Tuesday, October 17, 2023

श्री धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री जी(बागेश्वर धाम) और पूज्य महाराज Premanand ji जी के बीच क्या वार्तालाप हुई ?

श्री धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री जी(बागेश्वर धाम) और पूज्य महाराज Premanand ji जी के बीच क्या वार्तालाप हुई ?

[ ] within bracket is the time stamp of video https://www.youtube.com/watch?v=fiLT1IYGGCU 1. महाराज जी, श्री धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री जी को भगवान का पार्षद बताते हैं, जिसका कार्य मायाजाल में फंसे जीवों को मुक्त करना है [00:52 - 01:06]। 2. वे कहते हैं कि भगवत नाम और गुणों की गर्जना करने से माया तुरंत भाग जाती है, क्योंकि इसमें अपार सामर्थ्य है [01:15 - 01:23]। 3. माया से पार होने के लिए ज्ञान-विज्ञान नहीं, बल्कि भगवान के नाम, गुण, लीला और धाम का आश्रय आवश्यक है [01:31 - 01:54]। 4. माया भगवान की दासी है, जो भक्तों को मार्ग दे देती है, लेकिन अहंकार (अहम्) होते ही प्रश्नवाचक चिन्ह लगा देती है [02:01 - 02:08]। 5. वे भगवान का यश सुनाकर जीवों को मुक्त करते हैं, क्योंकि भगवत यश श्रवण मात्र से ही भगवत प्राप्ति हो जाती है [02:15 - 02:25]। 6. इसका प्रमाण धुंधकारी और ब्राह्मण पत्नियों का उदाहरण है, जिन्हें केवल कथा के अनुराग से ही लाभ मिला [02:36 - 02:47]। 7. जिनको कान से कथा सुनने और जिह्वा से नाम जपने का अवसर मिल गया, वे तुरंत माया पर विजय प्राप्त कर लेते हैं [02:56 - 03:02]। 8. महाराज जी चेतावनी देते हैं कि साधना का अहंकार ('मैं त्यागी हूँ', 'मैं मौनी हूँ') भगवत प्राप्ति में बाधक होता है [03:02 - 03:11]। 9. जो 'मैं' का शमन करके भगवान का दासत्व करता है और स्वयं को नीच समझता है, भगवान उसे महान बनाते हैं [03:18 - 03:26]। 10. वे आशीर्वाद देते हैं कि स्वस्थ शरीर और स्वस्थ बुद्धि के साथ डंके की चोट से नाम-गुणगान करो। 11. जिसका बल रखवार रमापति (भगवान) हैं, उसकी सीमा को कोई छू नहीं सकता और उसे कोई परास्त नहीं कर सकता [03:51 - 04:01]। 12. भक्तों का अपना मंगल तो उनके भगवान के संबंध से हो चुका है, अब केवल जो भगवान के संबंध को भूले हैं, उन्हें जागृत करना है [04:08 - 04:14]। 13. सनातन धर्म स्वयंभू है—यह ब्रह्म, वायु और सूर्य की तरह है, किसी व्यक्ति द्वारा स्थापित नहीं किया गया [05:40 - 05:48]। 14. सनातन धर्म में जोड़ने की यह भावना स्वयं भगवान द्वारा प्रकट की हुई होती है, ताकि भूले हुए प्राणी परम प्रीति में स्थित हों [06:03 - 06:10]। 15. धीरेंद्र शास्त्री जी महाराज जी की बीमारी को महापुरुषों की लीला बताते हैं, जिसका उद्देश्य केवल भगवान की सेवा और भक्तों के दर्शन है [06:49 - 07:05]। 16. कार्य में सावधानी रखने के प्रश्न पर महाराज जी समझाते हैं कि भक्त तो बेपरवाही से चलने वाला बच्चा है, उसकी सुरक्षा (सावधानी) स्वयं माता-पिता (भगवान) करते हैं [08:26 - 08:35]। 17. भक्त का बल उसकी साधना या ज्ञान नहीं, बल्कि केवल प्रिया-प्रीतम का बल है, अतः उन्मत्त होकर उनके चिंतन में चलना चाहिए [09:24 - 09:31]। 18. भक्त के सामने आने वाली प्रतिकूलताएँ उसे परिपक्व करने के लिए आती हैं, जिन्हें वह कृपा प्रसाद मानकर अनुकूलता में बदल देता है [09:59 - 10:14]। 19. महाराज जी अपनी किडनी फेल होने की घटना का उदाहरण देते हैं, जिससे उन्हें साधना का अहंकार नष्ट होने पर वास्तविक शरणागति का बोध हुआ [10:42 - 11:02]। 20. भगवान के भक्त को हिम्मत रखनी पड़ती है—संकट की तलवार भी आकर गले का हार बन जाती है, बस भरोसा दृढ़ होना चाहिए [13:37 - 13:57]।

Premanand ji & Amogh Lila Prabhu के बीच क्या वार्तालाप हुई

Premanand ji & Amogh Lila Prabhu के बीच क्या वार्तालाप हुई 

https://www.youtube.com/watch?v=xT3X-mVIoNo 0:01 – 0:25 “जी महाराज जी की जय… आपके दर्शन हुए महाराज कार्तिक मास में बहुत बड़ा सौभाग्य है।” भावार्थ: भक्तजन बड़े विनम्र भाव से महाराज जी को प्रणाम करते हैं और बताते हैं कि कार्तिक मास (जो भगवान की विशेष कृपा का समय है) में उनके दर्शन होना बहुत बड़ा सौभाग्य है। यह भाव दर्शाता है कि संतों और महापुरुषों के दर्शन भी ईश्वर की कृपा से ही संभव हैं। ________________________________________ 0:25 – 1:09 “आप कृपा करके दर्शन देने आए हैं प्रभु… हम अधम हैं, कहीं जा नहीं सकते… भगवान अपने निज जनों को तभी भेजते हैं जब कृपा होती है।” भावार्थ: भक्त कहते हैं कि जब साधक अपने बल से कुछ नहीं कर सकता, तब भगवान अपने भक्तों को भेजते हैं ताकि जीव पर अनुग्रह हो सके। यह दर्शाता है कि संत भगवान की जीवित कृपा स्वरूप होते हैं। वे स्वयं भगवान की करुणा का रूप लेकर संसार में आते हैं। ________________________________________ 1:09 – 1:25 “महाराज, आपने बहुत लोगों को प्रेरणा दी है… लाखों-करोड़ों लोग आपके वचनों से लाभान्वित हो रहे हैं।” भावार्थ: यह भाग संत महात्माओं के समाज कल्याण कार्य की सराहना है। महाराज जी का जीवन प्रेरणा का स्रोत है — उनका उद्देश्य केवल आत्मकल्याण नहीं, बल्कि लोककल्याण (universal welfare) है। ________________________________________ 1:37 – 2:07 “वैष्णव से अपराध कैसे बन सकता है? जो निरंतर भगवान में लगा है, वही राधा है, वही कृष्ण है।” भावार्थ: महाराज जी समझाते हैं कि सच्चा वैष्णव भगवान से अभिन्न होता है। जो निरंतर भक्ति में लीन है, वही राधा-कृष्ण की कृपा का अंश है। ऐसे संत से अपराध की भावना हो ही नहीं सकती। भक्ति में अपराध-भाव नहीं, केवल विनम्रता का भाव होता है। ________________________________________ 2:07 – 2:43 “कृष्ण अपने आनंद के लिए राधा रूप में प्रकट हुए… प्रियाजू (राधा) ही श्रीकृष्ण हैं, और प्रियाजू की कृपा से ही श्रीकृष्ण प्रेम प्राप्त किया जा सकता है।” भावार्थ: यह अत्यंत गूढ़ तत्वज्ञान है — राधा और कृष्ण दो नहीं हैं। राधा वह स्वरूप हैं जो भगवान के प्रेम, आनंद और माधुर्य का विस्तार है। जो राधा से कृपा पाता है, वही कृष्ण प्रेम का रसास्वादन कर सकता है। 👉 यहाँ प्रेमानंद जी ‘रस-तत्व’ समझाते हैं — कि भगवान स्वयं प्रेम स्वरूप हैं और राधा उनका ‘आल्हादिनी शक्ति’ हैं। ________________________________________ 2:45 – 3:08 “जैसे पूर्णिमा के चंद्र का दर्शन केवल पूर्णिमा को ही हो सकता है… वैसे ही श्रीकृष्ण प्रेम बिना राधा-कृपा के प्राप्त नहीं होता।” भावार्थ: यह सुंदर उपमा है — जैसे चंद्रमा का पूरा रूप केवल पूर्णिमा पर दिखता है, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण का पूर्ण रस केवल राधा की कृपा से ही प्रकट होता है। राधा कृपा ही कृष्ण प्रेम की कुंजी है। ________________________________________ 3:10 – 3:47 “राधा के चरण-रज का प्रभाव ही गोपियों को कृष्ण-प्रेमी बना देता है।” भावार्थ: महाराज बताते हैं कि जब राधा के चरणों की धूल गोपियों को मिली, तब वे ‘अनंत माधुर्य निधि’ श्रीकृष्ण को भी रिझा सकीं। इसका अर्थ है — राधा कृपा के बिना कोई भी भगवान को नहीं पा सकता। ________________________________________ 3:55 – 4:14 “जब हम ‘राधा’ बोलते हैं तो कृष्ण मुस्कुराते हैं… और जब राधा देखती हैं कि कृष्ण प्रसन्न हैं, तो वे हम पर कृपा कर देती हैं।” भावार्थ: यह परम मधुर भक्ति-सूत्र है — राधा नाम स्वयं भगवान को प्रसन्न करता है। जो प्रेम से राधा का नाम जपता है, उस पर स्वयं श्रीकृष्ण आकर्षित होते हैं, और फिर राधा भी उस भक्त पर प्रसन्न होकर कृपा करती हैं। ________________________________________ 4:22 – 4:50 “जो राधा और कृष्ण में भेद करते हैं, वे अभी समझे नहीं। दो आँखें हैं, दृष्टि एक है; तन दो हैं, मन एक है।” भावार्थ: महाराज जी यहाँ अद्वैत प्रेम का सिद्धांत  समझाते हैं — राधा और कृष्ण अलग नहीं हैं। वे एक ही प्रेम का दो रूप हैं। जैसे दो आँखें हैं लेकिन दृष्टि एक होती है, वैसे ही राधा और कृष्ण एक ही चेतना के दो स्वरूप हैं। ________________________________________ 5:00 – 5:48 “प्रेम में भेद समाप्त हो जाता है… जहाँ प्यारे हैं, वहाँ प्यारी हैं; जहाँ प्यारी हैं, वहाँ प्यारे हैं — वे अलग नहीं रह सकते।” भावार्थ: सच्चे प्रेम में द्वैत नहीं होता। राधा-कृष्ण का प्रेम ‘अद्वैत आनंद’ है — जहाँ आत्म और परमात्मा एक हो जाते हैं। यहाँ महाराज जी ‘प्रेम रस’ के चरम सिद्धांत को उजागर करते हैं कि राधा-कृष्ण दो नहीं — एक ही प्रेम स्वरूप हैं। ________________________________________ 6:07 – 7:21 (भक्त परिवार से संवाद) महाराज जी माता-बहनों को आशीर्वाद देते हैं… और कहते हैं – “आप हमारी आत्मा हैं।” भावार्थ: यह महाराज जी की अहंभाव रहित करुणा  को दर्शाता है। वे प्रत्येक भक्त को अपने आत्मस्वरूप का अंश मानते हैं। भक्त के प्रति उनकी दृष्टि समानता और प्रेम  की होती है — जहाँ कोई ऊँच-नीच नहीं, केवल आत्मीयता है। ________________________________________ अंतिम भाव: “प्रेमानंद जी महाराज की जय, श्रीमती राधा रानी की जय।” भावार्थ: समापन में सभी भक्ति भाव से जयघोष करते हैं — यह दर्शाता है कि वार्ता केवल ज्ञान नहीं, अनुभूति और प्रेम का उत्सव  थी। महाराज जी ने यह सिखाया कि — “राधा ही कृपा हैं, कृष्ण ही प्रेम हैं, और उनका एकत्व ही भक्ति का परम सत्य है।” ________________________________________ 🌺 सारांश (Essence of the Discourse) राधा और कृष्ण दो नहीं — एक हैं। राधा भगवान की ‘आल्हादिनी शक्ति’ हैं, जो स्वयं भगवान के प्रेम का विस्तार हैं। राधा कृपा से ही कृष्ण प्रेम मिलता है। बिना राधा के अनुग्रह के भगवान का रसास्वादन असंभव है। संत भगवान की जीवित कृपा हैं। उनका दर्शन और संग ही ईश्वर की अनुकंपा है। प्रेम में द्वैत समाप्त हो जाता है। जहाँ प्रेम है, वहाँ ‘मैं’ और ‘तुम’ का भेद मिट जाता है। भक्ति का सार है — समर्पण और एकत्व की अनुभूति।