Sunday, June 13, 2021

Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj | Pravachan | Part 14 - Full Transcript Text

 



Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj | Pravachan | Part 14

https://www.youtube.com/watch?v=1b_4j6QZHAM

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Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj Pravachan Part 14.mp4


0.0 दो ही मार्ग हैं, 1. DIVINE GODLY  श्रेय / पर धर्म / स्वाभाविक धर्म / दिव्य धर्म / गुणातीत धर्म    और    2. WORLDLY: एक प्रेय / अपर धर्म / परिवर्तनीय धर्म / मायिक धर्म / त्रिगुण धर्म  - These are all different names for 2 types of धर्म (our duty / responsibility to be followed by human beings) 

0.49 भावार्थ क्या: धर्म यानी जो धारण करने योग्य है, आत्मा का धर्म है भगवान की प्राप्ति करना, ये "श्रेय" (Best) धर्म है

1.09 शरीर का धर्म, प्रेय धर्म है - शरीर के धारण करने योग्य भोजन, वायू, जल, आकाश, अग्नि - शरीर को सवस्थ रखने के लिए - इसमें वर्तमान में सुख मिलता है मगर भविष्य में दुख ही दुख  

1.39 श्रेय धर्म में पहले कष्ट है, साधना करनी पड़ती है, और बाद में परमानंद सदा के लिए

1.50 जो बुद्धिमान (wise) है वो श्रेय धर्म को अपनाता है

1.55 और जो भोला भाला अल्पज्ञ (poor intellect) प्रेय धर्म को अपनाता है कि केवल वर्तमान में सुख मिले, भविष्य में जो होगा, देखा जाएगा - बस 84,00,000 योनियों में घूमेंगे, ऐसे लोग मानव देह की महत्त्व (importance) समझते ही नहीं

2.56 मानव देह तो देवताओं को भी दुर्लभ है और फिर महापुरुष (guru) भी मिल जाए, सोने में सुहागा

3.27: "मनु" और आगे उनके वंशज बताएं हैं 

3.45 उनमें से एक थे भरत जिन पर भारतवर्ष का नाम पड़ा

4.35  प्रश्न:  दुख निवृत्ति (removal) और सदा के लिए आलौकिक (divine, out of this world) सुख मिलना कैसे होगा

5.50  लोग पूछते हैं कि हम को "माया" क्यों लगी

5.58 इसका उत्तर है कि भगवान से विमुख (ignoring Lord) होने पर माया लगती है

6.07 हम भगवान से विमुख क्यों हुए, जीव आदि काल से भगवान से विमुख है इसलिए माया ने जीव को मोहित कर लिया है, जकड़ लिया है, जीव का असली स्वरूप भुला दिया है

6.44 मैं आत्मा हूँ, मैं भगवान का नित्य दास हूँ, ये हमारा वास्तविक असली स्वरूप है, हम अपने को देह मानने लगे, हम पुरुष हैं, स्त्री हैं, पंजाबी हैं, बंगाली हैं, ब्राह्मण हैं, क्षत्रिय हैं, अनेक बीमारियां पाल ली हमने

7.10 जबकि वास्तव में हम ये सब कुछ नहीं है क्योंकि अनन्त जनम हमारे ऐसे ही बीत चुके, हम अनन्त बार कुत्ते, बिल्ली, गधे बन चुके हैं

7.28 ये तो हमारा शरीर है क्षण भंगुर,  4 दिन के बाद समाप्त हो जाएगा, फिर दूसरा शरीर मिलेगा

7.39 श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा जैसे कपड़ा पुराना हो जाता है उसे बदल देते हैं लोग, ऐसे ही मरने के बाद आत्मा शरीर बदलती है

8.11 तो "पर" (श्रेय (Best) धर्म क्या है - श्रीकृष्ण की भक्ति

8.38 हमने सदा से अपने को देह माना, इसलिए देह के नातेदारों को अपना नातेदार माना - भगवान को अपना नातेदार नहीं माना

8.48 केवल मुँह से भगवान को बोलते हैं "त्वमेव माता च पिता त्वमेव", त्वमेव माने "तुम ही" हमारी माता हो, पिता हो, बंधु हो, सखा हो

9.01 भगवान से सफेद झूठ बोलते हैं हम, क्या तुम्हारे घर में माँ बैठी है उसको भी तुम माँ बोलते हो, तो फिर भगवान "ही" केवल माता कैसे हुए, तो ये भगवान से झूठ  बोलना ही हुआ

9.45 इसका इलाज क्या है, भगवत विमुख होने से माया लगी हुई है, भगवत विमुखता (ignoring Lord) का इलाज, भगवत सनमुखता (surrender to Lord) है 

10.22 जीव और परमात्मा दोनों इकट्ठे रहते हैं, हृदय में रहते हैं, जीव कर्म करता है और परमात्मा नोट करते हैं (as a witness)

10.42 परमात्मा कह रहे हैं जीव से कि तुम मेरी तरफ मुड़ जाओ हो संसार से हटकर, तो बस सब झंझट खत्म, माया भागी, त्रिगुण (सतो, रजो, तमो), त्रिकर्म, त्रिदोष, पंच क्लेश सब गए, और सदा को प्रेमानंद मिल जाएगा  

11.10 : भगवत विमुखता (ignoring Lord) का इलाज, भगवत सनमुखता (surrender to Lord) - जिस कारण से रोग हुआ है उस कारण का निवारण (cure) होना चाहिए, तब रोग चला जायेगा

11.48: केवल एक श्रीकृष्ण और गुरु की भक्ति हो, उसमें ज्ञान, कर्म, तपस्या, वर्णाश्रम धर्म वगैरह का mixture ना हो,

12.23 गुरु को आत्मा से भी अधिक प्रिय मानो, गुरु की शरण में रहकर कृष्ण भक्ति करो

12.37 भक्ति यानी भगवान का श्रोतव्य (सुनना), कीर्तन (singing glories of Lord), स्मरण (remembrance of Lord)

13.07 संसार में जब गुंडे लोग कुछ लूटतें हैं दुकानों को, तो कितना जल्दी करते हैं कि police नहीं आ जाए, ऐसे ही ये मानव देह मिला है यह जीवन में हमें भागवत नाम की कमाई करनी चाहिए जल्दी जल्दी - क्योंकि हमारे पास भी मानव देह का समय बहुत सीमित है

13.27 मगर हम लापरवाही कर देते हैं, कीर्तन कर रहे हैं मगर स्मरण नहीं कर रहे भगवान का और स्मरण ही मुख्य भक्ति है, केवल नाम लेना भगवान का, बिना उनके स्मरण के, काफी नहीं है, क्योंकि भगवान के नाम तो आपने बहुत लोगों के भी रखे हूएं हैं  

14.49 और भगवान के स्मरण में कोई शर्त भी नहीं है कि हमें पहले से मालूम होना चाहिए की भगवान कैसे दिखते हैं

14.59 श्रीकृष्ण के अनन्त नाम हैं, अनन्त रूप हैं - यानी आपको जो भी मन को भाए जैसा अच्छा लगे, रख लो, बना लो

15.15 यशोदा ने या ग्वाल बालों ने कभी कृष्ण नहीं कहा / बोला, ए "कनुआ", इधर आ,  मैय्या कह रही है "लाला" इधर आना  

16.04 भगवान तो मन का भाव देखते हैं किस भाव से उन्हें पुकारा जा रहा है, कितना surrender है, भगवान हमारी बाहर की क्रिया नहीं देखते अंतःकरण की निर्मलता (purified status) देखते हैं    

16.25 तो हमें केवल तीन तरह की भक्ति करनी है यानी भगवान का श्रोतव्य (सुनना), कीर्तन (singing glories of Lord), स्मरण (remembrance of Lord), लेकिन लापरवाही नहीं करनी

16.32 ये शरीर बड़ा क्षण भंगुर है, क्या पता अगला ही पल जीवन का लिखा है या नहीं

16.51 एक बार युधिष्ठिर महाराज से एक ब्राह्मण सोना मांगने आया कि लड़की की शादी है, युधिष्ठिर ने कहा कल आना, अभी तो मैं व्यस्त हूँ, भीम साथ में खड़े थे उन्हें बहुत बुरा लगा, भीम ने युधिष्ठिर से पूछा क्या आपने "काल" (समय) को जीत लिया है ? यानी आप अमर हैं ?, तो युधिष्ठिर को अपनी गलती realise हुई इस और उन्होंने ब्राह्मण को तुरंत बुला कर सोना दिया

18.40 भगवान के कार्य में 1. "उधार" नहीं करना चाहिए कल करेंगे, परसों करेंगे, बुढ़ापे में करेंगे  2. लापरवाही नहीं करना

18.53 लोग अक्सर कहते हैं भक्ति कर लेंगे, अभी क्या है अभी तो हम केवल 50 साल के हैं, जब 60 वर्ष के हो जाएंगे तब कर लेंगे, 60 वर्ष के होने पर बोलते हैं 70 के होंगे तो कर लेंगे

19.21 कुछ लोग कहते हैं अरे भाई बैठते तो है भक्ति के लिए रोज़, भाई बैठते तो हो मगर लापरवाही करते हैं रूप ध्यान नहीं करते, अपने को अधम (sinful), पतित (downtrodden), गुनहगार (violator of Lord's laws) नहीं मानते, आँसू नहीं आते, ये लापरवाही है, धिक्कारो अपने आप को, किस बात का अभिमान है तुमको, ना बुद्धि में बृहस्पति (guru of devtas), न एषवर्ग (splendor / grandeur) में इंद्र (Lord Indra) हो, ना सम्मान (honor) में गणेश हो, आखिर तुमको किस बात का अहंकार है, क्या है तुम्हारे पास