This 30 min speech is extremely important, listen to this whenever you are free - Kripaluji Maharaj
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0.04 ये आधे घंटे की speech बहुत important है, so share among all to the maximum for welfare of all & must listen to this frequently
0.20 हमारे शास्त्र कहते हैं कि उपदेश, philosophy को बार बार सुनना चाहिए, तब वो खोपड़ी में पक्का बैठती है फिर practical होता है
0.36 ये अहंकार हो जाए की समझ गए, समझ गए से बात नहीं बनती
0.48 जैसे बच्चे कहते है ना history, geography बड़ी बेवफा, रात भर रटो, सवेरे सफा, ऐसी ही बुद्धि है हम लोगों की कलयुग में
1.35 मन से हरि गुरु का ध्यान और वाणी से भगवान के नाम, रूप, लीला, धाम का गान, संकीर्तन ये साधना है
2.09 प्रमुख है मन
2.15 मैंने बहुत बार आपको समझाया है की मन ही मोह और बंधन का कारण है, many shlokas of vedas quoted with verse numbers.
4.04 ये सब शास्त्र वेद कह रहे हैं कि मन ही "कर्ता / करता" है, कर्म का करता केवल मन है
4.22 वैसे आप सबको भ्रम रहता है की आंख ने देखा है, कान ने सुना है, नासिका (नाक) ने सूंघा है, रसना (tongue, जीभ) ने चखा है, त्वचा (skin) ने स्पर्श किया है
4.44 लेकिन इन को कर्म नहीं कहते
4.53 कर्म कहते हैं जहाँ पर मन को सुख मिले, जहां मन का attachment / लगाव हो
5.09 आपने किसी को मारा नहीं लेकिन मारने का plan बनाया, इसका मतलब की आपने मारने का कर्म किया और भगवान ने नोट कर लिया
5.24 आप कहेंगे अजी मैंने तो किसी को झापड़ भी नहीं मारा, सही है की नहीं मारा इंद्रियों से, लेकिन मन से तो सोचा था न, हाँ मन से तो कई बार सोचा
5.40 मेरे boss ने मुझे डांटा, मेरा मन किया के एक झापड़ लगाऊँ, मगर लगाऊंगा तो निकाल देगा नौकरी से, बहुत बार अपने माँ बाप के लिए ऐसा सोचा औरों के लिए तो क्या कहें
6.03 भगवान कहते है की मन ही कर्म का करता है, भगवान केवल इन्द्रियों से किया हुआ काम नोट नहीं करते
6.18 इंद्रियों से करोड़ों murder किया अर्जुन ने, हनुमान जी ने, ओर इन सब murders की गवाही भी बहुत है, मगर भगवान ने नोट नहीं किया क्योंकि वो कर्म ही नहीं है जो केवल इंद्रियों से हो, अर्जुन और हनुमान जी के मन में तो भगवान थे
6.54 भगवान ने अर्जुन को कहा मन मुझ में रख "सर्वेषु कॉलेषु" (all the time)
7.44 इसलिए बिना मन के केवल इंद्रियों से किया हुए कार्य को भगवान कर्म नहीं मानते और उसका फल भी नहीं देते
7.43 मगर 99% लोग केवल इंद्रियों से ही भगवान की पूजा करते हैं केवल हाथ से चंदन चढ़ा रहे हैं, केवल मुँह से भगवान का नाम ले रहे हैं, मगर उस मूर्ति में भगवान बैठे हैं ये दृढ़ संकल्प नहीं है मन में, तो फिर ये acting है, पूजा नहीं है, कोई फल नहीं मिलेगा खाली time बर्बाद कर रहे हो, खाली physical drill कर रहे हो, इसे कहते हैं शारीरिक व्यायाम
8.55 पहली मूर्ति में भगवान की भावना हो जाए, उसके बाद जो तुम चाहे कुछ भी करो या कुछ ना करो, मन से ही चंदन चढ़ा दो, मन से ही नहला दो, मन से ही भोग लगा दो, मन से हीरो की माला पहना दो, ये सब स्वीकार करेंगे भगवान और सब नोट करेंगे "आपने मेरी पूजा की, मैं बहुत खुश हूँ"
9.31 आप यहाँ कीर्तन करते हैं मगर कितने लोग सही दृढ़ विश्वास रखते हैं कि नाम में ही भगवान बैठे हैं
9.58 अगर हम समझ लें कि ये अंगूठी ₹10 की है, और यदि समझ लें कि ये ₹1,00,00,000 की है तो तो उस अंगूठी के लिए आपकी दृष्टि में कितना भेद होगा
10.15 इसी प्रकार यदि आप भगवान का नाम लें, ये विचार के साथ कि भगवान अपने नाम में ही बैठे हुए हैं - ये भगवान ने स्वयं कहा है
11.05 गौरांग चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि "हे श्रीकृष्ण, आपने अपने नाम में ही अपनी सब शक्ति भर दी है लेकिन मैं कितना अभागा हूँ कि विश्वास नहीं करता" और साथ में आपने इतनी भी रियायत की किसी भी समय लो, कहीं भी लो, मैखाने में लो, पाखाने में लो, घोर गंदगी में लो
11.45 भगवान कहते है की मेरे नाम में मैं हूँ और यदि गंदगी में आप मेरा नाम लोगे तो गंदगी शुद्ध हो जाएगी
12.11 कोई अपवित्र हो, या पवित्र हो या किसी भी अवस्था में हो, मेरा नाम ले सकता है कितनी बड़ी रियायत
12.33 जो श्रीकृष्ण का स्मरण करे तो उसके अंदर और बाहर की शुद्धि मान ले जाती है
12.48 अब इससे बड़ी कृपा और क्या होगी कि नाम में वो स्वयं बैठे हैं और कोई नियम नहीं - और चीजों में बड़े बड़े नियम है यदि यज्ञ करना हो, योग करना हो
13.11 लेकिन प्रेम में कोई नेम (नियम) नहीं, "जहाँ नेम नहीं प्रेम तहाँ, जहाँ प्रेम नहीं नेम" (wherever there are no rules & regulationsto be followed, there exists love & vice versa)
13.28 "चाखा चाहे प्रेम रस, राखा चाहे नेम" (you want to taste pure love & still want to keep rules & regulations - these are not possible together as these two - love versus rules & regulations - are contradictory)
13.42 मन का "विचार / सोच" ही कर्म है - ये बात याद कर लो, रट लो, हर समय याद रखो
13.56 जैसे अपने आप को, स्वयं को, हमेशा याद रखते हो - मैं हूँ, जो मैं कल था वही मैं आज भी हूँ
14.13 कोई proof नहीं कि ये मेरा बाप है, फिर भी हमें दृढ़ संकल्प है की यही मेरा बाप है - कोई proof है क्या, नहीं मगर सब ने कहा है ऐसा इसलिए मैंने मान लिया, मगर लोग तो झूठ बोलते हैं न, ये भी मालूम है
15.15 जब संत, महापुरुष, शास्त्र वेद सब कह रहे हैं कि भगवान हैं, तो भगवान में विश्वास नहीं है, doubt है
15.23 कितनी बार कृपालु जी ने कहा कि पहले रूप ध्यान करो फिर भगवान का नाम लो, और ये मानकर नाम लो कि भगवान के नाम में भगवान स्वयं बैठे हैं, मगर हम फिर भूल जाते हैं
15.50 मन से किया हुआ विचार, सोच ही कर्म है इसलिए चाहे भगवान की भक्ति हो, चाहे संसार की भक्ति हो, दोनों का संबंध केवल मन से ही है
16.13 संसार में राग (attachment) है - किसका है, मन का
16.27 भगवान ने ध्रुव को कहा, राज्य करो, व्यवहार करो, बच्चे पैदा करो
16.38 भगवान ने प्रहलाद को कहा, राज्य करो, गृहस्थ में रहो, For AS MANY AS 33 crore 67 lakh 20 thousand years, ये भगवान ने आज्ञा दी, ध्रुव और प्रहलाद नहीं चाह रहे थे
17.04 भगवान मिल जाने के बाद, उन का आनंद मिल जाने के बाद कौन चाहेगा गोबर गणेश संसार को, मगर भगवान की आज्ञा थी इसलिए मानना था
17.25 श्रीराम सुग्रीव को कह रहे हैं राज्य करो, विभीषण को कह रहे हैं राज्य करो, ये हमारी आज्ञा है
17.46 मगर हम लोगो को ये सब विश्वास नहीं होता है की ध्रुव और प्रहलाद को भगवान मिले - क्योंकि इतने वर्ष राज किया संसार पर इन्होंने, ये विश्वास नहीं होता
18.10 ये चार उँगली की खोपड़ी है हमारी ये हर जगह चल जाती है, महापुरुषों पर भी भगवान पर भी, हम सब एंठते (we pride ourselves in) है कि हम कोई मामूली अक्लमंद हैं क्या
18.34 भगवान का रूप ध्यान करना ये हमारा प्रथम (number one) कर्म है, इसे चाहे ज्ञान कहो, कर्म कहो, भक्ति कहो, प्रपत्ति (surrender) कहो - यही सब कुछ है
18.53 उपासना - उप: यानी नजदीक / पास और आसना: जाना या बैठना - उपासना का मतलब भगवान के पास जाना, भगवान के पास कौन जाए - शरीर नहीं, मन जाए, मन को ले जाना है भगवान के पास
19.15 वैराग्य यानी संसार से मन हटाना, संसार रहे अपनी जगह, संसार क्या बिगाड़ लेगा हमारा, केवल मन हट जाए संसार से
20.05 ये संभव है कि सब विषयों का ग्रहण करते हुए भी मन सबसे अलग है, रसगुल्ला खा रहा है मगर स्वाद रसगुल्ले का नहीं, प्रेमानंद का आ रहा है मन को -उसका मन भगवान में है नित्य
20.43 एक बार भगवान की प्राप्ति हो जाने के बाद, प्रभु प्रेम में मन लग जाने के बाद, यही मन भगवान के आनंद से पृथक (separate) हो ही नहीं सकता -विश्व की कोई भी शक्ति ऐसा नहीं कर सकती, भगवान खुद भी चाहें तो भी नहीं
21.06 एक गोपी यमुना किनारे ध्यान कर रही थी, नारदजी आए और पूछा कि श्रीकृष्ण का ध्यान कर रही हो ? गोपी ने उत्तर दिया: नहीं, श्रीकृष्ण से ध्यान हटाने का प्रयास कर रही हूँ मगर मन हटता ही नहीं
22.11 बड़े बड़े योगेंद्र मुनींद्र, संसार से मन हटा कर समाधि में ध्यान लगाते हुए, एक क्षण के लिए श्याम सुन्दर की झलक चाहते हैं मगर नहीं पाते
22.40 और ये गोपी भगवान से मन हटाकर, संसार में लगाना चाहती है मगर नहीं लगा पाती
23.03 आप लोगों को यदि चीनी की चाय मिले तो गुड़ की चाय कौन पीना चाहेगा जबकि दोनों एक ही चीज़ है
23.15 तो एक विष (संसार) और एक अमृत (भगवान), भला कौन विष पीना चाहेगा जो अमृत पीने वाला हो
23.29 एक बार परमानंद मिल जाने के बाद फिर वो छिनता नहीं, सदा के लिए मिल जाता है, क्योंकि उस पर माया का अधिकार नहीं हो, यदि माया का अधिक अधिकार हो जाए तो छिन जाए
23.51 लेकिन जैसे अंधकार का प्रकाश पर अधिकार कभी नहीं हो सकता ऐसे ही माया का अधिकार भगवान पर कभी नहीं हो सकता, इसी तरह परमानन्द पर दुख का अधिकार कभी नहीं हो सकता
24.16 तो भगवान का रूप ध्यान करना है, मन से, साथ में इंद्रियों को भी लगा दो, ठीक है, भगवान ने ही तो इन्द्रियां दी हैं, उन्हें भी लगादो भगवान में, तो अच्छा है - तो इन्द्रियां संसार की तरफ नहीं जाएंगीं, वो मन को disturb नहीं करेंगीं
24.53 यदि भगवान में मन लग गया तो इन्द्रियां कुछ नहीं कर पाएंगीं, ये आंख जो देखती है वास्तव में तभी देख पाती है जब मन भी इसके साथ हो
25.35 साधना की अवस्था में यदि इन्द्रियां भी लगी रहे भगवान में तो अच्छा है, नहीं तो आप अकेले में साधना कर रहे हैं तो नींद आ जाती है, क्योंकि बहुत बिगड़ा हुआ मन है, शुरुआती पहले दर्जे में ऐसा होता है
25.54 और यदि भगवान की लीला का ध्यान करके गुणगान करें, तो मन को सामान मिल गया कई तरह का लगने के लिए, ये जान लो कि मन केवल एक ही चीज़ में नहीं लगता, "bore" हो जाता है
26.16 मन का बस चले तो अपने माँ बाप, बीवी बच्चों को रोज़ बदलता रहे, अपना मुँह नाक कान बदलता रहे रोज़
27.06 मुख्य तो मन को लगाना है भगवान में, इन्द्रियां भी लगी रहे हैं तो अच्छा है
27.22 भगवान से ना तो संसार मांगो ना मोक्ष मांगो, केवल तीन चीज़ मांगो: दर्शन, दिव्य प्रेम और सेवा, दिव्य प्रेम अंतःकरण शुद्धि के बाद मिलता है, भगवान दिव्य प्रेम के आधीन रहते हैं और सेवा उसी प्रेम से मिलती / होती है
28.06 दर्शन इसलिए कि यदि हम दर्शन की कामना बनाएंगे तो व्याकुलता पैदा होगी उनसे मिलने की, और फिर अश्रुपात (tears would roll) होगा जिससे अंतःकरण जल्दी शुद्ध होगा
28.23 दर्शन, दिव्य प्रेम और सेवा की कामना से भगवान का रूप ध्यान करना चाहिए
28.37 भगवान का कौन सा रूप ध्यान हो, ये भगवान ने आप की इच्छा पर छोड़ दिया - देखिये भगवान की कृपा का कितना अंबार है, "तुम जैसा चाहो, रूप बना लो हम (भगवान कह रहे हैं) उसको असली मान लेंगे"
29.28 मन से भगवान के रूप ध्यान के लिए जो उनकी उमर पसंद हो वो बना लो, जो कपड़े पसंद हो वैसे कपड़े पहना दो, जो जेवर पहनाने हो वो पहना दो, जैसा खाना खिलाना हो वैसा खिला दो, सब भगवान ने आप की इच्छा पर छोड़ दिया
29.52 भगवान को थोड़ा सा पत्रम (leaf), पुष्पम (flower), फलम (fruit), तोयम (water) भी दे दो तो प्रसन्न हो जाते हैं
30.20 तो इस तरह से भगवान की भक्ति करने से अंतःकरण की शुद्धि होगी, उसके बाद आपका काम नहीं है, गुरु और भगवान अपना अनुग्रह करेंगे
30.54 ये आधे घंटे की speech बहुत important है, so share among all to the maximum for welfare of all & must listen to this frequently हमारे शास्त्र कहते हैं कि उपदेश, philosophy को बार बार सुनना चाहिए, तब वो खोपड़ी में पक्का बैठती है फिर practical होता है, ये अहंकार हो जाए की समझ गए, समझ गए से बात नहीं बनती, जैसे बच्चे कहते है ना history, geography बड़ी बेवफा, रात भर रटो सवेरे सफा, ऐसी ही बुद्धि है हम लोगों की कलयुग में
32.40 इस कलयुग में बहुत मंदबुद्धि लोग होते हैं, जल्दी से कुछ उपदेश समझ में नहीं आता है और समझ में आ भी जाए तो जल्दी से विस्मरण (forget) हो जाता है