Sunday, June 20, 2021

14 दुर्लभ उपदेश (Jagadguruttam Diwas Special) Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj Pravachan - Full Transcript Text

 



14 दुर्लभ उपदेश (Jagadguruttam Diwas Special) Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj Pravachan

 

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14 दुर्लभ उपदेश (Jagadguruttam Diwas Special) Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj Pravachan.mp4


 

0.04 रोज सोचो 2-3 मिनट निष्पक्ष होकर अकेले में भगवान को सामने बिठाकर

0.15 तुम जो चाहे छोड़ सकते हो,  प्रतिज्ञा कर लो,  आदमी हार जाता है अपने मन से, दो चार बार लड़ो तो सफलता मिले

0.31 अब मैं आपका एक एक शब्द सुनता हूँ, लगता है कोई अमृत झ रहा है, जितनी बार सुनता हूँ संसार भूल जाता हूँ

0.52  जिसका मन भगवान की शरण में चला जाता है, बस वोही विजयी होता है, सबसे बढ़िया दवा है कि मन को भगवान के चरणों में डालो, उनके चिंतन में लगाओ, वो बचायेंगे माया से

1.23 सात अरब लोगों में से सत करोड़ भी ऐसे नहीं है जिन पर भगवान की कृपा से उनहें कोई महापुरुष मिल जाए जो उन्हें बताए कि क्या करने से तुम्हारे दुःख मिट जाएंगे और परमानंद मिल जायेगा और जिन लोगों को ये सौभाग्य प्राप्त भी हुआ है यानी जान चूके हैं दुख निवृत्ति का मार्ग वो भी दुबारा 84,00,000 योनियों का हिसाब बिठा रहे हैं, क्यों : एक ही उत्तर है, लापरवाही

2.11 हमारे पास दो चीज़ है एक शरीर, एक आत्मा - जब हम जान गए की आत्मा का कल्याण ही असली कल्याण है शरीर को तो दो रोटी मिल जाये तो बस ठीक है, सब लोग अकेले में सोचे की शरीर के लिए हम 24 घंटे में से कितना समय देते हैं और आत्मा के लिए कितना समय देते हैं 24 घंटे में, रोज सोचो 2-3 मिनट निष्पक्ष होकर अकेले में भगवान को सामने बिठाकर, हम आत्मा के लिए कितना समय बचा सकते थे मगर नहीं बचाया, हमने कितना समय व्यर्थ की बातों में गंवाया, जितना शरीर के लिए कम से कम समय हम लगा सकें और बाकी समय आत्मा के कल्याण के लिए वो ही उचित है

4.33 हम प्रतिज्ञा कर लें कि मन को हम हर डालेंगे यदि मन ने आत्मा के कल्याण में अवरोध (opposition) किया तो

4.46 श्रवण ऐसा होना चाहिए की उसमें मन और बुद्धि संजोग से लगे एक एक शब्द पर, अभी एक सज्जन मिले थे मुझे, उन्होंने कहा अब मैं आपका एक एक शब्द सुनता हूँ, लगता है कोई अमृत झर रहा है, जितनी बार सुनता हूँ संसार भूल जाता हूँ

6.02 इसी प्रकार कीर्तन में भी मन और बुद्धि का संजोग हो, रूप ध्यान सामने हो

6.10 ये तीन भक्ति सबसे प्रमुख है : श्रवण कीर्तन और रूप स्मरण , नवधा (9 types) भक्ति में, मन भगवान ने सभी को एक सा दिया है भगवान में लगाने के लिए चाहे आंख कान मुँह किसी के पास ना भी हो

6.41 बिना मन के कोई आत्मा होती ही नहीं, इसलिए मन से स्मरण करो

6.48  मन सबसे बड़ा दुश्मन है जिसने बड़े बड़े योगियों को पछाड़ दिया है इसलिए सावधान रहो, ये ऐसे मिठास के साथ पकड़ता है

7.04 एक बार शराब पी लें, चुपके से, किसी को बताएंगे नहीं, एक बार और -  फिर शराब ने पकड़ लिया, बड़े बड़े पाप हम करते जाते हैं ऐसे ही, लोग प्रतिज्ञा नहीं करते मन को जीतने की, हमारे ही भाई तो बड़े बड़े महापुरुष बने हैं, तुम जो चाहे छोड़ सकते हो,  प्रतिज्ञा कर लो,  आदमी हार जाता है अपने मन से, दो चार बार लड़ो तो सफलता मिले - जीव मन को surrender कर जाता है इसीलिए 84,00,000 योनियों में घूम रहा है

9.13 इसीलिए कहा है मन को भगवान का निरंतर क्षण क्षण समरण करने के लिए

9.23 भगवान अपने आप को मोहित कर लेते हैं और अपनी भगवत्ता (Godliness grandeur) को लीन (hide) करा देते हैं, तब वो हम सब जीवों के साथ प्रेम कर सकते हैं

10.46 भगवान की सब शक्तियां छुप जाती है और भगवान हमारे बराबर के स्तर पर आ जाते हैं, इसी बात पर भक्त भगवान पर बलिहार जाता है कि हमारे लिए भगवान ने अपनी भगवत्ता छोड़ दी

11.19 यदि हम हरी गुरु को सदा अपने साथ मान लें तो फिर ना किसी साधना की आवश्यकता है और ना कुछ गडबड होगी, हम अपराध इसीलिए कर बैठते हैं जब हम मान लेते हैं की हम अकेले हैं हम यह भूल जाते हैं की हमारे पापा जी हमारे हृदय में बैठकर नोट कर रहें हैं, इसलिए केवल जानने से काम नहीं बनेगा, इसका अभ्यास करना होगा

11.56 मत करिए अभ्यास, फिर मरने के बाद 84,00,000 योनियों में घूमिए, चप्पल जूते खाईए

12.05  एक रोटी के टुकड़े के लिए कुत्ता बिल्ली गधे बनकर करोड़ों कल्प दुख भोगिये, फिर कभी मानव देह मिलेगा, फिर कोई कृपालु मिलेंगे, और फिर आप कहेंगे हाँ हम ये सब जानते हैं, मानेंगे नहीं,  शायद दुख भोगने का शौक है,  अनंत जनम बीत गए ये शौक अभी तक पूरा नहीं हुआ, पाप से पेट नहीं भरा

12.41  भगवान से भी चोरी और गुरु से भी चोरी, double अपराध, भगवान की भक्ति का अभ्यास करें तो ठीक है नहीं तो करोड़ो जगतगुरु मिले, हमारी जिद हमें 84,00,000 योनियों में घुमाएगी

13.12  और अगर हम अपनी गलती मान लेंगे और सुधरने का प्रयत्न करेंगे, हमें निरंतर समरण रखना पड़ेगा कि वो अंदर बैठे हैं, नोट कर रहे हैं हमारी प्रत्येक सोच

13.29 ये हम जो पाप कर्म का सोच रहे है हमें क्या मिलेगा, क्यों शौक सवार है दुख भोगने का, सहा नहीं जाएगा इतना दुख होगा, चीख चीख कर रोओगे,  कोई सुनने वाला नहीं होगा उस समय कृपालु या भगवान कुछ भी नहीं कर सकते

14.01 भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए दुर्वासा ऋषि के आगे, दुर्वासा ने अपनी गलती मानी, भगवान ने कहा "अहम भक्त पराधीन", लोग कहते है की मैं सबसे बड़ा हूँ सब का स्वामी हूँ, लेकिन practical में ये गलत है, मैं भक्त का दास हूँ,  और थोड़ी देर के लिए नहीं सदा के लिए

14.58 भगवान बोले मैं अपनी आत्मा से भी कोई आशा नहीं रखता, अपने भक्तों से आशा रखता हूँ, जो भक्त मुझ में शरणागत हो गए हैं, ऐसे भक्त को छोड़कर मैं किसकी सुनूंगा, किसकी दासता (service)  करूँगा, मेरे भक्त मेरा हृदय हैं और उनका हृदय मैं हूँ, मेरे अतिरिक्त वो कुछ नहीं जानते, मानते, चाहते

16.12 हनुमान जी दास्य भाव के भक्त हैं राम जी के, राम हनुमान को कहते हैं, मैं तुम्हारे एक उपकार के बदले में अपना प्राण भी दे दूँ, तो भी उऋण (debt free) नहीं होउँगा और तुम्हारी तो अनेक उपकार है मुझ पर, मैं तो सदा तुम्हारा ऋणी ही रहूंगा

16.55 भगवान ने गोपियों को भी यही कहा था कि देवताओं की उम्र पाकर भी, मैं तुमसे उऋण (debt free) नहीं हो सकता

 17.15 भगवान या महापुरुष गलत काम नहीं कर सकते, तो वो जो भी कर रहे हैं ठीक कर रहे हैं, तो फिर हम उनकी बात में टांग क्यों अड़ाते है इसका तात्पर्य ये हुआ कि महापुरुष भी बेवकूफ, भगवान भी बेवकूफ, और हमारा निष्कर्ष सही है, और तत्वज्ञान कहाँ चला गया, शरणागति कहाँ चली गयी

 17.53 गुरु और भगवान जो आज्ञा हमें दे रहे हैं हमारा उसी में कल्याण है, जहाँ हमने "क्यों" किया तो हो गया गलत, शरणागति के खिलाफ़ चला गया, "अनुकूलयेन कृष्णा अनुशीलनम"  (अनुकूलयेन = as per the desires of, अनुशीलनम = to follow with serious intent) ही सही शरणागति और भक्ति है

18.40 कृष्णा के दर्शन की कामना सकाम (to expect fruits of effort - this is contemptuous in pure devotion) नहीं है, कृष्णा को हमारी हर इंद्री (our senses) से चाहना सकाम नहीं है (बल्कि एकमात्र लक्ष्य है जीवन का), ये हमारी चाहत की परिकाष्टा (peak) है लेकिन केवल उनके सुख के लिए

 19.37 ये बड़ी बिमारी है हम में मांगने की, ये कि संसार में सुख है इस का भ्रम (illusion) हमारी बुद्धि में हैं, इसलिए हम भगवान की पूजा भी संसार मांगने के लिए करते हैं

19.55 ध्यान रहे की राम अपने पिता श्री दशरथ को भी नहीं बचा सके, अभिमन्यु को कोई नहीं बचा सका - ना उनके पिता अर्जुन ना उनके मामा कृष्ण, ना उनका ब्याह कराने वाले वेद व्यास (जो स्वयं भगवान के अवतार हैं), अभिमन्यु की 16 वर्ष की पत्नी उत्तरा विधवा हो गई  

20.32 और आप लोग मंदिरों में घूमते हैं कि भगवान हमारी सांसारिक इच्छा पूरी कर देंगे, हमारे मरते हुए पुत्र को जिंदा कर देंगे, प्रारब्ध (result / reaction of accumulated sins) भोगना पड़ेगा सभी को, भागवत प्राप्त संत को भी प्रारब्ध भोगना पड़ता है और सब की बात तो क्या करें, ये गोबर निकाल दो दिमाग से

21.07  भगवान से कुछ नहीं मांगना,  मर जाएंगे मांगेंगे नहीं कुछ, तब भगवान का सिर हिलता है कि इस भक्त पर तो कृपा करनी ही पड़ेगी

21.35  लोग अक्सर ऐसा समझते हैं भ्रम (illusion) या मिथ्या अहंकार (false ego) के कारण कि "हम सब समझ गए"

22.08 साधारण अवस्था में तो आप हर समय साधना कर ही नहीं सकते, आप और आपका मन थक जाता है, आप कहते हैं "बोर" (bore) हो गए

22.33 इसलिए वेद व्यास जी ने वेदान्त में एक सूत्र बना दिया कि "उपदेश को बार बार सुनो" (श्रोतव्य), मंतव्य - यानी उपदेश का बार बार मनन भी करो, अभी वर्तमान में तो समझ में आया मगर भविष्य में ये खो जाएगा

23.17 साधारण सी सांसारिक बातें आप भूल जाते हैं, कलयुग में स्मरण शक्ति बहुत कमजोर हो गई है, इसीलिए बार बार सुनना और मनन करना (repeat the same thought in mind), जब बार बार मनन होगा तभी दृढ़ होगा, तब practical होगा सदा

24.35 और क्योंकि हम तत्व ज्ञान को बार बार भूल जाते हैं, इसीलिए क्रोध, लोभ, अज्ञान,  मोह, काम, दूसरे को दुख देना वगैरह दोष बार बार सामने आते हैं

25.08 ये माया चली जाए इसके लिए कोई साधन नहीं होता, साधन यानी बल, बलवान को भगवान नहीं मिल सकते, भगवान साधन हीन (who has no dependence on physical means) को मिलते हैं

25.27 हमारा शरीर हमारा पैसा, हमारी post, ये सब बीमारियाँ हम ने पाल रखी हैं इन्हें हटा दें और कहें कि हम भगवान के नित्य दास है, ये सही बात को मान लेना चाहिए इसी से भगवान प्रसन्न होते हैं

25.52 हम लोग कामी हैं, क्रोधी हैं, लोभी हैं, मोही हैं, सब अवगुण है हम में जब तक भगवान प्राप्ति नहीं होती,  इस बात को कम से कम भगवान के सामने तो हम स्वीकार कर लें   

26.50 करोड़ों murder कर डाले हनुमान जी ने, अर्जुन ने, मगर इन्हें पाप नहीं लगता, क्योंकि उनके कार्य भगवान ने कराए हैं

27.27 सेवा तो व्यक्ति के हैसियत के अनुसार होती है, एक जीव की क्या हैसियत है केवल भगवान की शरणागति के अलावा, जैसे एक छोटा बच्चा माँ के शरणागत रहता है, केवल उसके रोने मात्र से माँ समझ जाती है कि बच्चे को क्या चाहिए

28.42 भगवान तो सब की सेवा करते हैं,  मगर हम ही लोगों में भरे पड़े हैं शिशुपाल जैसे लोग मा ऐम, भगवान को गाली देने वाले, यदि मंदिर जाने के बाद भी हमारी संसार की कामना पूरी न हो तो भगवान पर हम दोष लगाते हैं, लेकिन भगवान गुस्सा नहीं करते

29.28  रावण को भी भगवान कहते हैं मेरी पृथ्वी पर चल, पानी पी, वायु में सांस ले, तू पाप कर रहा है, मगर अभी नहीं मृत्यु के बाद दंड मिलेगा, भगवान तो नास्तिकों की भी सेवा करते हैं अपना बच्चा समझकर

30.05 भगवान का रूप ध्यान प्राण है, और बाकी सब साधनाएं केवल शरीर हैं, यदि प्राण निकल गया तो शरीर केवल मिट्टी है, ऐसे ही अगर भगवान का रूप ध्यान नहीं किया, केवल संसार का ध्यान किया, यदि आप भगवान का ध्यान नहीं करोगे तो संसार का ध्यान अपने आप ही होगा, होगा, पूरे विश्व में इसे कोई challenge नहीं कर सकता कि हम भगवान का भी ध्यान नहीं करेंगे, और संसार का भी नहीं करेंगे,

30.55 मन एक क्षण को भी चुप नहीं बैठ सकता, अगर भगवान में मन नहीं लगाया तो संसार में गया, तेजी से गया, ले जाना नहीं पड़ेगा, अपने आप जाएगा

31.08 जैसे एक मिट्टी का ढेला हो हाथ में पकड़े हुए, ज्यों ही छोड़ोगे तो मिट्टी अपने आप नीचे धरती पर गिर जाएगी

31.20 मन माया से बना है और संसार भी माया से बनी है,  इसलिए मन को संसार अपने आप खींच लेता है, चतुराई (smartness) उसी में है कि मन को भगवान में लगाते रहो, मन लगेगा नहीं, लगाना पड़ेगा

31.38 ये जो आप बोल देते हैं मन नहीं लगता भगवान में, बार बार बार बार मन को लगाओ भगवान में, तो लगने लगेगा, जैसे बार बार चाय पियो तो चाय में मन लग जाएगा, शराब में मन लग गया, सिगरेट (cigarette) में मन लग गया, पैदा होते ही किसी ने नहीं कहा शराब लाओ

32.03 इसी प्रकार भगवान में बार बार मन लगाओ तो फिर लगने लगेगा, फिर तो ऐसा मन लग जाएगा भगवान में कि सूरदास challenge करते है भगवान को कि "हमारे हृदय से निकल के दिखाओ तो मैं आपको मर्द मानूँ",  नहीं निकलते भगवान मन से, लेकिन पहले तो मन को  लगाना पड़ेगा

32.36 इसलिए साधना करो मगर पहले रूप ध्यान से शुरू करके

32.54 भक्ति का अर्थ यही है कि भगवान को सुख देना, उनकी इच्छा में इच्छा रखना, स्वयं को भले ही कष्ट मिले

33.30 "आज्ञा सम न सु साहिब सेवा" (there is no higher seva / service than obedience to Him / His or His guru's  sayings), गुरु जी को सुख मिल रहा है कि आप "राधे राधे" कर रहे हो  

34.0 एक शुद्ध भक्त भगवान को कहता है की मुझे केवल आपकी निष्काम भक्ति ही दीजिए, और कुछ नहीं दीजिये अगर आप देना ही चाहते हैं, वरना तो मांगना ही गलत है, निष्काम भक्ति भी मत मांगिये, भगवान तो सर्वज्ञ है उनसे मांगने की आवश्यकता ही क्या है

34.17  जो हमारे लिए सुंदर होगा वहीं भगवान हमें देंगे, बिना मांगे सबसे बढ़िया चीज़ मिलती है, यदि मांगोगे तो जो मांगोगे वो मिल जायेगा और कुछ नहीं मिलेगा, जैसी आपने मांगा कि  पृथ्वी के राजा बन जाओ तो बन जाओगे मगर मोक्ष नहीं मिलेगा, भक्ति नहीं मिलेगी   

34.49 भगवान तो जो आप मांगोगे, दे देंगे, मगर भक्ति बहुत ऊंची चीज़ है वो आसानी से नहीं देते क्योंकि उसमें भगवान को खुद गुलामी करनी पड़ती है भक्त की

34.57 कोई दास अपने स्वामी को कहे कि वो आपका जो almirah है जिसमे सारा भंडार भरा है, उसकी चाबी दे दो, तो दास ने तो बहुत ऊंची ची़ज मांग ली, ऐसे ही भगवान के लिए भगवान की भक्ति ही सबसे ऊंची चीज़ है

35.11 अर्जुन भगवान से कह रहे है कि मन बहुत चंचल है

35.28 भगवान ने admit  किया की निस्संदेह मन बहुत चंचल है

36.06 मन सबसे बलवान और दुर्जय दुश्मन है, ये किसी के वश में नहीं आता, योगी लोग भी इंद्रियों पर नियंत्रण कर लेते हैं मगर मन पर नहीं

36.35 जिसका मन भगवान की शरण में चला जाता है बस वही मन पर विजय पा सकता है, तो सबसे बढ़िया दवा है की मन को भगवान के चरणों में डालो, उनके चिंतन में लगाओ, वो बचाएंगे माया से

37.0 "अरे मन क्षण क्षण सुमीरण कर" श्री कृष्ण का

Saturday, June 19, 2021

उधार ना करो - Shri Kripaluji Maharaj Pravachan Pravachan in hindi Motivational Speech - Full Transcript Text

 



उधार ना करो - Shri Kripaluji Maharaj Pravachan || Pravachan in hindi || Motivational Speech ||

 

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उधार ना करो - Shri Kripaluji Maharaj Pravachan Pravachan in hindi Motivational Speech.mp4

 

0.08 वेदव्यासजी ने कहा कि युवावस्था में ही शुरू कर दो भगवान की भक्ति, ताकि युवावस्था के नशे में नहीं पढ़ो और संभल जाओ

0.41 युवावस्था का नशा इतना भयानक होता है की जान रहा है की मैं जा रहा हूँ गड्ढे में लेकिन जो होगा देखा जाएगा

2.33 वेदों में कहा गया है कि हे मनुष्यो, कल का उधार मत करो, हम सब लोगों में अनादि काल से यही दोष है कि परमार्थ के कार्य को उधार कर लेते हैं

3.01 हम कहते हैं "अरे पहले ये संसार का (गोबर गणेश का, नश्वर जगत का) जरूरी काम करो, परमार्थ का काम तो होता रहेगा"

3.28 पहली बात तो मनुष्य का जनम बड़े पुन्य और भागवत कृपा से मिलता है

3.40 दूसरी बात, तत्व ज्ञान कराने वाला कोई सही गुरु मिल जाये, ये और भी दुर्लभ है, ढूंढने में तो हम fail हो जाएंगे और इतना समय भी नहीं है कि संसार में ढूँढने जायें

4.12 और यदि सही गुरु मिल भी गए तो ये और भी दुर्लभ कि उन पर विश्वास हो

4.22 संत को हम अनंत बार मिल चुके पहले जन्मों में, लेकिन कोई जचा नहीं हमारी बुद्धि की कसौटी पर, जैसे शादी ब्याह में कहते है न की लड़का जचा नहीं, लड़की जची नहीं

4.57 एक बालक abcd पढ़ने वाला यदि professor का निर्णय पहले ही कर लेगा, फिर पढ़ाई शुरू करेगा, उसे तो परिभाषा भी नहीं मालूम कि संत कहते किसे हैं, अक्सर हम उसी को सही गुरु मान बैठते हैं जिसके यहाँ बड़ा आडंबर हो, बड़ी भीड़ हो, ऐसे ही हम वकीलों की, डॉक्टरों की पहचान करने के लिए यही पैमाना लगाते हैं

6.13 संसार में पाखंडी गुरुओं की कमी नहीं है, बच्चा चाहिए - आओ,  धन चाहिये - आओ,  हम तुम को तावीज़ बांध देंगे वगैरह

6.44 पाखंड का प्रचार भी बहुत तेज़ होता है, खासकर "सकाम" गुरुओं का, संसारी वस्तु देने का ढोंग रच ले कोई बाबा, बस भीड़ इकट्ठा हो जाएगी क्योंकि सब उसी के भूखे हैं

7.35  बड़ी भगवत्कृपा हो तो यह तीन चीज़े मिलती है 1. मानव देह 2. भगवान की प्यास और ये प्यास कैसे जगेगी, जब theory का ज्ञान होगा, जब वास्तविक संत से समझेंगे कि तुम कौन हो, तुम्हें क्या चाहिए, वो (भगवान) कैसे मिलेगा, तब होश में आता है मनुष्य, अरे मेरा शरीर इतना important है और मैंने बर्बाद कर दिया उसे, और क्या कमाल किया हमने - BA किया, MA किया IAS बने, Collector, Commissioner, Governor बने, लाख, करोड़, अरब इकट्ठा किया, शादी करी, बच्चे करे, दो चार महल इकट्ठे करे, फिर क्या हुआ, मर गए    

9.03 और ये संसार का समान तो यही रह गया मगर जो पाप किया ये सब इकट्ठा करने में, वो साथ में चला गया मरने के बाद, अब चलो बच्चू 84,00,000 योनियों में घूमो

9.20  तुम्हे कोई महात्मा मिले थे, हाँ मिले तो थे मगर "हमारे पास "time" नहीं था, क्या करें, तमाम फ़ोन करने पड़ते हैं इधर उधर करोड़ों का धंधा है"

9.51 हम लोग नासमझी से सब कुछ मिल भी जाये तब भी सब खो देते हैं

10.10 बड़ी भगवत्कृपा हो तो यह तीन चीज़े मिलती है 1. मानव देह 2. भगवान की प्यास 3. महापुरुष. मगर "बिन हरि कृपा, मिले नहीं संता" और "पुण्य पुंज (a very big collection of pious deeds) बिन, मिले नहीं संता". महापुरुष का मिलना सबसे दुर्लभ

10.29 और ये तीनों दुर्लभ चीजें मिल भी गई हो किसी को तो "कल से शुरू करेंगे भजन", अभी थोड़ा संसार का जरूरी काम है retire होने के बाद तो दिन रात यही करेंगे, मगर जब retire हुए तो फिर service ढूंढ रहे हैं

11.45 और बहुत कहा तो बोल देते हैं "करेंगे", और फिर खबर मिलती है की वो तो "चल बसे"

12.09 इसलिए वेद कहते है कि कल का उधार मत करो

12.20  प्रहलाद ने कहा था अरे मनुष्यो, बचपन से ही शुरू कर देना, भगवान की भक्ति, ताकि युवावस्था का नशा होता है ना, उसमें संभले रहो, तैयार रहो

13.19 और क्या पता युवावस्था आये ही नहीं, रोज़ तो हम देखते ही है की वो पैदा होते ही चल बसा, वो देखो IAS होके आ रहा था accident हुआ और मर गया, इसलिए हम कैसे challenge कर सकते हैं कि हमें ऐसा नहीं होगा, क्या तुम सृष्टि से अलग हो

14.50 मृत्यु का मामला ऐसा है की यहाँ सब फेल हो जाते हैं ऋषि मुनि महापुरुष सब, शंकराचार्य चले गए 32 साल की उम्र में

15.41 भगवान का कानून सबके लिए एक है

15.47 अभिमन्यु, गीता ज्ञानी अर्जुन के बेटे, धोखा देकर मारा गया मगर फिर भी उनके सगे मामा श्रीकृष्ण भगवान नें नहीं बचाया

16.12 और आज कल हम लोग 100 देखकर पंडित को मिलाकर मृतुंजय पाठ कराते हैं कि मेरा बेटा serious है मरने ना पाए, ऐसे भोले भाले लोग हैं भगवान को 100 में खरीद लो

16.45 भगवान भी नहीं काटते है प्रारब्ध को अपने पिताश्री दशरथ को नहीं बचाया  राम  ने

17.0 इसलिए वेद व्यास कहते हैं कि युवावस्था होते ही लग जाओ भगवान की भक्ति में क्योंकि युवावस्था का नशा इतना भयानक होता है की जान रहा है की मैं जा रहा हूँ गड्ढे में लेकिन जो होगा देखा जाएगा, और या तो मर जाते हैं या फिर होश में आते हैं बुढ़ापे में जब खूब attachment हो गया, बेटा बेटी नाता नाती पोता पोती के संसार में, चलो अब बुढ़ापे में तो थोड़ी भक्ति कर लो मगर ताकि मानव देह तो मिल सके दोबारा, मगर उसके लिए भी time नहीं है

18.05 कुर्सी पर पैर फैलाकर novel पढ़ रहे हैं, time pass कर रहें हैं, बच्चे नाती पोतों को गोद में लेकर लल्ला लल्ला कर रहे हैं यानी मर जाये तो छुट्टी हो, ये मानव शरीर जो मिला है ऐसे किसी प्रकार इसे खत्म कर दें, ये  हम लोगो का plan है, ये मूल्यांकन किया हमने अपने शरीर का

18.49 इसलिए कॉल (time) का उधार मत करो, हर समय होशियार रहो, क्योंकि मृत्यु के समय जहाँ मन रहेगा वही "गती" (type of species - which योनि) मिलेगी

19.05 अपने मन को पूरी तरह से हरि गुरु में लगाए रहो, वरना कल्पों तक मानव देह नहीं मिलेगा, 84,00,000 योनियों में घूमना पड़ेगा, वो दुख सहा नहीं जाएगा, जंगल में जानवर - ना खाने का ठिकाना, ना पीने का, उसका दुश्मन उसे खा जाने के लिए ढूंढ रहा है, कौन सी police है उन बेचारों के लिए, ये सब कुछ भोग चुके हैं हम लोग अनन्त बार, अब फिर यही सब भोगने का उपाय कर रहे हैं लापरवाही से, नशे में, अभी तो हम...  

Friday, June 18, 2021

This 30 min speech is extremely important, listen to this whenever you are free - Kripaluji Maharaj - Full Transcript Text


This 30 min speech is extremely important, listen to this whenever you are free - Kripaluji Maharaj

 

https://www.youtube.com/watch?v=JVdS-oX_GWA



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0.04 ये आधे घंटे की speech बहुत important है, so share among all to the maximum for welfare of all & must listen to this frequently

 

0.20 हमारे शास्त्र कहते हैं कि उपदेश, philosophy को बार बार सुनना चाहिए, तब वो खोपड़ी में पक्का बैठती है फिर practical होता है

0.36 ये अहंकार हो जाए की समझ गए, समझ गए से बात नहीं बनती

0.48 जैसे बच्चे कहते है ना history, geography बड़ी बेवफा, रात भर रटो, सवेरे सफा, ऐसी ही बुद्धि है हम लोगों की कलयुग में

1.35 मन से हरि गुरु का ध्यान और वाणी से भगवान के नाम, रूप, लीला, धाम का गान, संकीर्तन ये साधना है

2.09 प्रमुख है मन

2.15 मैंने बहुत बार आपको समझाया है की मन ही मोह और बंधन का कारण है, many shlokas of vedas quoted with verse numbers. 

4.04 ये सब शास्त्र वेद कह रहे हैं कि मन ही "कर्ता / करता" है, कर्म का करता केवल मन है

4.22 वैसे आप सबको भ्रम रहता है की आंख ने देखा है, कान ने सुना है, नासिका (नाक) ने सूंघा है, रसना (tongue, जीभ) ने चखा है, त्वचा (skin) ने स्पर्श किया है

4.44 लेकिन इन को कर्म नहीं कहते

4.53 कर्म कहते हैं जहाँ पर मन को सुख मिले, जहां मन का attachment / लगाव हो

5.09 आपने किसी को मारा नहीं लेकिन मारने का plan बनाया, इसका मतलब की आपने मारने का कर्म किया और भगवान ने नोट कर लिया

5.24 आप कहेंगे अजी मैंने तो किसी को झापड़ भी नहीं मारा, सही है की नहीं मारा इंद्रियों से, लेकिन मन से तो सोचा था न, हाँ मन से तो कई बार सोचा

5.40 मेरे boss ने मुझे डांटा, मेरा मन किया के एक झापड़ लगाऊँ, मगर लगाऊंगा तो निकाल देगा नौकरी से, बहुत बार अपने माँ बाप के लिए ऐसा सोचा औरों के लिए तो क्या कहें

6.03 भगवान कहते है की मन ही कर्म का करता है, भगवान केवल इन्द्रियों से किया हुआ काम नोट नहीं करते

6.18 इंद्रियों से करोड़ों murder किया अर्जुन ने, हनुमान जी ने, ओर इन सब murders की गवाही भी बहुत है, मगर भगवान ने नोट नहीं किया क्योंकि वो कर्म ही नहीं है जो केवल इंद्रियों से हो, अर्जुन और हनुमान जी के मन में तो भगवान थे

6.54 भगवान ने अर्जुन को कहा मन मुझ में रख "सर्वेषु कॉलेषु" (all the time)

7.44 इसलिए बिना मन के केवल इंद्रियों से किया हुए कार्य को भगवान कर्म नहीं मानते और उसका फल भी नहीं देते

7.43 मगर 99% लोग केवल इंद्रियों से ही भगवान की पूजा करते हैं केवल हाथ से चंदन चढ़ा रहे हैं, केवल मुँह से भगवान का नाम ले रहे हैं, मगर उस मूर्ति में भगवान बैठे हैं ये दृढ़ संकल्प नहीं है मन में, तो फिर ये acting है, पूजा नहीं है, कोई फल नहीं मिलेगा खाली time बर्बाद कर रहे हो, खाली physical drill कर रहे हो, इसे कहते हैं शारीरिक व्यायाम

8.55 पहली मूर्ति में भगवान की भावना हो जाए, उसके बाद जो तुम चाहे कुछ भी करो या कुछ ना करो, मन से ही चंदन चढ़ा दो, मन से ही नहला दो, मन से ही भोग लगा दो, मन से हीरो की माला पहना दो, ये सब स्वीकार करेंगे भगवान और सब नोट करेंगे "आपने मेरी पूजा की, मैं बहुत खुश हूँ"

9.31 आप यहाँ कीर्तन करते हैं मगर कितने लोग सही दृढ़ विश्वास रखते हैं कि नाम में ही भगवान बैठे हैं 

9.58 अगर हम समझ लें कि ये अंगूठी 10 की है, और यदि समझ लें कि ये 1,00,00,000 की है तो तो उस अंगूठी के लिए आपकी दृष्टि में कितना भेद होगा

10.15 इसी प्रकार यदि आप भगवान का नाम लें, ये विचार के साथ कि भगवान अपने नाम में ही बैठे हुए हैं - ये भगवान ने स्वयं कहा है

11.05 गौरांग चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि "हे श्रीकृष्ण, आपने अपने नाम में ही अपनी सब शक्ति भर दी है लेकिन मैं कितना अभागा हूँ कि विश्वास नहीं करता" और साथ में आपने इतनी भी रियायत की किसी भी समय लो, कहीं भी लो, मैखाने में लो, पाखाने में लो, घोर गंदगी में लो

11.45 भगवान कहते है की मेरे नाम में मैं हूँ और यदि गंदगी में आप मेरा नाम लोगे तो गंदगी शुद्ध हो जाएगी

12.11 कोई अपवित्र हो, या पवित्र हो या किसी भी अवस्था में हो, मेरा नाम ले सकता है कितनी बड़ी रियायत

12.33 जो श्रीकृष्ण का स्मरण करे तो उसके अंदर और बाहर की शुद्धि मान ले जाती है

12.48 अब इससे बड़ी कृपा और क्या होगी कि नाम में वो स्वयं बैठे हैं और कोई नियम नहीं -  और चीजों में बड़े बड़े नियम है यदि यज्ञ करना हो, योग करना हो

13.11 लेकिन प्रेम में कोई नेम (नियम) नहीं, "जहाँ नेम नहीं प्रेम तहाँ, जहाँ प्रेम नहीं नेम" (wherever there are no rules & regulationsto be followed, there exists love & vice versa)

13.28 "चाखा चाहे प्रेम रस, राखा चाहे नेम" (you want to taste pure love & still want to keep rules & regulations - these are not possible together as these two - love versus rules & regulations - are contradictory)

13.42 मन का "विचार / सोच" ही कर्म है - ये बात याद कर लो, रट लो, हर समय याद रखो

13.56 जैसे अपने आप को, स्वयं को, हमेशा याद रखते हो - मैं हूँ, जो मैं कल था वही मैं आज भी हूँ

14.13 कोई proof नहीं कि ये मेरा बाप है, फिर भी हमें दृढ़ संकल्प है की यही मेरा बाप है - कोई proof है क्या, नहीं मगर सब ने कहा है ऐसा इसलिए मैंने मान लिया, मगर लोग तो झूठ बोलते हैं न, ये भी मालूम है

15.15 जब संत, महापुरुष, शास्त्र वेद सब कह रहे हैं कि भगवान हैं, तो भगवान में विश्वास नहीं है, doubt है

15.23 कितनी बार कृपालु जी ने कहा कि पहले रूप ध्यान करो फिर भगवान का नाम लो, और ये मानकर नाम लो कि भगवान के नाम में भगवान स्वयं बैठे हैं, मगर हम फिर भूल जाते हैं

15.50 मन से किया हुआ विचार, सोच ही कर्म है इसलिए चाहे भगवान की भक्ति हो, चाहे संसार की भक्ति हो, दोनों का संबंध केवल मन से ही है

16.13 संसार में राग (attachment) है - किसका है, मन का

16.27 भगवान ने ध्रुव को कहा, राज्य करो, व्यवहार करो, बच्चे पैदा करो

16.38 भगवान ने प्रहलाद को कहा, राज्य करो, गृहस्थ में रहो, For AS MANY AS 33 crore 67 lakh 20 thousand years, ये भगवान ने आज्ञा दी, ध्रुव और प्रहलाद नहीं चाह रहे थे

17.04 भगवान मिल जाने के बाद, उन का आनंद मिल जाने के बाद कौन चाहेगा गोबर गणेश संसार को,  मगर भगवान की आज्ञा थी इसलिए मानना था

17.25  श्रीराम सुग्रीव को कह रहे हैं राज्य करो, विभीषण को कह रहे हैं राज्य करो, ये हमारी आज्ञा है

17.46 मगर हम लोगो को ये सब विश्वास नहीं होता है की ध्रुव और प्रहलाद को भगवान मिले - क्योंकि इतने वर्ष राज किया संसार पर इन्होंने, ये विश्वास नहीं होता

18.10 ये चार उँगली की खोपड़ी है हमारी ये हर जगह चल जाती है,  महापुरुषों पर भी भगवान पर भी, हम सब एंठते (we pride ourselves in) है कि हम कोई मामूली अक्लमंद हैं क्या

18.34 भगवान का रूप ध्यान करना ये हमारा प्रथम (number one) कर्म है, इसे चाहे ज्ञान कहो, कर्म कहो, भक्ति कहो, प्रपत्ति (surrender) कहो - यही सब कुछ है

18.53 उपासना - उप: यानी नजदीक / पास और आसना: जाना या बैठना - उपासना का मतलब भगवान के पास जाना, भगवान के पास कौन जाए - शरीर नहीं, मन जाए, मन को ले जाना है भगवान के पास

19.15 वैराग्य यानी संसार से मन हटाना, संसार रहे अपनी जगह, संसार क्या बिगाड़ लेगा हमारा, केवल मन हट जाए संसार से  

20.05 ये संभव है कि सब विषयों का ग्रहण करते हुए भी मन सबसे अलग है, रसगुल्ला खा रहा है मगर स्वाद रसगुल्ले का नहीं, प्रेमानंद का आ रहा है मन को -उसका मन भगवान में है नित्य

20.43 एक बार भगवान की प्राप्ति हो जाने के बाद,  प्रभु प्रेम में मन लग जाने के बाद, यही मन भगवान के आनंद से पृथक (separate) हो ही नहीं सकता -विश्व की कोई भी शक्ति ऐसा नहीं कर सकती, भगवान खुद भी चाहें तो भी नहीं

21.06 एक गोपी यमुना किनारे ध्यान कर रही थी, नारदजी आए और पूछा कि श्रीकृष्ण का ध्यान कर रही हो ? गोपी ने उत्तर दिया: नहीं,  श्रीकृष्ण से ध्यान हटाने का प्रयास कर रही हूँ मगर मन हटता ही नहीं

22.11 बड़े बड़े योगेंद्र मुनींद्र, संसार से मन हटा कर समाधि में ध्यान लगाते हुए, एक क्षण के लिए श्याम सुन्दर की झलक चाहते हैं मगर नहीं पाते

22.40 और ये गोपी भगवान से मन हटाकर, संसार में लगाना चाहती है मगर नहीं लगा पाती

23.03 आप लोगों को यदि चीनी की चाय मिले तो गुड़ की चाय कौन पीना चाहेगा जबकि दोनों एक ही चीज़ है

23.15 तो एक वि (संसार) और एक अमृत (भगवान), भला कौन विष पीना चाहेगा जो अमृत पीने वाला हो

23.29  एक बार परमानंद मिल जाने के बाद फिर वो छिनता नहीं, सदा के लिए मिल जाता है,  क्योंकि उस पर माया का अधिकार नहीं हो, यदि माया का अधिक अधिकार हो जाए तो छिन जाए

23.51  लेकिन जैसे अंधकार का प्रकाश पर अधिकार कभी नहीं हो सकता ऐसे ही माया का अधिकार भगवान पर कभी नहीं हो सकता, इसी तरह परमानन्द पर दुख का अधिकार कभी नहीं हो सकता

24.16 तो भगवान का रूप ध्यान करना है, मन से, साथ में इंद्रियों को भी लगा दो, ठीक है, भगवान ने ही तो इन्द्रियां दी हैं, उन्हें भी लगादो भगवान में, तो अच्छा है - तो इन्द्रियां संसार की तरफ नहीं जाएंगीं, वो मन को disturb नहीं करेंगीं

24.53 यदि भगवान में मन लग गया तो इन्द्रियां कुछ नहीं कर पाएंगीं, ये आंख जो देखती है वास्तव में तभी देख पाती है जब मन भी इसके साथ हो

25.35 साधना की अवस्था में यदि इन्द्रियां भी लगी रहे भगवान में तो अच्छा है, नहीं तो आप अकेले में साधना कर रहे हैं तो नींद आ जाती है, क्योंकि बहुत बिगड़ा हुआ मन है, शुरुआती पहले दर्जे में ऐसा होता है   

25.54 और यदि भगवान की लीला का ध्यान करके गुणगान करें, तो मन को सामान मिल गया कई तरह का लगने के लिए, ये जान लो कि मन केवल एक ही चीज़ में नहीं लगता, "bore" हो जाता है

26.16 मन का बस चले तो अपने माँ बाप, बीवी बच्चों को रोज़ बदलता रहे, अपना मुँह नाक कान बदलता रहे रोज़

27.06 मुख्य तो मन को लगाना है भगवान में, इन्द्रियां भी लगी रहे हैं तो अच्छा है

27.22 भगवान से ना तो संसार मांगो ना मोक्ष मांगो, केवल तीन चीज़ मांगो: दर्शन, दिव्य प्रेम और सेवा, दिव्य प्रेम अंतःकरण शुद्धि के बाद मिलता है, भगवान दिव्य प्रेम के आधीन रहते हैं और सेवा उसी प्रेम से मिलती / होती है

28.06 दर्शन इसलिए कि यदि हम दर्शन की कामना बनाएंगे तो व्याकुलता पैदा होगी उनसे मिलने की, और फिर अश्रुपात (tears would roll) होगा जिससे अंतःकरण जल्दी शुद्ध होगा

28.23 दर्शन, दिव्य प्रेम और सेवा की कामना से भगवान का रूप ध्यान करना चाहिए

28.37 भगवान का कौन सा रूप ध्यान हो, ये भगवान ने आप की इच्छा पर छोड़ दिया - देखिये भगवान की कृपा का कितना अंबार है, "तुम जैसा चाहो, रूप बना लो हम (भगवान कह रहे हैं) उसको असली मान लेंगे"

29.28 मन से भगवान के रूप ध्यान के लिए जो उनकी उमर पसंद हो वो बना लो, जो कपड़े पसंद हो वैसे कपड़े पहना दो, जो जेवर पहनाने हो वो पहना दो, जैसा खाना खिलाना हो वैसा खिला दो, सब भगवान ने आप की इच्छा पर छोड़ दिया

29.52 भगवान को थोड़ा सा पत्रम (leaf), पुष्पम (flower), फलम (fruit), तोयम (water) भी दे दो तो प्रसन्न हो जाते हैं

30.20 तो इस तरह से भगवान की भक्ति करने से अंतःकरण की शुद्धि होगी, उसके बाद आपका काम नहीं है, गुरु और भगवान अपना अनुग्रह करेंगे

 

30.54 ये आधे घंटे की speech बहुत important है, so share among all to the maximum for welfare of all & must listen to this frequently  हमारे शास्त्र कहते हैं कि उपदेश, philosophy को बार बार सुनना चाहिए, तब वो खोपड़ी में पक्का बैठती है फिर practical होता है, ये अहंकार हो जाए की समझ गए, समझ गए से बात नहीं बनती, जैसे बच्चे कहते है ना history, geography बड़ी बेवफा, रात भर रटो सवेरे सफा, ऐसी ही बुद्धि है हम लोगों की कलयुग में

 

32.40 इस कलयुग में बहुत मंदबुद्धि लोग होते हैं, जल्दी से कुछ उपदेश समझ में नहीं आता है और समझ में आ भी जाए तो जल्दी से विस्मरण (forget) हो जाता है