श्री धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री जी(बागेश्वर धाम) और पूज्य महाराज Premanand ji जी के बीच क्या वार्तालाप हुई ?
[ ] within bracket is the time stamp of video https://www.youtube.com/watch?v=fiLT1IYGGCU 1. महाराज जी, श्री धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री जी को भगवान का पार्षद बताते हैं, जिसका कार्य मायाजाल में फंसे जीवों को मुक्त करना है [00:52 - 01:06]। 2. वे कहते हैं कि भगवत नाम और गुणों की गर्जना करने से माया तुरंत भाग जाती है, क्योंकि इसमें अपार सामर्थ्य है [01:15 - 01:23]। 3. माया से पार होने के लिए ज्ञान-विज्ञान नहीं, बल्कि भगवान के नाम, गुण, लीला और धाम का आश्रय आवश्यक है [01:31 - 01:54]। 4. माया भगवान की दासी है, जो भक्तों को मार्ग दे देती है, लेकिन अहंकार (अहम्) होते ही प्रश्नवाचक चिन्ह लगा देती है [02:01 - 02:08]। 5. वे भगवान का यश सुनाकर जीवों को मुक्त करते हैं, क्योंकि भगवत यश श्रवण मात्र से ही भगवत प्राप्ति हो जाती है [02:15 - 02:25]। 6. इसका प्रमाण धुंधकारी और ब्राह्मण पत्नियों का उदाहरण है, जिन्हें केवल कथा के अनुराग से ही लाभ मिला [02:36 - 02:47]। 7. जिनको कान से कथा सुनने और जिह्वा से नाम जपने का अवसर मिल गया, वे तुरंत माया पर विजय प्राप्त कर लेते हैं [02:56 - 03:02]। 8. महाराज जी चेतावनी देते हैं कि साधना का अहंकार ('मैं त्यागी हूँ', 'मैं मौनी हूँ') भगवत प्राप्ति में बाधक होता है [03:02 - 03:11]। 9. जो 'मैं' का शमन करके भगवान का दासत्व करता है और स्वयं को नीच समझता है, भगवान उसे महान बनाते हैं [03:18 - 03:26]। 10. वे आशीर्वाद देते हैं कि स्वस्थ शरीर और स्वस्थ बुद्धि के साथ डंके की चोट से नाम-गुणगान करो। 11. जिसका बल रखवार रमापति (भगवान) हैं, उसकी सीमा को कोई छू नहीं सकता और उसे कोई परास्त नहीं कर सकता [03:51 - 04:01]। 12. भक्तों का अपना मंगल तो उनके भगवान के संबंध से हो चुका है, अब केवल जो भगवान के संबंध को भूले हैं, उन्हें जागृत करना है [04:08 - 04:14]। 13. सनातन धर्म स्वयंभू है—यह ब्रह्म, वायु और सूर्य की तरह है, किसी व्यक्ति द्वारा स्थापित नहीं किया गया [05:40 - 05:48]। 14. सनातन धर्म में जोड़ने की यह भावना स्वयं भगवान द्वारा प्रकट की हुई होती है, ताकि भूले हुए प्राणी परम प्रीति में स्थित हों [06:03 - 06:10]। 15. धीरेंद्र शास्त्री जी महाराज जी की बीमारी को महापुरुषों की लीला बताते हैं, जिसका उद्देश्य केवल भगवान की सेवा और भक्तों के दर्शन है [06:49 - 07:05]। 16. कार्य में सावधानी रखने के प्रश्न पर महाराज जी समझाते हैं कि भक्त तो बेपरवाही से चलने वाला बच्चा है, उसकी सुरक्षा (सावधानी) स्वयं माता-पिता (भगवान) करते हैं [08:26 - 08:35]। 17. भक्त का बल उसकी साधना या ज्ञान नहीं, बल्कि केवल प्रिया-प्रीतम का बल है, अतः उन्मत्त होकर उनके चिंतन में चलना चाहिए [09:24 - 09:31]। 18. भक्त के सामने आने वाली प्रतिकूलताएँ उसे परिपक्व करने के लिए आती हैं, जिन्हें वह कृपा प्रसाद मानकर अनुकूलता में बदल देता है [09:59 - 10:14]। 19. महाराज जी अपनी किडनी फेल होने की घटना का उदाहरण देते हैं, जिससे उन्हें साधना का अहंकार नष्ट होने पर वास्तविक शरणागति का बोध हुआ [10:42 - 11:02]। 20. भगवान के भक्त को हिम्मत रखनी पड़ती है—संकट की तलवार भी आकर गले का हार बन जाती है, बस भरोसा दृढ़ होना चाहिए [13:37 - 13:57]।