ही कोई विरला इस रस
को प्राप्त कर पाता है। [3]
ऐसे सौभाग्यशाली भक्त का
भाव यही होता है: "मैं तो केवल इतना जानता हूँ कि मैं श्री बाँकेबिहारी जी का
हूँ और श्री बिहारी जू मेरे हैं। इसके अतिरिक्त मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं।" [4]
मोर के चन्दन मौर बन्यौ
दिन दूलह है अली नंद को नंदन।
श्रीवृषभानुसुता दुलही दिन जोरि बनी बिधना सुखकंदन॥ [1]
रसखानि न आवत मो पै कह्यौ कछु दोउ फँसे छवि प्रेम के फंदन।
जाहि बिलोके सबै सुख पावत ये ब्रजजीवन है दुखदंदन॥ [2]
- श्री रसखान
हे सखी! नंदनंदन मोरपंख सजाकर दूल्हा बने हैं और दुल्हन हैं श्रीवृषभान सुता
(श्री राधा)। ईश्वर ने इस जोड़ी को सुख का मूल बनाया है। [1]
हे रसखान! मुझे तो कुछ
कहना ही नहीं आता। दोनों ही प्रेम की फाँस में फंसे हैं, जिसे देखकर
सबको सुख मिलता है। यह ब्रज का जीवन (ब्रज में निवास करने वालों का जीवन) ही सभी
दुःखों का निवारक है। [2]
एक वेर राधा रमण, कहै प्रेम से जोय।
पातक कोटिक
जन्म के, भस्म तुरत ही होय॥
- ब्रज
के सवैया
यदि कोई एक बार भी प्रेम से "राधा रमण" कहता है तो
अनंत कोटि जन्मों के अपराध उसी क्षण भस्म हो जाते हैं।
श्रीराधा बाधा-हरन, रसिकन जीवन-मूरि।
जनम जनम वर
माँगहूँ, श्रीपदपंकज-धूरि॥
- ब्रज
के सवैया
हे श्रीराधा, आप समस्त बाधाओं का
हरण करनेवाली हैं एवं रसिकों की जीवन प्राण हैं; मैं
आपसे यही वरदान मांगता हूँ की प्रत्येक जन्म में मुझे आपके चरण कमलों की रज
प्राप्त हो।
प्रीति को बाण लग्यो तन
पै, बदनामी को बीज मै बोय चुकी री।
मेरो कान्ह कुंवर सु तो नेह लग्यो, जिंदगानी सो हाथ मै धोय
चुकी री॥
- ब्रज के सेवैयाँ
प्रेम का बाण तो मेरे शरीर पर चल ही चुका है। अतः अब मैं बदनामी का बीज बो
चुकी हूँ। श्यामसुन्दर से प्रेम कर के मानो अपने जीवन से ही हाथ धो चुकी हूँ।
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यह रस ब्रह्म लोक पातालै अवनिहूँ दरसत नाहीं।
या रस कौं
कमलापुर हूँ के तरसत हैं मन माँहीं॥ [1]
सो रस
रासेश्वरी की कृपा ते प्रेमीजन अवगाहीं।
‘रसिक’ लख्यौ जो सुख वृन्दावन तीन
लोक सो नाहीं॥ [2]
- रसिक
वाणी
यह ऐसा अद्बुत रस है जो ब्रह्म लोक एवं पाताल लोक में नहीं
देखने को मिलता, इस वृंदावन रस के लिए वैकुंठ के
जन भी तरसते हैं। [1]
यही वृंदावन रस श्री रासेश्वरी राधा रानी की कृपा से प्रेमी
[रसिक] जनों को सुलभ होता है। रसिकों ने जो सुख वृन्दावन में पान किया है वैसा
तीनों लोकों में कहीं नहीं है। [2]
उन्हीं के सनेहन सानी रहै
उन्हीं के जु नेह दिवानी रहैं।
उन्हीं की सुनै न औ बैन त्यों सैन सों चैन अनेकन ठानी रहैं॥ [1]
उन्हीं सँग डोलन में रसखानि सबै सुख सिंधु अधानी रहैं।
उन्हीं बिन ज्यों जलहीन ह्वैं मीन सी आँखि मेरी अँसुवानी रहैं॥ [2]
- श्री रसखान, रसखान रत्नावली
हे रसखान! मैं तो उन्हीं के प्रेम में डूबी हुई हूँ और उन्हीं के स्नेह में
दीवानी हूँ। बस, वही हैं जिनकी मधुर वाणी सुने बिना मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। [1]
उन प्रेम-सुधा बरसाने
वाले मनमोहन के संग चलने में ही मुझे आनंद का सागर प्राप्त होता है। उनके बिना तो
मैं जल बिन मछली की भांति तड़पती हूँ, और मेरी आँखें अश्रुओं से
भरी रहती हैं। [2
जहँ जहँ मणिमय धरनि पर, चरण धरति सुकुँमारि।
तहँ तहँ पिय
दृग अंचलनि, पहलेहिं धरहिं सँवारि॥
- ब्रज
के सेवैया
जहाँ-जहाँ इस वृंदावन की मणिमय रूपी धरनि पर श्री राधिका प्यारी
चरण रखती हैं, वहाँ-वहाँ पिय श्री कृष्ण अपने
दृग के आँचल से पहले ही उस भूमि को संवारते रहते हैं।
भक्त वत्सला लाडिली, श्यामा परम
उदार।
निज रसिकन सुख कारनी, जै जै रस
आधार॥
- ब्रज के
सेवैया
भक्तों पर स्नेह एवं
प्रेम बरसाने वाली परम उदार स्वामिनी, निज रसिकों को सुख प्रदान
करने वाली, रस की आधार स्वरूप श्यामा जू [श्रीराधा] की जै हो।
बंसी वारे मोहना, बंसी तनक
बजाय।
तेरौ बंसी मन हर्यौ, घर आँगन न सुहाय॥
- ब्रज के सेवैया
हे बंसी वाले श्याम सुंदर, हमें भी अपनी मधुर तान
सुना दो, तेरी वंशी ने हमारा मन भी मोह लिया है। अब हमें अपना घर आँगन नहीं सुहाता।
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विछुरे पिय के जग सूनो
भयो,
अब का करिये कहि पेखिये
का। [1]
सुख छांडि के दर्शन को
तुम्हरे
इन तुच्छन को अब लेखिये
का॥ [2]
‘हरिचन्द’ जो
हीरन को ब्यवहार
इन कांचन को लै परेखिये
का। [3]
जिन आंखिन में वह रूप
बस्यो
उन आंखन सों अब देखिये
का॥ [4]
- श्री भारतेंदु
हरिशचंद्र, भारतेंदु ग्रंथावली
श्री राधा कृष्ण के बिना
यह जग सूना है और रसहीन है, इन संसारिक वस्तुओं से वह दिव्य आनंद की भूख कैसे मिटेगी? [1]
आपके दर्शन के सुख को
छोड़कर इन संसारिक तुच्छ आकांक्षाओं और वस्तुओं को अब क्यों देखें? [2]
श्री हरिचंद जी कहते हैं
कि जिस व्यक्ति का हीरों का व्यवहार है (अर्थात् श्री राधा कृष्ण से जिसका संबंध
है), वह काँच (संसारिक व्यक्ति और वस्तुओं) में क्यों आसक्ति रखे? [3]
जिन आँखों में श्री राधा
कृष्ण बसें हैं, वह आँखें अब किसी और की ओर क्यों देखें? [4]
बाँकी पाग, चन्द्रिका, तापर तुर्रा रुरकि रहा है।
वर सिरपंच, माल उर बांकी, पट की चटक अहा है॥ [1]
बाँके नैन, मैन-सर बाँके, बैन-विनोद महा है।
बाँके की
बाँकी झाँकी करि, बाकी रही कहा है॥ [2]
- श्री
सहचरीशरण देव, सरसमंजावली
(29)
अनंत-अनंत सौंदर्य-माधुर्य-निधि ठाकुर श्रीबांकेबिहारीजी महाराज
के सिर पर बंधी टेडी पाग सुशोभित हो रही है। पाग पर चन्द्रिका और तिरछे लगे तुर्रे
की शोभा बड़ी ही निराली है। सुन्दर सुसज्जित सिरपंच और उर-स्थल पर ढुलक रही वनमाला
का बाँकापन तथा अंग-अंग में धारण किये वस्त्रों की अद्भुत चटक को देख-देखकर मन
मुग्ध हो रहा है। [1]
कामदेव के विषम वाणों को तिरस्कृत करने वाले रतनारे नेत्रों से
कटाक्षों की वर्षा हो रही है। अरुणाभ अधरों से वचन माधुरी का अमृत रस झर रहा है।
ऐसे अद्भुत ठाकुर की दिव्यातिदिव्य विशुद्ध रसमयी बाँकी झाँकी का दर्शन कर लेने पर
भी कुछ करना शेष रह जाता है, यह हम नहीं जानते। [2]
जाप जप्यो नहिं मन्त्र
थप्यो,
नहिं वेद पुरान सुने न बखानौ। [1]
बीत गए दिन यों ही सबै,
रस मोहन मोहनी के न बिकानौ॥ [2]
चेरों कहावत तेरो सदा पुनि,
और न कोऊ मैं दूसरो जानौ। [3]
कै तो गरीब को लेहु निबाह,
कै छाँड़ो गरीब निवाज कौ बानौ॥ [4]
- ब्रज के सेवैया
न मैंने भगवन्नाम का जप किया, न मंत्र का अनुष्ठान
किया। न वेद-पुराणों का श्रवण किया, न किसी कथा का कथन किया।
[1]
हे श्री श्यामा श्याम, मैंने तो बस
आपके चरणों की शरण ग्रहण की है; फिर भी, इतना समय बीत
जाने पर भी आपके दिव्य प्रेमरस में डूब नहीं सका हूँ। [2]
मैं सदा आपका ही दास हूँ, आपके सिवा मैं
किसी और का स्मरण नहीं करता। [3]
हे श्री श्यामा श्याम, या तो मुझ
गरीब की बांह पकड़कर इस माया से पार लगाइए, अन्यथा गरीब निवाज कहे
जाने का अभिमान त्याग दीजिए। [4]
‘हरे कृष्ण’
सदा कहते-कहते,
मन चाहे जहाँ वहाँ घूमा करूँ। [1]
मधु मोहन रूप का पी करके,
उसमें उनमत्त हो झूमा करूँ॥ [2]
अति सुन्दर वेश ब्रजेश तेरा,
रमा रोम-ही-रोम में रूमा करूँ। [3]
मन-मन्दिर में बिठला के तुझे,
पग तेरे निरन्तर चूमा करूँ॥ [4]
- श्री हरे कृष्ण जी
मैं सदा "हरे कृष्ण" का जाप करूँ और जहां मन हो, आनंद में
घूमता फिरूं। [1]
मधुमोहन के रूप का पान कर, उन्मत्त होकर
मस्ती में झूमता फिरूँ। [2]
हे ब्रजेश, तेरा रूप
अत्यंत सुंदर है; अपने रोम-रोम में तुझे बसाकर, हर श्वास में तेरा भजन
करता रहूँ। [3]
हे मोहन, तुझे अपने मन
के मंदिर में बिठाकर, तेरे चरणों का नित्य प्रेम से स्पर्श और वंदन करता रहूँ। [4]
वह और की आशा करे-न-करे,
जिसे आश्रय श्री हरि नाम का है। [1]
उसे स्वर्ग से मित्र प्रयोजन क्या,
नित वासी जो गोकुल धाम का है॥ [2]
बस, सार्थक जन्म उसी का यहाँ,
‘हरे कृष्ण’ जो चाकर श्याम का है। [3]
बिना कृष्ण के दर्शन के जग में,
यह जीवन ही किस काम का है॥ [4]
- श्री हरे कृष्ण जी
वह और की आशा क्या करे, जिसे आश्रय श्री हरि के
नाम का है। अर्थात, जो व्यक्ति श्री कृष्ण के नाम में समर्पित है, उसे अन्य किसी वस्तु की
आवश्यकता नहीं रहती। [1]
जो व्यक्ति नित्य गोकुल
धाम का वासी है, उसे स्वर्ग से क्या प्रयोजन? गोकुल धाम में वास करने
वाला व्यक्ति स्वर्ग के सुखों से भी ऊपर है, क्योंकि गोकुल धाम में
श्री कृष्ण की अपार प्रेम लीला का अनुभव होता है। [2]
श्री हरे कृष्ण जी कहते
हैं कि इस जगत में वही व्यक्ति सार्थक जीवन जीता है, जो श्री श्याम सुंदर का
चाकर है। उनका जीवन श्री कृष्ण की सेवा में ही पूरी तरह समर्पित होता है, यही सच्ची
सार्थकता है। [3]
भगवान श्री कृष्ण के
दर्शन के बिना यह जीवन ही किस काम का है? श्री कृष्ण के दर्शन के
बिना जीवन निरर्थक है, क्योंकि वही दर्शन जीव को परम सुख और मुक्ति प्रदान करते हैं। [4]
दृग पात्र में प्रेम का जल भरि के, पद पँकज नाथ पखारा करुँ।
बन प्रेम
पुजारी तुम्हारा प्रभो, नित आरती भव्य उतारा करुँ॥
- ब्रज
के सेवैयाँ
हे नाथ, मेरे नेत्रों से बहने
वाले प्रेमाश्रुओं से आपके चरण कमलों का नित्य अभिषेक करता रहूं। आपका
प्रेम-पुजारी बनकर, आपकी सदा आरती उतारता
रहूं।
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किशोरी जू मोहे भरोसौ तेरो। [1]
तुम बिन मेरो
कोई नहीं है, सब जग माँझ अँधेरो।
मेरी तो तुम
ही हो सर्वस, और न दूजो हेरो॥ [2]
नहि विद्या
जप तप व्रत संयम, मेरे खूट न खेरो।
'प्रियाशरण' विनवत कर जोरे, कुञ्जन मांही बसेरो॥ [3]
- श्री
प्रिया शरण जी
हे किशोरी जी, मुझे तो केवल एक आपका
ही भरोसा है। [1]
हे किशोरी जी! तुम्हारे बिना तो मेरा अपना कोई भी नहीं है, पूरे जग में मानो अंधेरा ही पड़ा हो। मेरी तो एक मात्र
आप ही सर्वस्व हो, अन्य किसी की ओर मैं
दृष्टि भी नहीं डालता, चाहे वह कितना ही
महान क्यूँ न हो। [2]
न मेरे पास विद्या का बल है, न
जप, तप, व्रत, संयम इत्यादि का ही एवं न ही आपके चरणों के अतिरिक्त
कोई निवास स्थान शेष रह गया है। श्री प्रियाशरण जी कहती हैं कि मैं दोनों हाथों को
जोड़ कर विनती करती हूँ कि मुझे नित्य अपने चरणों में अर्थात् वृंदावन की कुंजों
में ही बसाए रखिए। [3]
कहि न जाय मुखसौं कछू
स्याम-प्रेम की बात।
नभ जल थल चर अचर सब स्यामहि स्याम दिखात॥ [1]
ब्रह्म नहीं, माया नहीं, नहीं जीव, नहि काल।
अपनीहू सुधि ना रही, रह्यो एक नँदलाल॥ [2]
को कासों केहि विधि कहा, कहै हृदैकी बात।
हरि हेरत हिय हरि गयो हरि सर्वत्र लखात॥ [3]
- ब्रज के सेवैया
श्याम का यह प्रेम ऐसा है जिसे मुख से कहना असम्भव है। आकाश, जल, पृथ्वी, चल-अचल जीव
सभी श्याम के रंग में रंगे हुए प्रतीत होते हैं। [1]
न अब मैं रचयिता ब्रह्मा को जानता हूं, न माया को, न जीव को, न काल को। अब
मुझे अपनी ही सुधि नहीं है, अब मेरे हृदय में एक नंदलाल बसे हैं। [2]
अब इस हृदय की बात किसको बतायी जाए, कोई बचा ही नहीं है।
वास्तव में अब कोई रहस्य रह ही नहीं गया है। हरि को निहारते ही हृदय मानो अपना रहा
ही नहीं। अब हरि ही सर्वत्र दिखायी दे रहे हैं। [3]
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कहाँ जाउँ कासों कहौं, मोहिं और कहाँ ठोर।
राधा रानी के
विना, स्वामिनि कोई न और॥
- ब्रज
के सेवैया
मैं कहां जाऊं, किससे कहुं, मेरी कोई अन्य ठौर नहीं है। श्री राधा रानी के बिना
मेरी कोई स्वामिनी नहीं है।
ठाकुर नाहीं दूसरों, श्री राधा रमण समान।
जग प्रपंच को
छांड़ि कें, धरी उन्हीं को ध्यान॥
- ब्रज
के सेवैया
श्री राधारमण के समान दूसरे कोई ठाकुर नहीं अत: जग प्रपंच को
छोड़ कर इनका ही ध्यान करना चाहिए।
कब गहवर की गलिन में, फिरहिं होय
चकोर।
जुगल चंद मुख निरखिहौं, नागर नवल किशोर॥
- ब्रज के सवैया
ऐसा कब होगा कि मैं गह्वर
वन की कुंज गलियों में चकोर की भाँति विचरण करता हुआ नवल युगल किशोर (श्री राधा
कृष्ण) के मुखचंद्र को निरखूँगा।
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गिरिराज उठा कुछ ऊपर को,
सुरभी मुख में तृण तोड़े खड़ी हैं। [1]
अहो ! कोकिला कंठ भी मौन हुआ,
मृगी मोहित सी मन मोड़े खड़ी हैं॥ [2]
‘हरेकृष्ण’ ! कहें किसको किसको?
यमुना अपनी गति छोड़े खड़ी हैं। [3]
मनमोहन की मुरली सुनके,
रति रम्भा रमा कर जोड़े खड़ी हैं॥ [4]
- श्री हरे कृष्ण जी
गिरिराज कुछ ऊपर सा उठा खड़ा है और गाय मानो मुख में चारा तोड़े हुए वैसे ही
खड़ी है। [1]
कोकिला का कंठ भी मौन हो
गया, और मृगी भी मोहित हो कर खड़ी है। [2]
श्री हरे कृष्ण जी कहते
हैं कि अब क्या-क्या बताएँ, यमुना भी गति हीन हो गई हैं। [3]
मनमोहन की मुरली सुनकर
रति, रम्भा और लक्ष्मी हाथ जोड़ कर खड़ी हैं। [4
जित देखौं तित स्याममई है।
स्याम कुंज
बन जमुना स्यामा, स्याम गगन घनघटा छई है॥ [1]
सब रंगन में
स्याम भरो है, लोग कहत यह बात नई है।
हौं बौरी, की लोगनहीकी स्याम पुतरिया बदल गई है॥ [2]
चन्द्रसार
रबिसाद स्याम है, मृगमद स्याम काम बिजई है।
नीलकंठ को
कंठ स्याम है, मनो स्यामता बेल बई है॥ [3]
श्रुति को
अच्छर स्याम देखियत, दीपसिखापर स्यामतई है।
नर-देवन की
कौन कथा है, अलख-ब्रह्मछबि स्याममई है॥ [4]
- ब्रज
के सेवैया
एक ब्रज की सखी जो हर जगह श्याम सुंदर को ही निहार रही है, वह कहती है:
मैं जिस भी दिशा में देखती हूं, मुझे
सब कुछ श्याम रँग ही दिखाई देता है। कुंज और वन श्याम रँग के हैं, यमुना का पानी भी श्याम रँग का है, एवं आकाश में श्याम रँग की ही घटा छाई हुई है। [1]
सब रंगों में श्याम रँग ही व्याप्त है ।लोग इसे काल्पनिक मान
सकते हैं, क्या मैं बौरा गया हूँ? या
लोगों की आँखों में श्याम रँग की पुतलियाँ भी बदल गई हैं? [2]
चाँद और सूरज श्याम रँग के लगते हैं; मृगमद एवं कामदेव भी श्याम रँग के हो गए हैं, नील कंठ का कंठ भी श्याम रँग का है, मानो पूरी पृथ्वी पर श्याम रंग व्याप्त हो गया है। [3]
वेदों के अक्षर भी सांवले प्रतीत होते हैं, दीपशिखा भी श्याम रँग की है। नर एवं देवताओं के बारे
में क्या कहें, निराकार ब्रह्म ने भी मानो श्याम
रँग ही धारण कर लिया। [4]
श्री राधा - पद - भक्ति
-रस, 'रस वृन्दावन' माँहि।
यह राधा रस धवलि है, या में संशय
नाँहि॥
- ब्रज के
सेवैया
श्री राधारानी के चरणों
की भक्ति का रस तो केवल रस से परिपूर्ण श्री वृन्दावन में ही है। यह श्री राधा रस
परम उज्जवल है, इसमें संशय नहीं।
अहो राधिके स्वामिनी गोरी परम दयाल।
सदा बसो मेरे
हिये, करके कृपा कृपाल॥
- ब्रज
के सवैया
हे स्वामिनी, श्री राधिका जू, आप गौर वर्ण की हो एवं परम दयाल हो। हे परम कृपाल, ऐसी कृपा करो कि मेरे हृदय में आप नित्य वास करो।
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ब्रज की रज में लोट कर, यमुना जल कर
पान।
श्री राधा राधा रटते, या तन सों
निकले प्रान॥
- ब्रज के
सेवैया
ब्रज की रज में लोटो एवं
यमुना जल का पान करो, श्री राधारानी की ऐसी कृपा हो कि “राधा राधा” रटते-रटते ही तन से प्राण
निकलें।
ब्रज की महिमा को कहै, को बरनै ब्रज धाम्।
जहाँ बसत हर
साँस मैं, श्री राधे और श्याम्॥
- ब्रज
के सेवैया
ब्रज की महिमा का वर्णन कौन कर
सकता है, और कौन इस पावन धाम की महत्ता का बखान कर सकता है, जहां हर एक सांस में श्री राधे-श्याम समाए हुए हैं।
प्रीति रीति जान्यौ चहै, तो चातक सों
सीख। स्वाँति सलिल सोउ जलद पै, माँगे अनत न भीख॥
तैसेहि जो जन जगत सों, चाहै निज उद्धार। तजि
राधा काऊ देव पै, मती निज हाथ पसार॥
- ब्रज के सेवैया
यदि प्रीति की रीति जानने की इच्छा हो तो चातक पक्षी से सीखो जो स्वाति बूँद
के अतिरिक्त मरना स्वीकार करता है परंतु और कुछ भी ग्रहण नहीं करता और यहाँ वहाँ
भीख नहीं माँगता। इसी तरह यदि अपना उद्धार इस जगत में करना चाहते हो तो श्री राधा
की अनन्य भक्ति करो और उनको त्याग कर अन्य किसी देव के आगे अपने हाथ मत पसारो।
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मिलि है कब अंगधार ह्वै, श्री बन बीथिन धूर।
परिहैं पद
पंकज जुगल मेरी जीवन मूर॥
- ब्रज
के सेवैया
कब मैं श्री वृंदावन की रज में अपने पूरे शरीर को ढँकने में
सक्षम हो जाऊँगा, जिस रज में युगल
दिव्य दंपति श्री राधा कृष्ण के दिव्य चरण कमल पड़े हैं, जो मेरे जीवन प्राण हैं।
जिन देह दई वर मानुस की,
धन धाम हितू परिवार है रे।
ब्रजधाम भलौ रहिवे कूँ दियो,
निज सेवादई सुखसार है रे॥ [1]
घर - बाहर संग सदा लौं रहै,
फिर तोहि कछू ना विचार है रे।
ऐसे श्री बॉके बिहारी जी कूँ,
मन भूल गयो धिक्कार है रे॥ [2]
- ब्रज के सेवैया
जिसने तुझे यह मानव देह दी, धन-ऐश्वर्य और परिवार का
सुख दिया, ब्रजधाम में रहने का सौभाग्य दिया, और अपनी परम आनन्द स्वरूप
सेवा भी प्रदान की। [1]
जो घर में और बाहर, हर क्षण तेरे साथ रहता है, जिसके कारण तुझे कुछ और
विचारने की आवश्यकता भी नहीं। हे मन, ऐसे कृपालु श्री बाँके
बिहारी, जो हर प्रकार से अनुग्रह बरसाने वाले हैं, उनको तू भूल गया—तुझ पर
धिक्कार है। [2]
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जयति ललितादि देवीय व्रज श्रुतिरिचा,
कृष्ण प्रिय
केलि आधीर अंगी। [1]
जुगल-रस-मत्त
आनंदमय रूपनिधि,
सकल सुख
समयकी छाँह संगी॥ [2]
गौरमुख
हिमकरनकी जु किरनावली,
स्रवत मधु
गान हिय पिय तरंगी। [3]
'नागरी’ सकल संकेत आकारिनी,
गनत गुनगननि
मति होति पंगी॥ [4]
- श्री
नागरी सखी
श्री ललिता देवी जैसी देवियों की जय हो, जिन्होंने ब्रज में अवतार लिया है परंतु वास्तव में वह
वेदों की बहुत ही गुप्त ऋचाएँ हैं। वे भगवान कृष्ण की प्रिय हैं एवं युगल [राधा
कृष्ण] की केलि लीलाओं की अंगीसंगी हैं। [1]
वे दिव्य दंपत्ति श्री राधा कृष्ण के दिव्य प्रेम-आनंद में
उन्मत्त रहती हैं, एवं आनंदमयी और रूप
की निधि हैं। वे सभी सुखों की धाम हैं और दिव्य दंपत्ति से ऐसे लिपटी रहती हैं
जैसे कि वे उनकी छाया हों। [2]
यह सखियाँ मानो चन्द्रमा के समान मुख वाली श्रीराधा की ही
किरणें हैं। वे मधुर संगीत में अमृत की वर्षा करती हैं जिनको सुनकर युगल सरकार के
हृदय में प्रेम की तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं। [3]
इनको दिव्य दम्पति को एकांत स्थान पर मिलाने की सेवा सौंपी जाती
है। श्री नागरी सखी कहती हैं कि इन ललिता आदि सखियों की ऐसी अद्बुत महिमा है कि इन
सखियों के दिव्य गुणों को गिनकर मेरी बुद्धि तो मानो पंगु हो रही है। [4]
कोऊ महेश रमेश मनावत
कोऊ धनेस गनेसहिं साधा। [1]
कोऊ नृसिंह की सेव करैं
औ कोऊ रघुचन्दहिं को अवराधा॥ [2]
त्यों दरियाव जू श्री नँद नन्द चहौं
तजि और न स्वामिनी राधा। [3]
श्री वृषभानु कुमारि कृपा करि
दे पद पंकज प्रेम अगाधा॥ [4]
- ब्रज के सेवैयाँ
कोई शिवजी की भक्ति करता है, कोई भगवान विष्णु को
प्रसन्न करता है, कोई धन के देवता कुबेर की आराधना करता है, और कोई गणेश जी का ही भजन
करता है। [1]
कोई नरसिंह भगवान की सेवा करता है, और किसी के आराध्य देव
रघुनन्दन भगवान राम हैं। [2]
परंतु मैं तो युगल सरकार
नंदनंदन श्री कृष्ण और स्वामिनी श्री राधा के सिवा किसी अन्य में रुचि नहीं रखता।
[3]
मेरी यही अभिलाषा है कि
श्री वृषभानु कुमारी श्री राधा मुझ पर ऐसी कृपा करें कि अपने चरण कमलों में मुझे
अगाध प्रेम प्रदान करें।" [4]
जिनके रग रग में बसैं, श्री राधे और श्याम्।
ऐसे बृजबासीन
कूँ, शत शत नमन प्रणाम्॥
- ब्रज
के सवैया
ऐसे ब्रज वासियों को शत शत प्रणाम जिनके रग रग में दिव्य युगल
श्री राधा कृष्ण वास करते हैं
रस ही में औ रसिक में, आपुहि कियौ उदोत।
स्वाति-बूँद
में आपु ही, आपुहि चातिक होत॥
- श्री
रस निधि जी
भगवान ने रस में और रसिक दोनों में अपने आप को ही प्रकाशित किया
है। चातक पक्षी जिस स्वाति नक्षत्र की बूँद के लिए व्याकुल है, उस स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूँद में भी वही है और
पपीहा भी वही है।
हों तौ चेरौ चरन कौ, चरणहि नाऊँ माथ।
जिन चरणन की
वन्दना, करी द्वारिका नाथ॥
- ब्रज
के सेवैया
जिन श्री चरणों की वंदना साक्षात द्वारिका नाथ श्री कृष्ण ने की
हैं, मैं उन्हीं श्री राधा चरण की दासी हूं एवं उन्हीं को
मस्तक से लगाती हूं।
बरसानो जानो नहीं, जपो नहीं राधा नाम।
तो तूने जानो
कहाँ, ब्रज को तत्व महान॥
- ब्रज
के सेवैयाँ
न तो तूने बरसाना को जाना, न
ही राधा नाम का जप किया, तो तूने ब्रज के महान
तत्व को अभी जाना ही कहाँ है?
डूबै सो बोलै नहीं, बोलै सो अनजान।
गहरौ
प्रेम-समुद्र कोउ डूबै चतुर सुजान॥
- ब्रज
के सवैया
जो डूबता है वो बोल नहीं सकता और जो बोलता है वो इससे अनजान है।
यह प्रेम समुद्र बहुत गहरा है, कोई चतुर एवं सुजान
ही इसमें डूब सकता है।
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यह तनु नय्या झांझरी, मन मलीन मल्लाह।
वल्ली राधा
नाम ले, जो तू चाहै थाह॥
- ब्रज
के सेवैया
जीवात्मा रूपी यात्री का यह तन एक नाव के समान है जो संसार रूपी
सागर के झंझावात (आंधी-तूफान) में फंसा हुआ है, जिसको
चलाने वाला केवट (नाविक) मलिन मन है जो बार-बार संसार में फँसानेवाला है। यदि इसे
सदा-सदा को पार लगाना चाहते हो (भगवद प्राप्ति) तो श्री राधा नाम रूपी बल्ली (नाव
खेने का बांस) का सहारा ले लो।
लाय समाधि रहे ब्रह्मादिक
योगी भये पर अंत न पावैं। [1]
साँझ ते भोरहि भोर ते साँझहि
सेस सदा नित नाम जपावैं॥ [2]
ढूँढ़ फिरे तिरलोक में साख
सुनारद लै कर बीन बजावैं। [3]
ताहि अहीर की छोहरियाँ
छछिया भरि छाछ पै नाच नचावै॥ [4]
- श्री रसखान
जिसका ध्यान ब्रह्मा आदि देवता समाधि में करते हैं, और योग की
सिद्धियों को प्राप्त करने पर भी जिनका अंत नहीं पा सकते। [1]
शेषनाग अपने सौ मुखों से निरंतर, दिन-रात उनका नाम जपते
रहते हैं। [2]
नारद मुनि अपनी वीणा बजाते हुए, तीनों लोकों में उनका पता
ढूँढ़ते रहते हैं। [3]
उन परम ब्रह्म, भगवान श्री कृष्ण को ब्रज की ग्वालिनें अंजुली भर छांछ के लिए नचा रही हैं।
[4]
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(राग तोड़ी
जौनपुरी / राग काफ़ी)
पद रज तज किमि आस करत हो,
जोग जग्य तप साधा की। [1]
सुमिरत होय मुख आनन्द अति,
जरन हरन दुःख बाधा की॥ [2]
ललित किशोरी शरण सदा रहु,
सोभा सिन्धु अगाधा की। [3]
परम ब्रह्म गावत जाको जग,
झारत पद रज राधा की॥ [4]
- श्री ललित
किशोरी, अभिलाष माधुरी , विनय (219)
अरे मूर्ख, यदि तुमने
हमारी श्री राधा रानी की शरण नहीं ली और उनके चरणों की रज को त्याग दिया, तो योग, यज्ञ, तप, साधना आदि से
क्या आशा रखते हो? [1]
जिनके (श्री राधा) के नाम स्मरण मात्र से ही मुख पर आनंद की लहरें उठती हैं, और समस्त
दुखों व बाधाओं का नाश जड़ से हो जाता है। [2]
श्री ललित किशोरी जी कहते हैं कि वे तो सदैव श्री राधा महारानी की शरण में
रहते हैं, जो अनंत शोभा (सुंदरता, कृपा आदि गुणों) का अथाह
सागर हैं। [3]
जिस परम ब्रह्म श्री कृष्ण की भक्ति पूरी सृष्टि करती है, वही श्री राधा
रानी के चरणों की रज को झाड़ते (साफ़ करते) हैं। [4]
आग लगे उन पैरन में जो
श्रीवृन्दावन
धाम न जावें। [1]
आग लगे उन
अँखियन में जो
दिन दर्शन
राधे श्याम न पावें॥ [2]
आग लगे ऐसे
धन में जो
हरि सेवा के
काम न आवें। [3]
आग लगे वा
जिह्वा में जो
दिन गुणगान
राधेश्याम न गावें॥ [4]
- ब्रज
के सेवैया
जो पैर [यदि मेरे चरण] श्री वृंदावन धाम में नहीं जाते, ऐसे पैरों में आग लग जाए। [1]
जो आंखों रोज़ श्री राधेश्याम को नहीं देखती ऐसी आँखों में आग
लग जाए। [2]
वह धन जल जाए जो श्री हरि की सेवा में प्रयोग ना आवे। [3]
उस जीभ में आग लग जाए जो श्री राधेश्याम का गुणगान न करे। [4]
ए विधना यह कीनौं कहा अरे
मोमत प्रेम उमंग भरी क्यौं। [1]
प्रेम उमंग भरी तो भरी हुती
सुन्दर रूप करयौ तैं हरी क्यौं॥ [2]
सुन्दर रूप करयौ तो करयौ तामें
‘नागर’ एती अदायें धरी क्यौं। [3]
जो पै अदायें धरी तो धरी पर
ए अँखियाँ रिझवार करी क्यौं॥ [4]
- श्री नागरीदास (महाराज सावंत सिंह), श्री नागरीदास
जी की वाणी, छूटक कवित्त (56)
हे विधाता, यह तूने क्या कर दिया, मेरे हृदय में तूने ऐसी
प्रेम की उमंग क्यों भर दी? [1]
यदि प्रेम की उमंग भरी तो
भरी, परंतु फिर श्री श्यामसुंदर का इतना सुंदर रूप क्यों बनाया? [2]
अगर सुंदर रूप बनाया तो
बनाया, परंतु उस छलिया नागर ने ऐसी अदाएँ क्यों धारण कीं? [3]
और यदि उसने ऐसी अदाएँ
धारण भी कीं, तो फिर इन आँखों को उसकी ओर रिझने का मोह क्यों दे दिया? [4]
मेरी मति राधिका चरण रजमें रहो।
यही निश्चय
कर्यौ अपने मनमें धर्यौ
भूलके कोऊ
कछू औरहू फल कहो॥ [1]
करम कोऊ करौ
ज्ञान अभ्यास हूँ
मुक्तिके
यत्न कर वृथा देहो दहो।
रसिक वल्लभ
चरण कमल युग शरण पर
आश धर यह महा
पुष्ट पथ फल लहो॥ [2]
- श्री
रसिक वल्लभ जी
श्री रसिक वल्लभ जी कहते हैं "कोई कुछ भी परिणाम बताये, परंतु मैंने अपने हृदय से यही दृढ़ निश्चय किया है कि
मेरी मति तो श्री राधारानी के चरण कमलों की दिव्य रज में ही लगी रहेगी।" [1]
कोई कर्म पथ पर चलता है, कोई
ज्ञान मार्ग का अभ्यास करता है, तो कोई मुक्ति
प्राप्त करने के लिए नाना-प्रकार के यत्न करता है। श्री रसिक वल्लभ जी कहते हैं
"स्वामिनी श्री राधिका के युगल चरण कमलों की शरण पर विश्वास करना की मेरा
एकमात्र पुष्ट मार्ग है।" [2]
मैं नहीं देखूँ और को, मोय न देखे और।
मैं नित
देखोई करूँ, तुम दोऊनि सब ठौर॥
- ब्रज
के सेवैया
न ही मैं किसी और को देखूँ न ही मुझे ही कोई देखे, मैं तो केवल नित्य तुम दोनो [श्री राधा कृष्ण] को ही सब
जगह देखा करूँ।
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छूट गये व्रत नैम धर्म,
और छूट गई सब पूजा। [1]
तुम सों नेह लगाय लाडली,
अब आंख ना आवै दूजा॥ [2]
मैं तो बरसाने के पौड़े
चल दी,
मोहे और पंथ ना सूझा। [3]
भानुदुलारी हाथ धरौ सिर,
प्यारी यह मग तुम्हरा
बूझा॥ [4]
- ब्रज के
सेवैया
हे किशोरी जी [श्री राधा
रानी], जब से मैंने आपकी शरण स्वीकार की है, तब से मैंने व्रत, नेम, धर्म और पूजा
[विभिन्न देवताओं की] इत्यादि सब का त्याग कर दिया है। [1]
हे लाडिली जू, अब तो मैंने
आपसे ही नेह लगा लिया है, अब मेरी आँखों में कोई दूसरा भूलकर भी नहीं आ सकता। [2]
अब तो मैं बिना सोचे ही
बरसाने की ओर, बरसाने की सीढ़ियों पर चली गई हूँ, अब मुझे और कोई पंथ नहीं
सूझता है। [3]
हे भानुदुलारी, अब तो मेरे
सिर पर हाथ रख दो, अब केवल अनन्य भाव से केवल आपका ही मार्ग सूझा है। [4]
बाँकौ मारग प्रेम कौ, कहत बनै नहिं बैन।
नैना श्रवन
जु होत हैं, श्रवन होत हैं नैन॥
- ब्रज
के सेवैया
यह रस-प्रेम का मार्ग कितना अत्यंत बाँका है, जिसको वाणी से कदापि कहा नहीं जा सकता। नेत्र और श्रवण
की गति भी इसमें विपरीत हो जाती है।
प्रेम नगर ब्रज भूमि है, जहां न जावै
कोय।
जावै तो जीवै नहीं, जीवै तो बौरा होय॥
- ब्रज के सवैया
ब्रज की भूमि प्रेम नगर की भूमि है जहां किसी को नहीं जाना चाहिए, और यदि कोई
वहां जाता है तो फिर वह जीवित नहीं रह सकता, और यदि जीवित रहता है तो
बौरा जाता है। (यहाँ जीवित रहने का तात्पर्य संसार खतम होने से है और बौराने का
प्रेम के लिए मतवाला होने से है।)
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चरण कमल बन्दौं प्यारी
के।
रसिक जनों की प्राणनाथ
श्रीराधा बरसाने वारी के॥ [1]
जे पद कमल सखिन उर भूषण
कीरति राजकुमारी के।
सोई चरण वृन्दावन बीथिन
बिहरत संग बिहारी के॥ [2]
मोहन जिन्हें प्यार से
चाँपत कोमल चरण सुकुमारी के।
रे मन छोड़ ना कबहुँ
चरणाम्बुज वृषभानु दुलारी के॥ [3]
- रसिक वाणी
मैं श्री राधा के चरण
कमलों की वंदना करता हूँ, जो रसिक जनों की प्राण नाथ हैं एवं जिनका धाम बरसाना है। [1]
कीरति दुलारी श्री राधा
के जो चरणकमल सखियाँ आभूषण-स्वरुप से अपने ह्रदय पर धारण करती हैं, वही चरण कमल
वृन्दावन की बीथियों में श्री बिहारी जी के संग विहार करते हैं। [2]
मनमोहन श्री कृष्ण
सुकुमारी श्री राधा के जिन कोमल चरण कमलों को प्यार से दबाते हैं, हे मन, तू उन वृषभानु
दुलारी के दिव्य चरण कमलों को कभी छोड़ना नहीं। [3
कुंजन की सेवा मिले, मिटे जगत
जंजाल।
कृपा सदा ही राखियौ, राधा वल्लभ
लाल॥
- ब्रज के
सेवैया
हे राधा वल्लभ लाल, ऐसी कृपा
मुझपर सदा ही बनाए रखना जिससे मुझे नित्य ही वृंदावन के कुंजों की सेवा मिले, एवं मेरा जगत
जंजाल मिट जाए।
चरन गहौ विनती करौ, आगें दोउ कर जोरि।
अति भोरी है
लाड़िली, लेहु लाल मन ढोरि॥
- ब्रज
के सेवैया
श्री ललिता सखी श्री कृष्ण से कहतीं हैं कि हे लाल जी ! हमारी
लाड़िली जू अत्यन्त भोरी हैं, तुम उनके चरणों में
दण्डौत करो और हाथ जोड़कर विनती करो। इस प्रकार उनके मन को अपने ओर झुका लीजिये।
राधे मेरी लाडिली, मेरी ओर तू देख।
मैं तोहिं
राखौं नयनमें, काजरकी सी रेख॥
- ब्रज
के सेवैया
श्री ठाकुर जी लाडिली जी से कहते हैं: हे लाडिली राधे, मेरी ओर भी तनिक निहार लीजिए, क्यूँकि मैं तुमको नित्य ही अपनी आँखों में काजल की रेख
की तरह रखता हूँ।
संपति सौं सकुचाई कुबेरहि
रूप सौं दीनी चिनौति अनंगहि। [1]
भोग कै कै ललचाई पुरन्दर
जोग कै गंगलई धर मंगहि॥ [2]
ऐसे भए तौ कहा ‘रसखानि’
रसै रसना जौ जु मुक्ति तरंगहि। [3]
दै चित ताके न रंग रच्यौ
जु रह्यौ रचि राधिका रानी के रंगहि॥ [4]
- श्री रसखान, रसखान
रत्नावली
यदि आप इतने संपन्न हों
कि स्वयं कुबेर भी आपकी संपदा देखकर चकित हो जाएं, और आपका रूप इतना अनुपम
हो कि कामदेव भी लज्जित हो जाए। [1]
यदि आपका जीवन भोग-विलास
से ऐसा भरा हो कि स्वर्ग के राजा इंद्र भी ईर्ष्या करें, और आपकी
योग-साधना देखकर स्वयं शंकर जी, जिनके मस्तक पर गंगा
विराजती हैं, आपके जैसा ध्यान करने की इच्छा करें। [2]
यदि आपकी वाणी में
सरस्वती जी का ऐसा वरदान हो कि उसे सुनकर मुक्ति की लहरें प्रवाहित होने लगें। [3]
परंतु श्री रसखान कहते
हैं, "यह सब व्यर्थ है यदि आपने उनसे प्रेम नहीं किया, जिनका हृदय
पूर्णतः श्री राधा रानी के प्रेम में डूबा हुआ है।" [4]
भूलै नहीं वह मंजुल माधुरि
मोहनि मूर्ति
कहूँ पल आधा, [1]
छाक्यो रहौं
छबि दम्पति की
निरखौं नव
नित्य बिहार श्री राधा। [2]
त्यों दरियाव
जू स्वामिनि राधिके
सेव मिलै
महली सुख साधा, [3]
श्री वृषभान
कुमारि कृपा करि
दे पद पंकज
प्रेम अगाधा॥ [4]
- ब्रज
के सेवैया
जुगल किशोर श्री राधा कृष्ण के सुंदर, मनमोहक रूप माधुरी की छवि को मैं आधे क्षण के लिए भी
नहीं भूल सकता। [1]
मैं नित्य दंपति श्री श्यामाश्याम की छवि में डूबा रहता हूँ एवं
उनके नित्य विहार का अवलोकन करता रहता हूँ। [2]
मेरी स्वामिनी श्री राधिका जी हैं, जिनकी कृपा से मुझे उनके निज महल की सेवा का सुख
प्राप्त हुआ है। [3]
हे वृषभानु नंदिनी श्री राधे, कृपाकर
मुझे अपने चरण कमलों का अगाध प्रेम प्रदान करें। [4]
राधे रूप उजागरी, राधे रस की पुंज।
राधे गुन गन
आगरी, निवसति नवल निकुंज॥
- ब्रज
के सेवैया
श्री राधा उज्वल वर्ण से प्रसिद्ध हैं, श्री राधा रस की खान हैं। श्री राधा गुण एवं सखियों की
शिरोमणि हैं, जो नवल निकुंज में निवास करती
हैं।
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मेरो सुभाव चितैबे को माई
री
लाल निहार के बंसी बजाई।
[1]
वा दिन तें मोहि लागी
ठगौरी सी
लोग कहें कोई बावरी आई॥ [2]
यों रसखानि घिरयौ सिगरो
ब्रज
जानत वे कि मेरो जियराई।
[3]
जो कोऊ चाहो भलो अपनौ तौ
सनेह न काहूसों कीजौ री
माई॥ [4]
- श्री रसखान, रसखान
रत्नावली
हे सखी! मेरे स्वभाव को देखकर ही गोपाल ने अपनी बाँसुरी बजाई। [1]
उस दिन से मैं मानो
ठगी-सी रह गई हूँ। अब तो मुझे देखकर लोग कहते हैं, "यह कोई बावरी
है जो यहाँ आ गई है।" [2]
पूरा ब्रजमंडल मुझे बावरी
समझता है, पर मेरे हृदय की सच्ची बात तो केवल श्री कृष्ण जानते हैं और मेरा अपना हृदय।
[3]
जो कोई अपना भला चाहता हो, तो हे सखी!
उसे किसी से प्रेम नहीं करना चाहिए। [4]
कमलनको रवि एकहै, रविको कमल
अनेक।
हमसे तुमको बहुत हैं, तुमसे हमको एक॥
- ब्रज के
सेवैया
एक कमल के फूल के लिए एक ही सूर्य है परंतु सूर्य के लिए अनेक कमल हैं। उसी
प्रकार, हे राधा कृष्ण, मेरे समान आपके पास अनेक होंगे परंतु तुम्हारे समान मेरे लिए बस एक तुम ही
हो।
नन्दराय के लाडिले, भक्तन प्राण अधार।
भक्त रामके
उर बसो, पहिरे फूलनहार॥
- श्री
भक्त राम
हे नन्दराय के लाड़िले, हे
भक्तों के प्राणाधार ! फूलों की माला धारण किये हुए कृपया मेरे ह्रदय में नित्य
निवास करें।
पाग बनो पटुका बनो, बनो लालको भेख।
राधावल्लभ
लालकी, दौर आरती देख॥
- ब्रज
के सेवैया
हे मन, शीघ्र दौड़कर श्री राधा वल्लभ लाल की आरती का दर्शन कर, जिन्होंने अद्भुत और मनमोहक वेश धारण किया है। उनके सिर
पर सुशोभित पाग बंधी है और उनकी कमर पर सुंदर कमरबंद की शोभा है।
मानुष हौं तो वही रसखानि, बसौं ब्रज
गोकुल गाँव के ग्वारन। [1]
जौ पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु
मँझारन॥ [2]
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो कियो हरिछत्र पुरंदर
धारन। [3]
जौ खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदी कूल कदंब की
डारन॥ [4]
- श्री रसखान
इस पद में श्री रसखान जी ने ब्रज के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा का वर्णन किया
है। वह कहते हैं, वास्तव में सच्चा मनुष्य वही है जो ब्रज में ग्वाल बालों के संग रहे, जिन्हें श्री
कृष्ण बेहद प्रेम करते हैं (इसका एक अर्थ यह भी है कि यदि मैं अगले जन्म में
मनुष्य बनूँ तो ब्रज का ग्वाल बनूँ)। [1]
यदि पशु बनूँ तो नंद की
गायों के साथ रहूँ। [2]
यदि पत्थर बनूँ तो
गोवर्धन पर्वत का बनूँ, जिसे श्री कृष्ण ने अपनी उंगली पर उठा लिया था। [3]
यदि पक्षी ही बनूँ तो
यमुना नदी के किनारे कदम्ब की डाल पर बसेरा बनाऊँ। कहने का अभिप्राय यह है कि हर
योनि में केवल और केवल ब्रज में ही निवास करूँ और ब्रज को कभी भी न त्यागूँ। [4]
जिन राधा पद रस पियौ, मुख रसना करि ओक।
पुनि न पिये
तिन मातु थन, जाय बसे गोलोक॥
- ब्रज
के सवैया
जिसने श्री राधा के चरणों का रस ग्रहण कर लिया है फिर वे दोबारा
इस पृथ्वी पर सांसारिक माता का थन पीने नहीं आता और गोलोक में सदा के लिए निवास
करता है।
लटसम्हार प्रिय नागरी, कहा भयोहै तोहि।
तेरी लट
नागिन भई, डसा चहत है मोहिं॥
- ब्रज
के सवैया
श्री कृष्ण श्री राधा से कहते हैं, हे प्रिय नागरी, अपनी
लटों को संभाल, तुम्हें क्या हो गया है? तेरी लटें नागिन के समान हैं जो मुझे डसना चाहती हैं।
दादुर मोर पपैया बोलत,
कोयल सब्द
करत किलकारी। [1]
गरजत गगन
दामिनी दमकत,
गावत मलार
तान लेत न्यारी॥ [2]
कुंज महल में
बैठे दोऊ,
करत विलास
भरत अंकवारी। [3]
'चतुर्भुज' प्रभु गिरिधर छवि निरखत,
तन मन धन
न्यौछावर वारी॥ [4]
- श्री
चतुर्भुजदास जी
आज कुंज महल में दादुर, मोर, पपीहा मधुर ध्वनि उत्पन्न कर रहे हैं एवं कोयल मधुर
शब्दों से किलकारी कर रही है। [1]
आकाश में काले बादलों में बिजली ग़रज़ रही है एवं श्री श्यामा
श्याम सुंदर राग मल्हार में मधुर गान कर रहे हैं। [2]
दोनों प्रिया प्रियतम (श्री राधा कृष्ण) कुंज भवन में बैठ कर एक
दूसरे को अंकों में भर विलास कर रहे हैं। [3]
श्री चतुर्भुज दास जी कहते हैं कि श्री प्रिया प्रियतम की इस
छवि को देखकर मैं अपना तन, मन, एवं धन स्वत: ही न्यौछावर करता हूँ। [4]
मोरपखा मुरली बनमाल लख्यौ
हिय मैं हियरा उमह्यौ री।
ता दिन ते इन बैरिन कों
कौन न बोल कुबोल सह्यौ री॥ [1]
तौ रसखानि सनेह लग्यौ कोउ
एक कहौ कोउ लाख कह्यौ री।
और तो रँग रहौ न रहौ इक
रंग रंगी सोई रँग रह्यौ री॥ [2]
- श्री रसखान, रसखान
रत्नावली
मोर का पंख, बाँसुरी तथा वनमाला देखकर मन में जैसे कोई आह-सी उठती है। उस दिन से मुझे
कौन सा बोल-कुबोल नहीं सहना पड़ा है। [1]
अब तो हे रसखान! प्रेम हो
गया है, कोई एक बात कहे या लाख बात कहे। और सभी रंग तो रहें या न रहें, लेकिन यह एक
साँवरे का प्रेम रंग ऐसा है, जो कभी नहीं उतरता। [2]
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कृष्ण रुपिणी कृष्ण प्रिया, पुनि पुनि याचै तोय।
भक्ति अचल
होय युगल पद, कुँवरि देहु वर सोय॥
- ब्रज
के सेवैयाँ
हे श्री कृष्ण स्वरुपिणी, श्री
कृष्ण प्रिया, श्री राधे! पुनि-पुनि मैं आपसे
केवल यही प्रार्थना करता हूँ कि मेरी भक्ति आपके श्री युगल चरणों में अटल हो, मुझे केवल यही वरदान रूप में दीजिए।
अब हीं बनी है बात, औसर समझि घात,
तऊ न खिसात, बार सौक समझायो है। [1]
आजु काल्हि
जैहैं मरि, काल-व्याल हूँ ते डरि,
भौंडे भजन ही
करि कैसो संग पायो है॥ [2]
चित-वित इत
देहु सुखहि समझि लेहु
‘सरस’ गुरुनि ग्रन्थ पन्थ यौं बतायो
है। [3]
चरन सरन भय
हरन, करन सुख,
तरन संसार
कों तू मानस बनायो है॥ [4]
- श्री
सरस देव जी, श्री
सरस देव जी की वाणी, सिद्धांत
के पद (20)
श्री सरस देव जी अपने निज आश्रित साधक जन (अथवा अपने ही मन से
कहते हैं):
तेरी बिगड़ी बात बन सकती है, तुझे
यह बड़ा सुंदर अवसर मिला है (मानव देह के रूप में) जिससे तू भगवान का भजन कर अपनी
बिगड़ी बना सकता है। अब क्यों खिसिया रहा है, अनेक
बार समझने के पश्चात भी तेरे को लज्जा नहीं आती ? [1]
तू थोड़े ही दिन में मर जाएगा, काल
रूपी महान सर्प तेरे माथे पर छाया है।
उससे तू डर और अति सावधानी पूर्वक भजन का शीघ्र ही प्रण करले । विचार कर कि कैसा
सुंदर समागम (संग) तुझे आज प्राप्त हो गया है। [2]
इस अति अद्भुत रस के बारे में विचार कर अपना चित्त वित को इस ओर
लगा दे। हमारे श्री गुरु जनों ने अपनी सरस वाणी ग्रंथों में संसार से तरने का यही
एक मात्र उपाय बताया है। [3]
अत: समस्त भय को हरण करने वाले, सुखों
के दाता, ऐसे भगवान अथवा रसिक गुरु की शरण ग्रहण करके, माया से उत्तीर्ण होने का प्रयास कर जिसके लिए ही तुझे
भगवान ने मानव बनाया है। [4]
जिन पद पंकज पर मधुप मोहन द्रग मंडरात।
तिन की नित
झाँकी करन, मेरौ मन ललचात॥
- श्री
हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाईजी), पद
रत्नाकर, वंदना
एवं प्रार्थना (5.4)
जिन श्री राधा चरण कमल पर श्री कृष्ण के नयन नित्य ही मधुप की
भाँति मंडराते रहते हैं, उन्हीं श्री राधा के
गोरे चरण के नित्य दर्शन के लिए मेरा मन ललचाता रहता है (ऐसी कामना भी है)।
‘रा’ अक्षर श्रीगौरतन ‘धा’ अक्षर घनश्याम।
सहज परस्पर
आत्मरति विधि मिली राधा नाम॥
- श्री
लाड़लीदास, सुधर्म
बोधिनी (4.2)
‘रा’ अक्षर में गोरे रंग वाली राधिका का वास है, ‘धा’ अक्षर में घनश्याम रंग वाले कृष्ण का वास है। सहज
ही इस दिव्य जोड़ी में प्रेम करने की विधि है, प्रेमपूर्वक
इस राधा नाम का भजन करना।
जाके दर्शन हेत नित, विह्वल रहत
घनश्याम।
तिनके चरनन में बसे, मेरो मन आठों
याम॥
- ब्रज के
सेवैया
जिनके (श्री राधा) दर्शन
के लिए नित्य ही श्री कृष्ण विकल रहते हैं, उन श्री राधा रानी के
चरणों में ही नित्य मेरा मन रहे (ऐसी कामना है)।
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काल डरै, जमराज डरै, तिहुँ लोक डरै, न करै कछु बाधा।
रच्छक चक्र
फिरै ता ऊपर, जो नर भूलि उचारै राधा ॥
- ब्रज
के सवैया
काल डरता है, यमराज डरता है, तीनों लोक भी डरते हैं, कोई
कुछ भी बाधा नहीं पहुँचा सकता, और भगवान का सुदर्शन
चक्र भी रक्षा में तत्क्षण आजाता है जिस क्षण कोई जीव भूल से भी यदि राधा नाम का
उच्चारण कर लेता है ।
दीनदयाल कहाय के धायकें क्यों दीननसौं नेह
बढ़ायौ।
त्यौं हरिचंद
जू बेदन में करुणा निधि नाम कहो क्यौं गायौ॥ [1]
एती रुखाई न
चाहियै तापै कृपा करिके जेहि को अपनायौ।
ऐसौ ही जोपै
सूभाव रह्यौं तौ गरीब निबाज क्यौं नाम धरायौ॥ [2]
- श्री
भारतेंदु हरिशचंद्र, भारतेंदु
ग्रंथावली, प्रेम
माधुरी (39)
एक भक्त बाँके बिहारी से मान करके प्रेमपूर्वक कहता है कि
सर्वप्रथम तो आप स्वयं को दीनदयाल कहलवा कर दीनजनों से नेह बढ़ाते हो। उसी प्रकार
वेदों में भी स्वयं को करुणा निधि नाम से कहलवाते हो। [1]
अब जब जीव को आप अपना बना लेते हो तो इस प्रकार से रुखाई दिखाते
हो (जो अच्छी नहीं है)। यदि आपका स्वभाव ऐसा ही है तो अपना नाम गरीब निवाज क्यों
धराया है? [2]
बलि बलि श्रीराधा नाम प्रेम रस रंग भर्यो।
रसिक अनन्यनि
जानि सुसर्वस उर धर्यो॥ [1]
रटत रहैं दिन
रैन मगन मन सर्वदा।
परम धरम धन
धाम नहिं बिसरै कदा॥ [2]
कदा विसरत
नहि नेही लाल उरमाला रची।
रही जगमगि
नवल हिय में मनौ मनि गनि सौं खची॥ [3]
चतुर वेद कौ
सार संचित प्रेम विवरन निज रह्यो।
बलि बलि
श्रीराधा नाम प्रेम रस रंग भरयो॥ [4]
- श्री
अलबेली अलि
श्री राधा नाम पर मैं बलिहारी जाता हूँ जो प्रेम रस के रंग से
भरा हुआ है जिसे अनन्य रसिक श्री श्यामसुन्दर (एवं रसिक जन) अपना सर्वस्व मान कर
अपने ह्रदय में सदा धारण करते हैं। [1]
उनका मन सदा राधा नाम में मगन रहता है जिसे वे अपना परम धन धाम
मान कर कभी भी (एक क्षण को भी) बिसारते नहीं हैं। [2]
प्रेमी श्री लाल जी [कृष्ण] ने अपने ह्रदय में श्री राधा नाम की
मानो एक ऐसी माला रची है जो उनके ह्रदय में सदा एक नित्य नवीन मणि के समान जगमगाती
रहती है। [3]
श्री अलबेली अलि जी कहते हैं कि जो चारों वेदों का सार है, एवं जो हर क्षण परम प्रेम का संचार करने वाला है, ऐसे श्री राधा नाम पर सर्वस्व न्यौछवार है जो सदा प्रेम
रस के रंग से भरा रहता है। [4]
राधा राधा रटत ही, बाधा हटत हज़ार।
सिद्धि सकल
लै प्रेमघन, पहुँचत नंदकुमार॥
- ब्रज
के सवैया
राधा राधा रटते ही हज़ार बाधाओं का सर्वनाश हो जाता है। इतना ही
नहीं, समस्त सिद्धियों को लेकर प्रेम घन नंदकुमार श्री कृष्ण
द्वार पर पहुँच जाते हैं।
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उठती अभिलाषा यही उर में,
उनके बनमाल
का फूल बनूँ। [1]
कठि काछनी हो
लिपटूँ कटि में,
अथवा पट पीत
दुकूल बनूँ॥ [2]
हरे कृष्ण!
पियूँ अधरामृत को,
यही मैं
मुरली रस मूल बनूँ। [3]
पद पीड़िता
हो सुख पाऊँ महा,
कहीं भाग्य
से जो ब्रज धूलि बनूँ॥ [4]
- श्री
हरे कृष्ण जी
मेरी ह्रदय में यही अभिलाषा उठती है कि मैं श्री कृष्ण के बनमाल
का फूल बनकर उनके ह्रदय से लगा रहूँ। [1]
या तो कठि काछनी बनकर उनकी कमर से लिपट जाऊँ अथवा उनका पीतांबर
बनकर उनके अंगों से लिपटा रहूँ। [2]
श्री हरे कृष्ण जी कहते हैं, मेरी
इच्छा है कि मैं मुरली बनकर उनके अधरामृत रस का पान करूँ। [3]
अपने आप को मैं भाग्यशाली तभी मानूँगा एवं परम सुख का अनुभव तभी
करूँगा जब मैं ब्रज की रज बनकर उनके चरणों से लिपट जाऊँगा। [4]
कोऊ करे जप संयम नेम,
तपै तप के सब
देहि गमावें। [1]
कोऊ दान
पुराण पढ़े सुनें,
कोऊ उपासना
में भरमायें॥ [2]
मैं मतिमंद न
जानों कछू,
श्री राधिका
मोहन कार्ज बनावें। [3]
दूसरो दुवार
न देखों कहूँ,
जस गाये से
आनंद मंगल पावें॥ [4]
- ब्रज
के सवैया
कोई जप करता है, कोई
संयम, नेम, तप आदि कर देह को
कष्ट देता है। [1]
कोई दान करता है, कोई
वेद एवं पुराणों का ही अध्यन करता है और कोई नाना प्रकार की उपासनाओं में लगा है।
[2]
मैं तो मतिमंद हूँ, परंतु
स्वयं को बहुत भाग्यशाली मानता हूँ कि श्री राधा कृष्ण के अतिरक्त कुछ अन्य जानता
ही नहीं, वो ही मेरा सब कार्य बनाते हैं। [3]
मेरा यह अनन्य व्रत है कि श्री राधा कृष्ण के अतिरिक्त कोई अन्य
द्वार देखूँगा भी नहीं (न ही कोई ऐसे मार्ग का अनुसरण करूँगा जिसमें मैं उनको
प्रेमपूर्वक लाड़ न लड़ा सकूँ), केवल अनन्य भाव से
राधा कृष्ण का ही यशोगान करता रहूँगा जिससे मुझे परम आनंद एवं मंगल प्राप्त होता
है। [4]
श्री हरिदास के गर्व भरे
अमनैंक अनन्य
निहारिनी के।
महा-मधुरे-रस
पाँन करें
अवसाँन खता
सिलहारनि के॥ [1]
दियौ नहिं
लेहि ते मांगहि क्यों
बरनैं गुन
कौंन तिहारिनि के।
किये रहैं
ऐंड बिहारी हूँ सौं
हम वेपरवाह
बिहारिनी के॥ [2]
- श्री
बिहारिन देव जी, श्री
बिहारिन देव जी की वाणी, सिद्धांत
के कवित्त-सवैया (111)
हम श्री हरिदास के गर्व में भरे हैं, एवं अनन्य भाव से प्रिया प्रियतम के नित्य विहार रस, जो महा मधुर रस का सार है, उसको ही सतत पान करते हैं। जो रसिक जन ठौर-ठौर का रस
पीकर आनंद मान रहे हैं, वे इस रस के आनंद को
देखकर औसान ख़ता (निस्तब्ध) रह जाते हैं। [1]
प्रिया प्रियतम के विहार रस के अतिरिक्त यदि कोई हमें कुछ देना
चाहे तो हम लेते नहीं, तो किसी से कुछ
माँगने का तो प्रश्न ही नहीं। ऐसे अनन्य रसिकों के गुणों को कौन वर्णन कर सकता है?
श्री बिहारिन देव जी कहते हैं कि हम श्री नित्य निकुंजेश्वरी
श्री राधिका महारानी की कृपा के बल से [उनकी बेपरवाही से] श्री बिहारीजी से भी ठसक
किए रहते हैं। [2]
जिनके मुक्ति-पिशाचिनी, तन-मन रही समाइ।
सोई हरि सौं
बिमुख है, फिर पाछै पछिताई॥
- ब्रज
के सवैया
जिनके ह्रदय में मुक्ति रूपी चुड़ैल ने तन और मन पर डेरा डाला
हुआ है [अर्थात् जिनको मुक्ति की चाह है], वे
सब हरि से विमुख हो ही जाएँगें और बाद में पछतायेंगे।
कहा करौं हौं मुक्त ह्वै, भक्ति न जँह लवलेश।
चहै जग जनमत
ही रहौं, बनौं भक्त वृजदेश॥
- ब्रज
के सवैया
मैं मुक्ति लेकर क्या करूँगा जहां भक्ति लवलेश भी नहीं है। ऐसी
कृपा हो कि मैं ब्रज धाम का भक्त बनकर उन्मत्त रहूँ।
मोहन के हम मत्त अति इत उत कहूँ न जाय।
राधा आनन कमल
में इकटक रहे लुभाय॥
- ब्रज
के सवैया
हम मोहन के रस में अति मतवाले हैं, यहाँ वहाँ कहीं नहीं जाते। हम अनन्य भाव से श्री राधा
मुख कमल को ही इकटक निहारते हैं क्योंकि हमारे ह्रदय को वही लुभायमन है।
राधिका पायके सेन सबै,
झपटी मनमोहन पै वृजनारी। [1]
छीन पीताम्बर कामरिया,
पहिराई कसूमी सुन्दर
सारी॥ [2]
आँखन काजर
पाऊँ महावर,
साँवरौ नैनन खात हा हा
री। [3]
भानु लली की गली में अलीन,
भली विधि नाच नचायौ
विहारी॥ [4]
- ब्रज के
सेवैयाँ
श्री राधिका के चरणों का संकेत पाकर समस्त ब्रज सखियाँ मनमोहन पर झपट पड़ी।
[1]
ब्रज नारियों ने श्री कृष्ण का पीतांबर छीन लिया, उनकी काली
कामर ले ली और उन्हें सुंदर कुसुम रंग की साड़ी पहना दी। [2]
सखियों ने श्रीकृष्ण की आंखों में काजल लगाया और उनके चरणों में महावर
लगाया। श्री कृष्ण ने अपनी आँखों से सहायता मांगी। [3]
तत्काल सखियों ने श्री कृष्ण को पकड़ कर भानु लली [श्री राधा] की गली में ले
गयी जहाँ श्री कृष्ण को भली प्रकार से नाचने के लिए विवश कर दिया। [4]
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जिहिं कुंजन रास विलास
करौ, तिहि कुँजन फेरी फिरुँ नित मैं। [1]
जिहि मंदिर आप निवास करौ, तिहि पौर पै शीष धरूँ नित
मैं॥ [2]
वृषभानु सुता ब्रजचंद्र प्रिया, तिनकी हिय आस करूँ नित
मैं। [3]
उर ध्यावत है मुनि बृंद जिन्हें पद पंकज तेहि परूँ नित मैं॥ [4]
- ब्रज के सेवैयाँ
हे श्री श्यामा-श्याम, जिस कुंज में आपका
रास-विलास होगा, मैं उस कुंज की नित्य प्रदक्षिणा करूँगा। [1]
आप जिस मंदिर में निवास
करोगे, उस मंदिर की पौर (प्रांगण) पर मैं नित्य अपना शीश झुकाऊँगा। [2]
मैं हृदय से केवल
वृषभानु-नंदिनी श्री राधा और ब्रजचंद्र श्री कृष्ण की ही आस नित्य करता हूँ। [3]
हे श्री राधारानी, मैं नित्य
आपके चरण-कमलों पर साष्टांग प्रणाम करता हूँ, जिन्हें मुनि गण अपने
हृदय में नित्य बसाए रहते हैं। [4]
जाको प्रेम भयो मनमोहन सों,
वाने छोड़
दियो सगरो घर बारा।
भाव विभोर
रहे निसिदिन,
नैनन बहें
अविरल धारा॥ [1]
मस्त रहे
अलमस्त रहे,
वाके पीछे
डोलत नंद को लाला।
सुंदर ऐसे
भक्तन के हित,
बाँह पसारत
नंदगोपाला॥ [2]
- श्री
सुंदर जी
जिसको श्याम सुंदर से सच्चा प्रेम हो गया उसके ह्रदय से स्वतः
ही समस्त घर बार एवं रिश्तेदारों की आसक्ति छूट जाती है। ऐसे जन निशिदिन भाव विभोर
अवस्था में रहते हैं जिससे उनके नैनों से अविरल अश्रुधार बहते रहते हैं। [1]
ऐसे भक्त किसी की परवाह नहीं करते और नित्य ही प्रेम में छककर, अलमस्त अवस्था में रहते हैं, क्योंकि उनके पीछे पीछे श्यामसुन्दर डोलते हैं। श्री
सुंदर जी कहते हैं कि ऐसे भक्तों से मिलने के लिए तो नंदलाल श्री कृष्ण भी
प्रतीक्षा करते रहते हैं। [2]
किये व्रतदान तीरथ सनान,
बहु धारिकै
ध्यान, खूब आसन लगायौ।
करिकै भलाई
अति की ही कमाई,
छैकैं सुखदाई
निजनाम कमायौ॥ [1]
संपति अपार
भव-सागर के माँहि,
यार हुसियार
व्रत जग जस छायौ।
दीनबन्धु सब
धन्ध वृथा ही तेरे,
जो कि
बांकेबिहारी सौ नेह न लायौ॥ [2]
- ब्रज
के सवैया
चाहे अनंत बार व्रत कर डालो, दान
कर डालो, तीर्थों में जा-जा कर स्नान कर डालो, खूब आसन लगाकर ध्यान कर डालो। चाहे दान भलाई आदि की
कमाई कर स्वयं का निजनाम कमा डालो। [1]
इस भव सागर में चाहे अपार सम्पति का संग्रह कर डालो अथवा
सावधानी पूर्वक व्रत आदि का पालन कर प्रसिद्धि बना लो। ऐसा सब कुछ करने पर भी यह
सब व्यर्थ के द्वन्द ही हैं यदि तूने श्री बाँके बिहारीजू से प्रेम न बढ़ाया। [2]
खंजन मीन सरोजन को मृग को मद गंजन दीरघ नैना। [1]
कुंजन ते
निकस्यौ मुसकात सु पान पर्यो मुख अमृत बैना॥ [2]
जाई रटे मन
प्रान विलोचन कानन में रचि मानत चैना। [3]
रसखानि कर्यौ
घर मोहिय में निसिवासर एक पलौ निकसे ना॥ [4]
- श्री
रसखान, रसखान रत्नावली
श्री कृष्ण के कमल दल के समान लंबे और मनोहर नेत्र, खंजन पक्षी, मछली, कमल और हिरण की सुंदरता को पराजित कर रहे हैं। [1]
वे कुञ्ज से मुस्कुराते हुए बाहर निकले जिनकी मधुर वाणी का
मैंने अमृत पान किया। [2]
मेरा मन, हृदय और आंखें सदा
उनका समरण करते हैं; मेरी एकमात्र इच्छा
उसी वन में रहने की है जहाँ वे हैं: यही मेरा एकमात्र आश्रय होगा। [3]
श्री रसखान कहते हैं, "आनंद
के समुद्र, श्री कृष्ण ने मेरे ह्रदय में
अपना घर बना लिया है और दिन हो या रात, मुझे
एक पल के लिए भी नहीं छोड़ते।" [4]
अपनावै ब्रजवासिनि, तब ह्वै ब्रज सौं हेत।
ब्रज सरूप
सूझै तबै, ब्रज तिय अंजन देत॥
- ब्रज
के सवैया
जब ब्रज की महारानी श्री राधिका अपनी कृपा बरसाती हैं और किसी
जीव को अपना बना लेती हैं, तभी उसे ब्रज से
सच्चा प्रेम होता है, अन्यथा नहीं। केवल
उनकी अनुकंपा से ही जीव ब्रज रस की महिमा को समझ पाता है और उस रस का पान करने का
सौभाग्य प्राप्त करता है।
कैसौ फव्यौ है नीलांबर सुंदर, मोहि लिये मन-मोहन माई। [1]
फैलि रही छवि
अंगनि कांति, लसै बहु भाँति सुदेस सुहाई॥ [2]
सीस कौ फूल
सुहाग कौ छत्र, सदा पिय के मन कौं सुखदाई। [3]
और कछू न
रुचै ध्रुव पीय कौं, भावै यहै सुकुमारि लडाई॥ [4]
- श्री
हित ध्रुवदास, बयालीस
लीला, श्रृंगार शत 1 (06)
हे सखी! श्री प्रिया के गौर अंग पर नील निचोल की शोभा कैसी
अद्भुत लग रही है, जिसने स्वयं मनमोहन
श्री लाल जी के मन को भी मोहित कर लिया है। [1]
उनके श्री अंग की दिव्य छटा चारों ओर आलोकित हो रही है, जो हर दृष्टि से सुंदरता और सुहावनता का परिपूर्ण दृश्य
है। [2]
श्री प्रिया के ललाट पर सुशोभित शीश-फूल, उनके सौभाग्य का छत्र बनकर प्रियतम के मन को सदा
आकर्षित करता है। [3]
श्री ध्रुवदास जी कहते हैं, प्रियतम
को इस अनुपम छवि के सिवा और कुछ भी रुचिकर नहीं लगता। वे तो सदा ऐसी सुकुमारी
लाड़िली श्री प्रिया को लाड़ लड़ाने के इच्छुक बने रहते हैं। [4]
सहज स्नेही श्याम के, बन बसि अनत न जाँइ।
ते राँचे
सारे देश सौं, जहाँ तहाँ ललचाँइ॥
- ब्रज
के सवैयाँ
जिन भक्तों का श्री बाँके बिहारीजी महाराज (श्यामसुंदर) के
प्रति स्वाभाविक और गहन प्रेम होता है, वे
वृंदावन को छोड़कर कहीं और नहीं जाते। उनके लिए वृंदावन के अतिरिक्त कोई अन्य
स्थान प्रिय नहीं होता। लेकिन जिनका अनन्य प्रेम बिहारीजी से नहीं होता, उनकी आसक्ति अन्य स्थानों पर रहती है, और वे वहाँ जाने को ललचाते रहते हैं।
प्रथम सीस अर्पन करै, पाछै करै प्रवेस।
ऐसे प्रेमी
सुजन कौ, है प्रवेश यहि देस॥
- ब्रज
के सवैया
दिव्य प्रेम रूपी देश में प्रेमी को सर्वप्रथम अपना शीश अर्पण
करना होता है (अर्थात् आत्मसमर्पण करना होता है) तभी उसको इस क्षेत्र में प्रवेश
मिलता है।
वृंदावन में जाय कर, कर लीजै दो काम।
मुख में व्रज
रज डालकर, बोलो राधे श्याम॥
- ब्रज
के सवैया
श्री वृंदावन धाम में जाकर यह दो
कार्य अवश्य करें: पहले ब्रज की पवित्र रज को अपने मुख में डालें और फिर
प्रेमपूर्वक "राधे श्याम" का उच्चारण करें।
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चाहे सुमेर ते छार करै,
अरु छार ते
चाहे सुमेर बनावै। [1]
चाहे तो रंक
ते राव करै,
अरु राव कौं
द्वारहि द्वार फिरावै॥ [2]
रीति यही
करुणानिधि की,
कवि ‘देव’
कहै विनती मोंहि भावै। [3]
चीटी के पाँव
में बाँधि गयंदहि ,
चाहै समुद्र
के पार लगावै॥ [4]
- श्री
देव जी
चाहे वह सुमेरु पर्वत को खाक कर दे, या फिर उस खाक से ही सुमेरु पर्वत बना दे। [1]
चाहे तो भिखारी को राजा बना दे, या
फिर राजा को द्वार-द्वार भटका दे। [2]
यही रीति है करुणानिधि श्री कृष्ण की, श्री देव जी कहते हैं कि अत: हमें उसी भगवान से ही केवल
विनती करना भाता है। [3]
वह तो ऐसा करुणा निधान है कि चींटी के पाँव में हाथी को बांध कर, चाहे उस चींटी को भी समुद्र पार करवा दे। [4]
सर्प डसे सु नहीं कछु तालुक बीछू लगे सु भलौ
करि मानो।
सिंह हु खाय
तौ नाहिं कछू डर जो गज मारत तौ नहिं हानो॥ [1]
आगि जरौ जल
बूड़ि मरौ गिरि जाय गिरौ कछू भय मति आनो।
‘सुन्दर’ और भले सब ही दुख दुर्ज्जन
संग भलो जनि जानो॥ [2]
- श्री
सुंदर जी
चाहे साँप काट ले, या
बिच्छू भी डस ले, तो भी समझो अभी भला
ही हुआ है। चाहे शेर खा जाए, या हाथी मार डाले, तो भी कोई हानि नहीं है। [1]
चाहे आग में जल जाए, डूबकर
मर जाए, या पर्वत से गिर जाए, तो
भी कुछ भय मत रखो। सुंदर जी कहते हैं कि इतना सब कुछ हो तो भी यह समझो कि सब कुछ
भले के लिए ही होता है, परंतु यदि दुर्जन
व्यक्ति का संग मिल जाए, तो समझ लो कि अब सबसे
बड़ी हानि हो गई। [2]
शिव शंकर छोड़ दियो डमरू, तजि शारद वीणा को भाजन लागी। [1]
ध्वनि पूरि
पताल गई नभ में, ऋषि नारद के शिर गाजन लागी॥ [2]
जड़ जंगम
मोहि गये सब ही, यमुना जल रोकि के राजन लागी। [3]
‘हरेकृष्ण’! जवै ब्रज मण्डल में, ब्रजराज की बाँसुरी बाजन लागी॥ [4]
- श्री
हरे कृष्ण जी
शिव ने अपना डमरू त्याग दिया और सरस्वती अपनी वीणा छोड़कर भाग
गईं; इस दिव्य ध्वनि ने पाताल एवं नभ में अपनी गूंज कर दी, ऋषि नारद के सिर पर यह गरजने लगी। [1 & 2]
श्री हरे कृष्ण कहते हैं कि जब ब्रज मण्डल में, ब्रज राज श्री कृष्ण की बांसुरी बजने लगी तो जड़ एवं
चेतन सभी मोहित हो उठे और यमुना जी का जल ठहर गया। [3 & 4]
जिहि उर-सर राधा-कमल, लस्यौ बस्यौ इहि भाय।
मोहन-भौंरा
रैन-दिन, रहै तहाँ मँडराय॥
- ब्रज
के सवैया
जिस हृदय रूपी सरोवर में राधा
रूपी कमल खिलता है, वहाँ रात दिन श्री
कृष्ण रूपी भँवर मंडराता रहता है।
अपने प्रभु को हम ढूँढ लियो,
जैसे लाल
अमोलक लाखन में। [1]
प्रभु के अंग
में नरमी है जिती,
नरमी नहीं
ऐसी है माखन में॥ [2]
छवि देखत ही
मैं तो छाकि रही,
मेरो चित
चुरा लियो झाँकन में। [3]
हियरामें बसो,जियरामें बसो,
प्यारी
प्यारे बसो दोऊ आँखन में॥ [4]
- ब्रज
के सवैया
जैसे कोई अमूल्य वस्तु को लाखों में भी खोज लिया जाता है, उसी प्रकार मैंने अपने प्रभु को ढूंढ लिया है। [1]
मेरे प्रभु के अंग माखन से भी अधिक कोमल हैं। [2]
मेरे प्रभु ने अपनी एक झलक दिखाकर मुझे अपनी अनुपम छवि से मोह
लिया और मेरे चित्त को चुरा लिया। [3]
अब मेरे हृदय में, चिंतन
में, और मेरी आँखों में केवल दोनों प्यारे-प्यारी (श्री
राधा-कृष्ण) ही बसे हुए हैं। [4]
उनकी तलवार चले तो चले, तुम गर्दन नीचे किये रहना। [1]
तजना -
मधुशाला कदापि नहीं, प्रभु प्रेम का प्याला पिये रहना॥ [2]
यह प्रेम का
पन्थ भयानक है, निज हाथ में प्राण लिये रहना। [3]
कहदें मरना
तो मरे रहना, कहदें जो जियो तो जिये रहना॥ [4]
- श्री
हरे कृष्ण जी
प्रेम के मार्ग को समझाते हुए डंडी स्वामी श्री हरेकृष्णानंद
सरस्वती जी कहते हैं कि, चाहे प्रियतम की
तलवार चलती हो, तुम सदा अपनी गर्दन विनम्रता से
झुकाए रखना। [1]
तुम प्रेम का द्वार (मधुशाला) कभी नहीं छोड़ना और प्रेम का
प्याला निरंतर पीते रहना। [2]
यह प्रेम का मार्ग अत्यंत कठिन और भयानक है, इसलिए अपने प्राणों को सदा अपने हाथों में लिए हुए
चलना। [3]
यदि प्रियतम कहें कि मरो, तो
तुम तुरंत मर जाओ, और यदि कहें कि जियो, तो तुम्हें उनके कहे अनुसार ही जीना चाहिए। [4]
निकट सदाँ मोहे रखियो, जान आपनी दास।
हे प्रभु अब
न सताइये, देह वृन्दावन वास॥
- ब्रज
के सवैया
हे प्रभु, मुझे अपना दास जानकर
सदैव अपने निकट ही रखना, अब और न सताइये, कृपा करके श्री वृन्दावन का वास प्रदान कीजिये।
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मुख सूख गया यदि रोते हुए
फिर अमृत ही
बरसाया तो क्या। [1]
बिरही सागर
जब डूब चुके
तब नाविक नाव
को लाया तो क्या॥ [2]
दृग लोचन बंद
हमारे हुए
तब निष्ठुर
तू मुसिकाया तो क्या। [3]
जब जीवन ही न
रहा जग मे
तब दर्शन आके
दिखाया तो क्या॥ [4]
- ब्रज
के सेवैयाँ
[इस पद में भक्त अपने भगवान से मान कर, व्यंग सहित वार्ता कर रहा है]
यदि मेरा मुख रोते-रोते सूख ही गया तो बाद में यदि अमृत भी
पिलाया तो क्या हुआ? [1]
जब विरह रूपी सागर में डूब ही चुके, तो नावी नाव लेकर आया तो क्या हुआ ? [2]
जब मेरे नेत्र बंद ही हो गए हे निष्ठुर, फिर यदि तू हमें मुस्कुराता हुआ मिला तो क्या हुआ? [3]
जब मेरा जीवन ही न रहा तब तूने यदि मुझे अपना दर्शन आकर दिया तो
क्या हुआ? [4]
कुंज बिहारी पद कमल, विनवों दोऊकर जोर।
चेरौ चरनन
राखियो, मानहु मोर निहोर॥
- ब्रज
के दोहे
हे कुंज बिहारी लाल, दोनों
हाथों को जोड़कर, तुम्हारे चरण कमलों
में मेरी यही विनती है कि मुझे सदा अपने चरणों की सेवा में लगाये रखना।
एक सु तीरथ डोलत है एक
बार हजार पुरान बके हैं।
एक लगे जप में तप में इक सिद्ध समाधिन में अटके हैं॥ [1]
चेत जु देखत हौ रसखान सु मूढ़ महा सिगरे भटके हैं।
साँचहि वे जिन आपुनपौ यह श्याम गोपाल पै वारि छके हैं॥ [2]
- श्री रसखान
कुछ वे लोग हैं, जो तीर्थ स्थानों पर घूमते हैं। कुछ वे हैं, जो हजार बार पुराण पढ़ते
हैं। कुछ वे हैं, जो जप-तप में लगे रहते हैं, और कुछ वे हैं, जो समाधि में
अटके हुए हैं। [1]
यदि रसखान, सावधान होकर
देखो, तो सभी लोग महामूर्ख हैं और सभी भटके हुए हैं। सही मर्म तो वे ही जानते हैं, जो अपने आप को
साँवले श्याम पर न्योछावर (शरणागति) कर प्रेम में डूबे हैं। [2]
योगिया ध्यान धरैं तिनको, तपसी तन गारि के खाक रमावैं। [1]
चारों ही वेद
न पावत भेद, बड़े तिरवेदी नहीं गति पावैं॥ [2]
स्वर्ग और
मृत्यु पतालहू में, जाको नाम लिये ते सबै सिर नावैं। [3]
‘चरनदास’ तेहि गोपसुता कर, माखन दै दै के नाच नचावैं॥ [4]
- श्री
चरणदास
जिनका ध्यान योगीजन सदा करते रहते हैं और जिनको पाने के लिए
तपस्वी लोग अपने पूरे शरीर पर भस्म लगाकर कठोर तपस्या करते हैं। [1]
चारों वेद जिनके गुणों का गान करते रहते हैं, परंतु फिर भी उनके रहस्यों का पूरा ज्ञान प्राप्त नहीं
कर पाते। यहां तक कि बड़े-बड़े त्रिवेदी (तीनों वेदों के ज्ञाता) भी उनकी महिमा का
पूर्णत: अनुभव नहीं कर सकते। [2]
स्वर्ग, मृत्युलोक, और पाताल में जिनका नाम लेने मात्र से सभी सिर झुका
देते हैं। [3]
श्री चरणदास जी कहते हैं कि ऐसे सर्वेश्वर श्री कृष्ण को ब्रज
की गोपियाँ माखन दे-देकर नचा रही हैं। [4]
वह पायेगा क्या रसका चसका
नहिं कृष्ण
से नेह लगायेगा जो।
‘हरेकृष्ण’ इसे समझेगा वही
रसिकों के
समाज में जायेगा जो॥ [1]
ब्रज धूल
लपेट कलेवर में
गुण नित्य
किसोरी के गायेगा जो।
हँसता हुआ
स्याम मिलेगा उसे
निज प्राणों
की भेंट चढ़ायेगा जो॥ [2]
- श्री
हरेकृष्ण जी
उस जीव को रस का क्या चसका लगेगा जो रसिक शिरोमणी श्री कृष्ण से
नेह नहीं लगाता। यह रस तो उसे ही समझ में आएगा जो रसिकों के समाज में जाएगा। [1]
जो जीव अपनी देह को ब्रज रज से लपेट कर श्री राधा के गुण गाता
है, ऐसे परम भाग्यशाली जीव को मुस्कुराते हुए श्यामसुंदर
मिलेंगे, जो अपने प्राणों की भी भेंट चड़ाने से पीछे नहीं हटता।
[2]
श्री वृन्दावन धाम की, महिमा
अपरम्पार।
जहां लाड़ली लाल जी, करते नित्य विहार॥
- श्री जगन्नाथ जी, वृंदावन दर्शन (7)
श्री वृन्दावन धाम की महिमा अपरम्पार है, जहाँ श्री राधा कृष्ण
नित्य विहार करते हैं।
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यह बाग लली ललितेश का है,
रितुराज ने
साज सजाया इसे। [1]
शशि ने
अभिराम ये घेरा रचा,
रति ने कर से
है सिंचाया इसे॥ [2]
हैं अनंग ने
फूल लगाये सभी,
लक्ष्मी निज
वास बनाया इसे। [3]
बिना लाड़िली
की जय बोले हुये,
रसराज ना
पाया किसीने इसे॥ [4]
- ब्रज
के सवैया
यह बाग़ लाड़िली श्री राधा एवं ललितेश श्री कृष्ण का है, जो सदैव बसंत ऋतु से आच्छादित रहता है। [1]
चंद्र ने इस बाग़ का घेरा बनाया है एवं रति देवी ने इसे सींचा
है। [2]
कामदेव ने स्वयं इस बाग़ में फूल लगाए हैं एवं लक्ष्मी जी ने इसे
निजवास बनाने का प्रयत्न किया है। [3]
श्री राधा की जय बोले बिना श्री वृन्दावन रुपी इस परम रसराज को
आजतक किसी ने प्राप्त नहीं किया। [4]
यह रस ब्रह्म लोक पातालै
अवनिहूँ दरसत नाहीं।
या रस कौं कमलापुर हूँ के तरसत हैं मन माँहीं॥ [1]
सो रस रासेश्वरी की कृपा ते प्रेमीजन अवगाहीं।
‘रसिक’ लख्यौ जो सुख वृन्दावन तीन लोक सो नाहीं॥ [2]
- रसिक वाणी
यह ऐसा अद्बुत रस है जो ब्रह्म लोक एवं पाताल लोक में नहीं देखने को मिलता, इस वृंदावन रस
के लिए वैकुंठ के जन भी तरसते हैं। [1]
यही वृंदावन रस श्री रासेश्वरी राधा रानी की कृपा से प्रेमी [रसिक] जनों को
सुलभ होता है। रसिकों ने जो सुख वृन्दावन में पान किया है वैसा तीनों लोकों में
कहीं नहीं है। [2]
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श्री राधा राधा रटत, हटत सकल दुख द्वन्द।
उमड़त सुख को
सिंधु उर, ध्यान धरत नंदनन्द॥
- ब्रज
के दोहे
श्री राधा-राधा नाम रटते ही समस्त दुःख-द्वंद्वों का नाश होता
है। श्री राधा का ध्यान करने से नंदनंदन श्री कृष्ण के ह्रदय में भी सुख का सागर
उमड़ पड़ता है।
किस भांति छुएँ अपने कर
सों, पद पंकज है सुकुमार तेरा।
हरे कृष्ण बसा इन नयनन में, अति सुन्दर रूप उदार
तेरा॥ [1]
नहीं और किसी की जरूरत है, हमको बस चाहिये प्यार
तेरा।
तन पै, मन पै, धन पै, सब पै, इस जीवन पर अधिकार तेरा॥ [2]
- डंडी स्वामी श्री हरे कृष्णानन्द सरस्वती ‘हरे कृष्ण’
हे श्री कृष्ण, मैं आपके चरण
कमलों का स्पर्श अपने हाथों से कैसे करूँ, जो अति सुकुमार हैं? मेरी आँखों
में आपका अत्यंत सुंदर और उदार रूप बसा हुआ है। [1]
मुझे किसी और की आवश्यकता
नहीं, मुझे तो केवल आपके प्रेम की कामना है। डंडी स्वामी श्री हरेकृष्णानंद
सरस्वती जी कहते हैं कि, हे श्री कृष्ण, मेरे तन, मन, और धन—सब पर एकमात्र आपका ही अधिकार है। [2]
जहँ जहँ मणिमय धरनि पर, चरण धरति सुकुँमारि।
तहँ तहँ पिय
दृग अंचलनि, पहलेहिं धरहिं सँवारि॥
- ब्रज
के सेवैया
जहाँ-जहाँ इस वृंदावन की मणिमय रूपी धरनि पर श्री राधिका प्यारी
चरण रखती हैं, वहाँ-वहाँ पिय श्री कृष्ण अपने
दृग के आँचल से पहले ही उस भूमि को संवारते रहते हैं।
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श्रीराधा बाधा हरनि, नेह
अगाधा-साथ।
निहचल नयन-निकुंज में, नचौ निरंतर नाथ॥
- श्री दुलारेलाल जी
हे समस्त बाधाओं को हरण
करने वाली श्रीराधा! कृपा कर मेरे नयन रूपी निकुंज में श्री कृष्ण के संग, अगाध प्रेम को
बरसाती हुई, अनवरत नृत्य करते हुए वास करो।
मेरो मन माणिक गिरवी धरयो, श्री मनमोहन के पास।
प्रेम ब्याज
इतनो बढयो, ना छूटन की आस॥
- ब्रज
के दोहे
मैंने अपना माणिक रत्न रूपी मन, मनमोहन श्री कृष्ण के पास गिरवी रखा है, उसके प्रेम का ब्याज इतना बढ़ गया है कि अब उसके मुक्त
होने की कोई आशा नहीं दिखती।
जाप जप्यो नहिं मन्त्र
थप्यो,
नहिं वेद पुरान सुने न बखानौ। [1]
बीत गए दिन यों ही सबै,
रस मोहन मोहनी के न बिकानौ॥ [2]
चेरों कहावत तेरो सदा पुनि,
और न कोऊ मैं दूसरो जानौ। [3]
कै तो गरीब को लेहु निबाह,
कै छाँड़ो गरीब निवाज कौ बानौ॥ [4]
- ब्रज के सेवैया
न मैंने भगवन्नाम का जप किया, न मंत्र का अनुष्ठान
किया। न वेद-पुराणों का श्रवण किया, न किसी कथा का कथन किया।
[1]
हे श्री श्यामा श्याम, मैंने तो बस
आपके चरणों की शरण ग्रहण की है; फिर भी, इतना समय बीत
जाने पर भी आपके दिव्य प्रेमरस में डूब नहीं सका हूँ। [2]
मैं सदा आपका ही दास हूँ, आपके सिवा मैं
किसी और का स्मरण नहीं करता। [3]
हे श्री श्यामा श्याम, या तो मुझ
गरीब की बांह पकड़कर इस माया से पार लगाइए, अन्यथा गरीब निवाज कहे
जाने का अभिमान त्याग दीजिए। [4]
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टेड़ी लसें भृकुटीन पै पाग, अस नैनि दिपे मानो उभो प्रभाकर। [1]
रावरो दास
पुकार कहै, मैंने नाम सुन्यो तेरो दीनदयाकर॥ [2]
माधुरी रूप
लख्यो जब ते, बल्देव भयो नित ही उठि चाकर। [3]
नाहिन तिनहु
लोकन में कोऊ, कुञ्जबिहारी सो दूसरो ठाकुर॥ [4]
- ब्रज
के सवैया
श्री कृष्ण के माथे पर सुंदर पाग विराजमान है, जो टेढ़ी है और भृकुटि पर इस प्रकार सुशोभित है जिससे
उनकी आँखों की छवि ऐसी लग रही है मानो सूर्य उदित हुआ हो। [1]
हे कृष्ण, मैं आपका दास आपको
पुकार कर कहता हूँ कि मैंने आपका "दीनदयाकर" [दीनजनों पर दया करके वाले]
नाम सुना है। [2]
जिस क्षण से मैंने आपकी रूप माधुरी को निहारा है उसी क्षण से ही
मैं आपका नित्य दास हो चुका हूँ। [3]
श्री कुञ्जबिहारी के समान तीनों लोकों में कोई दूसरा ठाकुर नहीं
है। [4]
ललिता हरिदास हिये में
बस्यौ, अब और सखी कछु ना चहिये। [1]
दिन-रैन सदा संग लाग्यो रहै, बिन चैन न आवै कहा कहिये॥
[2]
श्याम रिझावत स्यामाँहिं प्रेम सों, केलि करें रस वेलहु
लहिये। [3]
हों तो गुलाम ललाम भई छबि, पिय प्यारे निहारे कहाँ
जहिये॥ [4]
- ब्रज के सवैया
हे सखी, ललिता सखी श्री हरिदास मेरे ह्रदय में बसे हैं, अब मुझे कुछ
और नहीं चाहिए। [1]
दिन-रात मेरा ह्रदय
उन्हीं के संग रहता है, उनके बिना मुझे चैन नहीं है। [2]
श्री कृष्ण श्री राधा को
प्रेम से रिझा रहे हैं, और उनके इस केलि लीला रस के पान का सुख मुझे प्राप्त हो रहा है। [3]
मैं तो सहज ही इस युगल
जोड़ी श्री राधा कृष्ण की मधुर छवि की गुलाम हो गई हूँ, जिसके दर्शन
के बिना मेरी कोई गति नहीं है। [4]
श्री राधा पद पदम रज, वन्दौं बारम्बार।
कृपा करहूँ
श्रीलाड़िली, मोहन प्राणाधार॥
- ब्रज
के दोहे
हे श्री राधा, मैं आपके चरण कमलों
की रज की बारंबार वंदना करता हूँ। हे
मनमोहन की प्राणाधार श्री लाड़िली जू, मुझ
पर कृपा कीजिये!
अति सुधौ सनेह को मारग है, जहाँ नेक
सयानप बाँक नहीं। [1]
जहाँ साँच चलें तजि आपुनपो, झिझकैं कपटी जो निसाँक
नहीं॥ [2]
घन आनंद प्यारे सुजान सुनो, इत एक तें दूसरी आंक
नहीं। [3]
तुम कौन सी पाटी पढ़े हो लला, मन लेत पै देत छटॉक नहीं॥
[4]
- श्री घनानंद जी, घनानंद ग्रंथावली
प्रेम का मार्ग अत्यंत सीधा और सरल है, जहां थोड़ी सी भी चालाकी
(चतुराई) से नहीं चला जाता। [1]
इस मार्ग में सच्चाई से
ही चला जाता है, और अपने आप को सदा न्योछावर करके, अर्थात् निस्वार्थ भाव से
ही आगे बढ़ा जाता है। यह मार्ग सच्चे प्रेमियों का है, छल-कपट रखने
वालों को इस प्रेम मार्ग पर चलने में झिझक होती है। [2]
श्री घनानंद जी कहते हैं
कि इस मार्ग में अपने एक प्यारे (प्रियतम) के सिवा दूसरा कोई नहीं होता, अर्थात् इस
प्रेम गली में केवल अपने प्रियतम के प्रति अनन्य होकर ही चला जाता है। [3]
परंतु हे श्री कृष्ण, तुमने कहाँ से
यह पाठ पढ़ा है, जो मेरा मन तो ले लिया है, परंतु अभी तक थोड़ा सा भी
छटाँक (छवि का दर्शन) नहीं दिया? (यह श्री कृष्ण पर कटाक्ष
किया गया है)। [4]
जाकी प्रभा अवलोकत ही तिहूँ
लोक कि सुन्दरता गहि वारि - ब्रज के सेवैया
जाकी
प्रभा अवलोकत ही तिहूँ लोक कि सुन्दरता गहि वारि।
कृष्ण कहैं सरसीरुह नयन को नाम महामुद मंगलकारी॥ [1]
जा तन की झलकैं झलकैं हरि ता द्युति स्याम की होत निहारी।
श्री वृषभानु कुमारि कृपा करि राधा हरो भव बाधा हमारी॥ [2]
-
ब्रज
के सेवैया
जिनकी
अंग कांति का दर्शन करते ही तीनों लोकों की समस्त सुंदरता भी न्यौछावर हो जाती है, उन कमल नयनी श्री
राधा का नाम महामोद और मंगलकारी है, ऐसा श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं।
[1]
जिनकी दिव्य झलक की अलौकिक शोभा को निहारते ही श्री
कृष्ण आनंद से हरित (उल्लसित) हो उठते हैं, वे वृषभानु कुमारी श्री राधा
हमारी समस्त भव-बाधाओं का हरण करें। [2]
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तब सखियन पिय सौ कह्यौ, सुनहुँ रसिकवर
राइ।
जो रस चाहत आपनौ, गहौ कुँवरि के पाँइ॥
- ब्रज के सवैया
एक सखी श्री श्याम सुंदर से कहती है कि अहो रसिकवर जू! यहां आपकी एक न चलेगी, यदि कुछ रस
प्राप्त करने की इच्छा हो तो हमारी श्री प्रिया जू के चरणों को पकड़ लो।
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चित चोर! छिपोगे कहाँ तक
यों, हमें शान्ति नहीं प्रगटाये बिना । [1]
हम छोड़ेंगे ध्यान तुम्हारा नहीं, नहीं मानेंगे श्याम
बुलाये बिना ॥ [2]
नहीं छाती की ज्वाला मिटेगी प्रभो! तुमको इससे लिपटाये बिना। [3]
यह जीवन प्यास बुझेगी नहीं, चरणामृत प्यारे पिलाये
बिना ॥ [4]
- डंडी स्वामी श्री हरे कृष्णानन्द सरस्वती ‘हरे कृष्ण’
हे चितचोर (श्यामसुंदर)! कहाँ तक छिपोगे, हमारे हृदय को तब तक
शांति नहीं मिलेगी जब तक तुम हमें प्रकट रूप से दर्शन नहीं देते। [1]
हम तुम्हारा ध्यान करना छोड़ेंगे नहीं और तब तक संतुष्ट नहीं होंगे जब तक हम
तुमसे मिल न लें। [2]
हमारे हृदय की अग्नि तब तक नहीं मिटेगी, हे प्रभु, जब तक हम
तुम्हें साक्षात अपने हृदय से नहीं चिपटा लेते। [3]
यह जीवन की प्यास तब तक नहीं बुझेगी, जब तक तुम स्वयं आकर हमें
अपना चरणामृत नहीं पिला देते। [4]
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काहे को वैद बुलावत हो, मोहि रोग लगाय
के नारि गहो रे।
हे मधुहा मधुरी मुसकान, निहारे बिना
कहो कैसो जियो रे॥ [1]
चन्दन लाय कपूर मिलाय, गुलाब छिपाय
दुराय धरो रे।
और इलाज कछू न बनै, ब्रजराज मिलैं
सो इलाज करो रे॥ [2]
- ब्रज के सवैया
मुझे रोग लगा है या नहीं, यह जानने के
लिए आप सब वैद्य को क्यों बुला रहे हो? मैं स्वयं अपने रोग का
इलाज कह देता हूँ, बिना श्री कृष्ण के मुस्कान को निहारे, कहो मैं कैसे जी पाऊँगा? उनकी मुस्कान
ही मेरी जीवन संजीवनी है। [1]
आप दवा के लिए
जड़ी-बूटियों का मिश्रण करने के लिए परेशानी उठा रहे हैं; चंदन, गुलाब और कपूर
ला रहे हैं, इन सब को तो मुझसे दूर ही रखो, क्योंकि मेरा इलाज कुछ और
नहीं बल्कि श्री कृष्ण ही हैं, इसलिए उनकी प्राप्ति जैसे
भी बने, बस वही साधन करो। [2]
मथुरा प्रभु ने ब्रजवास दियो,
कोऊ वास नहीं
जासौं सुथरा । [1]
सुथरा यमुना
जलस्नान कियो,
मिटिये
जमदूतन को खतरा ॥ [2]
खतरा तजि
श्री गोपाल भजो,
अब ‘बल्लभ’
नेम यही पकरा । [3]
पकड़ा हिय
में हरिनाम सदा,
भजि सो मन
श्री मथुरा मथुरा ॥ [4]
- श्री
वल्लभ दास
मथुरा के प्रभु ने हमें बहुत कृपा करके ब्रजवास प्रदान किया है
जिसके जैसा कोई परम-पावन वास नहीं है । [1]
यमुना के पवित्र जल में स्नान करने से, यमदूतों का भय दूर हो जाता है। [2]
समस्त भय को त्यागकर श्री गोपाल की भक्ति करनी है, अब वल्लभदास जी ने केवल इसी नियम का पालन करना है । [3]
हरि का नाम दृढ़ता से हृदय में धारण कर, हे मन, निरंतर जपो, “श्री मथुरा, मथुरा।”
[4]
सांवरी राधिका मान कियो परि पांयन गोरे गोविन्द
मनावत।
नैन निचौहे
रहं उनके नहीं बैन बिनै के नये कहि आवत॥ [1]
हारी सखी सिख
दै ‘रतनाकर’ हेरि मुखाम्बुज फेरि हंसावत।
ठान न आवत
मान इन्हैं उनको नहिं मान मनाबन आवत॥ [2]
- श्री
रत्नाकर जी
जब श्री राधिका श्री कृष्ण से मान करती हैं तब श्री कृष्ण
राधिका जू के चरणों पर गिरकर उन्हें मनाते हैं। उनके नैंन नीचे रहते हैं एवं मुख
से कोई शब्द बाहर नहीं निकलता। [1]
हार कर सखी श्री राधिका की श्याम सुंदर से सुलह करवा देती है और
दोनों को पुनः हंसा देती है। श्री रत्नाकर जी कहते हैं कि न तो श्री राधिका को मान
करना आता है और न ही श्याम सुंदर को ठीक से मनाना आता है। [2]
अम्बर सम्बर बास बसे
घमडे घनघोर
घटा घँहराँनी।
जद्दपि कूल
करारनि ढाहति
आंनि बहै पुल
ही तर पाँनी॥ [1]
श्रीबिहारिनिदासि
उपासित यौं
निरनै करि
श्रीहरिदास बखाँनी।
सबै परजा
ब्रजराज हूँ लौं
सर्वोपरि
कुंजबिहारिनि राँनी॥ [2]
- श्री
बिहारिन देव जी, श्री
बिहारिन देव जी की वाणी, सिद्धांत
के कवित्त-सवैया (110)
जैसे घनघोर बादल आकाश में छा जाते हैं और फिर जल बरसाते हैं ।
यद्यपि वह जल नदी को उमड़ाकर किनारों और टीलों को ढहा देता है, फिर भी वह पुल के नीचे से होकर ही बहता है। उसी प्रकार
श्री लालजी (श्री कृष्ण) अपनी प्रेम रूप माधुरी से भरकर समस्त मर्यादाओं को तोड़ते
हुए सतत चलते हैं। परंतु, वे सर्वोपरि श्री
नित्य बिहारिनी जू (श्री राधा) के प्रेम से वशीभूत होकर, दीन से भी दीन होकर, निरंतर
उनके चरणों में पड़े रहने को ही अपने प्राणों का आधार मानते हैं। [1]
श्री बिहारिनदेव जी कहते हैं कि यही सिद्धांत, भली-भाँति निर्णय कर, श्री
स्वामी हरिदास जी ने रसिकों के समक्ष सदा प्रकट किया है। यह निश्चय बात है कि इस
वृंदावन धाम में, यहाँ तक कि ब्रजराज
श्री कृष्ण भी प्रजा स्वरूप ही हैं, और
सर्वोपरि एकमात्र कुँजबिहारिनी श्री राधा महारानी का ही इक्छत राज्य है। [2]
भाग्यवान वृषभानुसुता सी को तिय त्रिभुवन
माहीं। [1]
जाकौं पति
त्रिभुवन मनमोहन दिएँ रहत गलबाहीं॥ [2]
ह्वै अधीन
सँगही सँग डोलत, जहां कुंवरि चलि जाहीं। [3]
‘रसिक’ लख्यौ जो सुख वृंदावन, सो त्रिभुवन मैं नाहीं॥ [4]
- श्री
हरिराय जी
संसार में श्रीराधा जैसी भाग्यवान कोई स्त्री नहीं है। [1]
जिनके पति तीनों लोकों के स्वामी श्रीकृष्ण सदैव उनके कन्धे पर
गलबहियां डाले रहते हैं। [2]
जहां भी किशोरीजी जाती हैं, वे
उनके अधीन होकर संग-संग जाते हैं। [3]
रसिकों ने जो सुख वृन्दावन में पान किया है वैसा तीनों लोकों
में कहीं नहीं है। [4]
कमला तप साधि अराधति है,
अभिलाष-महोदधि-मंजन कै। [1]
हित संपति हेरि हिराय रही,
नित रीझ बसी मन-रंजन कै॥ [2]
तिहि भूमि की ऊरध भाग दसा,
जसुदा-सुत के पद-कंजन कै। [3]
घनआनंद-रूप निहारन कौं,
ब्रज की रज आखिन अंजन कै॥ [4]
- श्री घनानंद जी, घनानंद ग्रंथावली
श्री लक्ष्मी जी तप-साधना द्वारा श्री कृष्ण की आराधना करती हैं, मानो अभिलाषा
रूपी महोदधि (समुद्र) में अवगाहन करने के लिए तपस्या कर रही हों। [1]
श्रीकृष्ण के दिव्य स्वरूप को निहार कर वे मंत्रमुग्ध हो जाती हैं और उस रूप
को अपने हृदय में सदा बसाए रखती हैं, जिससे उन्हें सदा आनंद की
अनुभूति होती है। [2]
अहो, उस भूमि का कितना सौभाग्य है, जो यशोदानंदन श्री कृष्ण
के चरण-कमलों के चिन्हों से पावन हुई है। [3]
श्री श्यामसुंदर के रूप को सदैव निहारने के लिए श्री लक्ष्मी जी ब्रज की रज
रूपी अंजन को अपने नेत्रों में सदा लगाये रखती हैं । [4]
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कर कंजन जावक दै रूचि सौं,
बिछिया सजि
कै ब्रज माड़िली के । [1]
मखतूल गुहे
घुँघरू पहिराय,
छला छिगुनी
चित चाड़िली के ॥ [2]
पगजेबै जराब
जलूसन की,
रवि की किरनै
छवि छाड़िली के । [3]
जग वन्दत है
जिनको सिगरो,
पग बन्दत
कीरिति लाड़िली के ॥ [4]
- श्री
हठी जी, श्री
राधा सुधा शतक (6)
प्रेम में पूर्णतया आसक्त होकर श्री कृष्ण, अपने हाथों से श्री राधा के चरण कमलों में जावक लगाते
हैं। ब्रज की प्यारी ठकुरानी श्री राधा के कमल जैसे चरणों को सुंदर बिछुओं से
सुसज्जित करते हैं। [1]
वह अत्यंत सावधानीपूर्वक उनके कोमल चरणों पर पायल बांधते हैं, और रंगीली राधा की कनिष्ठा अंगुली में एक सुंदर छल्ला
(अंगूठी) पहनाते हैं। [2]
श्री राधा के चरणों में जड़ी हुई रत्नमयी पायल की चमक इतनी तेज
है कि सूर्य की किरणें भी उसके आगे फीकी पड़ जाती हैं। [3]
श्री हठी जी कहते हैं, “समस्त
संसार जिसकी वंदना करता है, वही श्री कृष्ण, प्रेमपूर्वक श्री राधा के चरणों की आराधना करते हैं।” [4]
श्रीबिहारी बिहारिनि कौ
जस गावत, रीझैं देत सर्वसु स्वाँमी। [1]
अमनैंक अनन्यनि कौ धन
धर्म, मर्म न जानैं कर्मठ काँमी॥ [2]
श्रीबिहारिनिदास विस्वास
बिना, ललचात लजात लहै नँहि ताँमी। [3]
और कहा वरनें कवि बापुरौ, बादि बकैं
श्रम कैं मति भ्राँमी॥ [4]
- श्री बिहारिन
देव जी, श्री बिहारिन देव जी की वाणी, सिद्धांत के
कवित्त-सवैया (109)
जो जीव श्री
बिहारी-बिहारिनी का अनन्य भाव से प्रेम में भरकर यशोगान करता है उस पर अनन्य नृपति
रसिक शिरोमणि स्वामी श्री हरिदास जी अति रीझ कर, विवश होकर, अपना सर्वस्व
न्यौछावर कर देते हैं । [1]
ये प्रिया प्रियतम तो अनन्य रसिकों का ही धन है इसका मर्म कर्मठ एवं सकामी
लोग नहीं जानते । [2]
ऐसे सांसारिक कामनाओं से युक्त एवं कर्मकांडी लोग इस मर्म को न जानने के
कारण, मन में लालच करते हुए थकते एवं लजाते नहीं । [3]
इस विशुद्ध प्रेम के मर्म को जब बेचारे महा कवि भी वर्णन नहीं कर सकते तब
भ्रामिक लोग तो बेकार में ही बकवाद किया करते हैं । अर्थात् सच्चे प्रेमी का ऐसा
स्वभाव होता है कि वह अपने प्रेमास्पद के गुणों को सुनकर ऐसा रीझ उठता है कि उसको
अपना सर्वस्व देने को तैयार हो जाता है । [4]
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कबहु सेवा कुंज में बनू मैं श्याम तमाल।
ललिता कर गहे
बिहरि है ललित लड़ेती लाल॥
- ब्रज
के सवैया
ऐसा कब होगा कि मैं वृंदावन में सेवा कुंज में एक तमाल वृक्ष
बनूँगा, जहां ललित युगल श्री राधा कृष्ण उस वृक्ष तले एक-दूसरे
का हाथ पकड़ विहार परायण होंगे।
वन्दौं राधा के परम पावन पद अरविन्द।
जिनको मृदु
मकरन्द नित चाहत स्याम मिलिन्द॥
- ब्रज
के सवैया
श्री राधा जू के परम पावन चरणारविंद को बार बार वंदन हैं, जिन मृदु चरण कमल मकरंद को नित्य ही श्याम रूपी मधु पान
करने की लालसा रखता है।
मूर्तिमान श्रिंगार हरि, सब रस कौ
आधार।
रसपोषक सब शक्ति लै, ब्रज में करत
विहार॥
- श्री वृंदावन
देव जी
अखिल रसामृत मूर्ति श्री
कृष्ण रस की समस्त विभूतियों को लेकर ब्रज में एक रस विहार करते हैं।
परयौ रहौं नित चरन तल अरयौ प्रेम दरबार।
प्रेम मिलै
मोय दुहुन के पद कमलनि सुखसार॥
- श्री
हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाईजी), पद
रत्नाकर, वंदना
एवं प्रार्थना (7.4)
मैं नित्य ही आपके [युगल] चरणों तले एवं प्रेम दरबार [श्री धाम
वृन्दावन] में ही पड़ा रहूं। मेरी केवल एक ही आशा है कि आप दोनों [श्री राधा कृष्ण]
के सुख सार स्वरूप युगल चरण कमलों का मुझे निष्काम प्रेम प्राप्त हो
हम ब्रज मंडल के रसिया,
नित प्रेम करें हरि सौ
मनमानी। [1]
डोलत कुंज निकंजन में,
गुण गान करें रस प्रेम
कहानी॥ [2]
जो मन मोहन संग रहे,
वह वृषभानु लली हमने
पहचानी। [3]
औरन की परवाह नहीं,
अपनी ठकुरानी राधिका
रानी॥ [4]
- ब्रज के
सेवैया
हम ब्रज मंडल के रसिया
हैं, नित्य ही श्री हरि को अपनी इच्छा अनुसार प्रेम से लाड़ लड़ाते हैं। [1]
हम ब्रज के कुंजों और
निकुंजों में डोलते हैं और प्रेम रस से विभोर होकर ही श्री राधा कृष्ण का गुणगान
करते हैं। [2]
जो नित्य ही मनमोहन के
संग रहती हैं, वे श्री वृषभानु लली ही हमारी सब कुछ हैं। [3]
हमें किसी और की परवाह
नहीं, हमारी ठकुरानी केवल और केवल श्री राधिका रानी ही हैं। [4]
जाकी नख दुति लखि लाजत कोटि कोटि रवि चंद।
वंदो तिन
राधा चरण पंकज सुचि सुखकंद॥
- श्री
हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाईजी), पद
रत्नाकर, वंदना
एवं प्रार्थना (2.5)
मैं श्री राधा के श्री चरण कमलों का बार-बार वंदन करता हूँ, जिनके चरण नखों की दिव्य ज्योति से करोड़ों-करोड़ों
चंद्र और सूर्य भी लज्जित हो जाते हैं। वे चरण कमल ही समस्त आनंद और रस के मूल
आधार हैं।
जय जय वृषभानु नंदिनी, जय जय ब्रज राज कुमार।
शरण गहे निज
राखिये, सब अपराध बिसार॥
- ब्रज
के सवैया
श्री वृषभानु नंदिनी राधा एवं श्री ब्रज राज कुमार कृष्ण की जय
हो, कृपया मुझे अपनी निज शरण में रखिये मेरे सब अपराधों को
भुला कर।