Sunday, June 13, 2021

Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj | Pravachan | Part 14 - Full Transcript Text

 



Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj | Pravachan | Part 14

https://www.youtube.com/watch?v=1b_4j6QZHAM

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Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj Pravachan Part 14.mp4


0.0 दो ही मार्ग हैं, 1. DIVINE GODLY  श्रेय / पर धर्म / स्वाभाविक धर्म / दिव्य धर्म / गुणातीत धर्म    और    2. WORLDLY: एक प्रेय / अपर धर्म / परिवर्तनीय धर्म / मायिक धर्म / त्रिगुण धर्म  - These are all different names for 2 types of धर्म (our duty / responsibility to be followed by human beings) 

0.49 भावार्थ क्या: धर्म यानी जो धारण करने योग्य है, आत्मा का धर्म है भगवान की प्राप्ति करना, ये "श्रेय" (Best) धर्म है

1.09 शरीर का धर्म, प्रेय धर्म है - शरीर के धारण करने योग्य भोजन, वायू, जल, आकाश, अग्नि - शरीर को सवस्थ रखने के लिए - इसमें वर्तमान में सुख मिलता है मगर भविष्य में दुख ही दुख  

1.39 श्रेय धर्म में पहले कष्ट है, साधना करनी पड़ती है, और बाद में परमानंद सदा के लिए

1.50 जो बुद्धिमान (wise) है वो श्रेय धर्म को अपनाता है

1.55 और जो भोला भाला अल्पज्ञ (poor intellect) प्रेय धर्म को अपनाता है कि केवल वर्तमान में सुख मिले, भविष्य में जो होगा, देखा जाएगा - बस 84,00,000 योनियों में घूमेंगे, ऐसे लोग मानव देह की महत्त्व (importance) समझते ही नहीं

2.56 मानव देह तो देवताओं को भी दुर्लभ है और फिर महापुरुष (guru) भी मिल जाए, सोने में सुहागा

3.27: "मनु" और आगे उनके वंशज बताएं हैं 

3.45 उनमें से एक थे भरत जिन पर भारतवर्ष का नाम पड़ा

4.35  प्रश्न:  दुख निवृत्ति (removal) और सदा के लिए आलौकिक (divine, out of this world) सुख मिलना कैसे होगा

5.50  लोग पूछते हैं कि हम को "माया" क्यों लगी

5.58 इसका उत्तर है कि भगवान से विमुख (ignoring Lord) होने पर माया लगती है

6.07 हम भगवान से विमुख क्यों हुए, जीव आदि काल से भगवान से विमुख है इसलिए माया ने जीव को मोहित कर लिया है, जकड़ लिया है, जीव का असली स्वरूप भुला दिया है

6.44 मैं आत्मा हूँ, मैं भगवान का नित्य दास हूँ, ये हमारा वास्तविक असली स्वरूप है, हम अपने को देह मानने लगे, हम पुरुष हैं, स्त्री हैं, पंजाबी हैं, बंगाली हैं, ब्राह्मण हैं, क्षत्रिय हैं, अनेक बीमारियां पाल ली हमने

7.10 जबकि वास्तव में हम ये सब कुछ नहीं है क्योंकि अनन्त जनम हमारे ऐसे ही बीत चुके, हम अनन्त बार कुत्ते, बिल्ली, गधे बन चुके हैं

7.28 ये तो हमारा शरीर है क्षण भंगुर,  4 दिन के बाद समाप्त हो जाएगा, फिर दूसरा शरीर मिलेगा

7.39 श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा जैसे कपड़ा पुराना हो जाता है उसे बदल देते हैं लोग, ऐसे ही मरने के बाद आत्मा शरीर बदलती है

8.11 तो "पर" (श्रेय (Best) धर्म क्या है - श्रीकृष्ण की भक्ति

8.38 हमने सदा से अपने को देह माना, इसलिए देह के नातेदारों को अपना नातेदार माना - भगवान को अपना नातेदार नहीं माना

8.48 केवल मुँह से भगवान को बोलते हैं "त्वमेव माता च पिता त्वमेव", त्वमेव माने "तुम ही" हमारी माता हो, पिता हो, बंधु हो, सखा हो

9.01 भगवान से सफेद झूठ बोलते हैं हम, क्या तुम्हारे घर में माँ बैठी है उसको भी तुम माँ बोलते हो, तो फिर भगवान "ही" केवल माता कैसे हुए, तो ये भगवान से झूठ  बोलना ही हुआ

9.45 इसका इलाज क्या है, भगवत विमुख होने से माया लगी हुई है, भगवत विमुखता (ignoring Lord) का इलाज, भगवत सनमुखता (surrender to Lord) है 

10.22 जीव और परमात्मा दोनों इकट्ठे रहते हैं, हृदय में रहते हैं, जीव कर्म करता है और परमात्मा नोट करते हैं (as a witness)

10.42 परमात्मा कह रहे हैं जीव से कि तुम मेरी तरफ मुड़ जाओ हो संसार से हटकर, तो बस सब झंझट खत्म, माया भागी, त्रिगुण (सतो, रजो, तमो), त्रिकर्म, त्रिदोष, पंच क्लेश सब गए, और सदा को प्रेमानंद मिल जाएगा  

11.10 : भगवत विमुखता (ignoring Lord) का इलाज, भगवत सनमुखता (surrender to Lord) - जिस कारण से रोग हुआ है उस कारण का निवारण (cure) होना चाहिए, तब रोग चला जायेगा

11.48: केवल एक श्रीकृष्ण और गुरु की भक्ति हो, उसमें ज्ञान, कर्म, तपस्या, वर्णाश्रम धर्म वगैरह का mixture ना हो,

12.23 गुरु को आत्मा से भी अधिक प्रिय मानो, गुरु की शरण में रहकर कृष्ण भक्ति करो

12.37 भक्ति यानी भगवान का श्रोतव्य (सुनना), कीर्तन (singing glories of Lord), स्मरण (remembrance of Lord)

13.07 संसार में जब गुंडे लोग कुछ लूटतें हैं दुकानों को, तो कितना जल्दी करते हैं कि police नहीं आ जाए, ऐसे ही ये मानव देह मिला है यह जीवन में हमें भागवत नाम की कमाई करनी चाहिए जल्दी जल्दी - क्योंकि हमारे पास भी मानव देह का समय बहुत सीमित है

13.27 मगर हम लापरवाही कर देते हैं, कीर्तन कर रहे हैं मगर स्मरण नहीं कर रहे भगवान का और स्मरण ही मुख्य भक्ति है, केवल नाम लेना भगवान का, बिना उनके स्मरण के, काफी नहीं है, क्योंकि भगवान के नाम तो आपने बहुत लोगों के भी रखे हूएं हैं  

14.49 और भगवान के स्मरण में कोई शर्त भी नहीं है कि हमें पहले से मालूम होना चाहिए की भगवान कैसे दिखते हैं

14.59 श्रीकृष्ण के अनन्त नाम हैं, अनन्त रूप हैं - यानी आपको जो भी मन को भाए जैसा अच्छा लगे, रख लो, बना लो

15.15 यशोदा ने या ग्वाल बालों ने कभी कृष्ण नहीं कहा / बोला, ए "कनुआ", इधर आ,  मैय्या कह रही है "लाला" इधर आना  

16.04 भगवान तो मन का भाव देखते हैं किस भाव से उन्हें पुकारा जा रहा है, कितना surrender है, भगवान हमारी बाहर की क्रिया नहीं देखते अंतःकरण की निर्मलता (purified status) देखते हैं    

16.25 तो हमें केवल तीन तरह की भक्ति करनी है यानी भगवान का श्रोतव्य (सुनना), कीर्तन (singing glories of Lord), स्मरण (remembrance of Lord), लेकिन लापरवाही नहीं करनी

16.32 ये शरीर बड़ा क्षण भंगुर है, क्या पता अगला ही पल जीवन का लिखा है या नहीं

16.51 एक बार युधिष्ठिर महाराज से एक ब्राह्मण सोना मांगने आया कि लड़की की शादी है, युधिष्ठिर ने कहा कल आना, अभी तो मैं व्यस्त हूँ, भीम साथ में खड़े थे उन्हें बहुत बुरा लगा, भीम ने युधिष्ठिर से पूछा क्या आपने "काल" (समय) को जीत लिया है ? यानी आप अमर हैं ?, तो युधिष्ठिर को अपनी गलती realise हुई इस और उन्होंने ब्राह्मण को तुरंत बुला कर सोना दिया

18.40 भगवान के कार्य में 1. "उधार" नहीं करना चाहिए कल करेंगे, परसों करेंगे, बुढ़ापे में करेंगे  2. लापरवाही नहीं करना

18.53 लोग अक्सर कहते हैं भक्ति कर लेंगे, अभी क्या है अभी तो हम केवल 50 साल के हैं, जब 60 वर्ष के हो जाएंगे तब कर लेंगे, 60 वर्ष के होने पर बोलते हैं 70 के होंगे तो कर लेंगे

19.21 कुछ लोग कहते हैं अरे भाई बैठते तो है भक्ति के लिए रोज़, भाई बैठते तो हो मगर लापरवाही करते हैं रूप ध्यान नहीं करते, अपने को अधम (sinful), पतित (downtrodden), गुनहगार (violator of Lord's laws) नहीं मानते, आँसू नहीं आते, ये लापरवाही है, धिक्कारो अपने आप को, किस बात का अभिमान है तुमको, ना बुद्धि में बृहस्पति (guru of devtas), न एषवर्ग (splendor / grandeur) में इंद्र (Lord Indra) हो, ना सम्मान (honor) में गणेश हो, आखिर तुमको किस बात का अहंकार है, क्या है तुम्हारे पास  


Saturday, June 12, 2021

Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj Pravachan Part 13 - Full Transcript Text

 



Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj | Pravachan | Part 13

https://www.youtube.com/watch?v=tUX0s7YAk1M

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Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj Pravachan Part 13.mp4

0.15 जिस पूतना ने अपने स्तन पर जहर लगाकर कृष्णा को मार डालने की कोशिश की, उसको भी ठाकुरजी ने अपना लोक दे दिया, ऐसा दयालु कौन होगा

1.16 सभी आत्माराम, परिपूर्ण, तृप्त परमहंस, सर्वत्र मैं को realise करने वाले भी बर्बस (as if under control of someone) भगवान कृष्ण का सौंदर्य (beauty), सौशिल्य (good natured), सौकुमार (forever young) से आकर्षित होकर ऊनकी आराधना करते हैं

3.07 चाहे कोई अकाम हो (निष्काम, who leaves fruits of action in Lord's hands), सकाम हो (who wants fruits of action) या मोक्ष की इच्छा रखता हो - सबके लिए तीन प्रकार की साधना श्रोतव्यं (listening to Lord's glories viz., of His form (रूप), name (नाम), qualities (गुण), activities (लीला) & abode (धाम)), कीर्तनम (singing of Lord's glories), स्मरणं (remembrance of Lord's glories) अनुशंसित (सिफारिश / recommended) बताई जाती हैं

6.12 जीवन मुक्त (liberated while living), मुक्त (liberated after death), साधक(aspirant) , सिद्ध (perfect) योगी, सब के लिए वही तीन साधना श्रोतव्यं, कीर्तनम, स्मरणं  बताई जाती हैं

6.58  इन तीन मार्गों - श्रोतव्यं, कीर्तनम, स्मरणं - के अलावा कोई और दूसरा मार्ग नहीं,  भगवान को पाने के लिए

7.24 ब्रह्मा जी ने तीन बार समस्त वेदों को मथा और निष्कर्ष निकालकर बताया कि केवल यही तीन मार्ग - श्रोतव्यं, कीर्तनम, स्मरणं -  मनुष्य के कल्याण का मार्ग है

8.29 ये तीन प्रकार की साधना - श्रोतव्यं, कीर्तनम, स्मरणं -  सर्वत्र (everywhere) और सर्वदा (all the time) करनी चाहिए, बहुत से लोग ये तीन साधना करते तो हैं मगर कुछ समय के लिए ; सर्वत्र सर्वदा नहीं करते , और बाकी समय संसार का श्रोतव्यं, कीर्तनम, स्मरणं ही करते रहते हैं

9.11 दो ही प्रकार के श्रोतव्यं हैं, दो ही प्रकार के कीर्तनम हैं, दो ही प्रकार के स्मरणं हैं - या तो संसार का या भगवान का

9.32 मान लीजिए एक घंटा भक्ति करी, कमाई करी और बाकी 23 घंटे लुटा दिए उस कमाई को, तो परिणाम में क्या मिलेगा

9.45 हमारा एक मन है उसे शुद्ध करना है, उसे आधा घंटा तो आपने धोया (यानी पवित्र किया भक्ति से) मगर बाकी के 23 1/2 घंटे गंदे पानी (संसार) से धोया, तो मन की गंदगी तो बढ़ेगी, अंतःकरण शुद्ध नहीं होगा और गंदा होता जाएगा

11.08 सदा और सर्वत्र तीनों साधना करनी है और कोई गंदी जगह नहीं होती जहाँ पर ये साधनाएं न कर सकते हों

11.24 जैसे आप अपने नजदीकी रिश्तेदारो से प्यार करते हो, हर समय हर जगह - ऐसे ही भगवान से प्यार करना है

11.45 तो इस प्रकार ये 3 साधना हैं और इनके लिए कोई नियम नहीं है कि कब करना है, कहाँ करना है, कैसे करना है, ओर इतनी सरल है और कोई परिश्रम नहीं

12.24 एक शुद्ध वस्तु, शुद्ध वस्तु को शुद्ध कर देती है मगर एक अशुद्ध वस्तु, शुद्ध वस्तु को अशुद्ध नहीं कर सकती, गंगा जी में हजारों गंदे नाले मिलते हैं मगर सब गंगा बन जाते हैं, गंगा जी गंदा नाला नहीं बन जाती

13.03 इसलिए घबराना नहीं की हम अशुद्ध है तो भगवान का स्मरण कैसे करें, अरे भगवान से ही तो हम शुद्ध होंगें

14.33 ये कलयुग है, इसमें सब मंदबुद्धि लोग हैं, छोटी सी उम्र है और घोर कुसंग का साम्राज्य है, ऐसे में मनुष्य के कल्याण का कोई सरल मार्ग क्या है

16.03 छ: (six) शास्त्र छ: अलग अलग तरह की बात करते हैं,  चार वेद अलग अलग ढंग की बात करते हैं, 18 पुराण अलग अलग बात करते हैं, अब कोई व्यक्ति किसको सही माने, और कोई यदि करोड़ वर्ष की उम्र पाकर भी, इन सब को याद भी कर लें तब भी पागल होने के अलावा कोई चारा नहीं

16.49 तो इस स्थिति में क्या करें ; उत्तर यह है कि महापुरुष के पास जाओ और उनसे समझो और बस केवल तीन साधना करते रहो - श्रोतव्यं, कीर्तनम, स्मरणं

17.55 सब का सार : श्री कृष्ण की भक्ति ही मनुष्य का "पर" धर्म है

18.34 दो ही मार्ग हैं, 1. DIVINE GODLY  श्रेय / पर धर्म / स्वाभाविक धर्म / दिव्य धर्म / गुणातीत धर्म    और    2. WORLDLY: एक प्रेय / अपर धर्म / परिवर्तनीय धर्म / मायिक (माया) धर्म / त्रिगुण धर्म  - These are all different names for same धर्म (our duty / responsibility to be followed by human beings) - 

CHOICE IS OURS - ONE PATH (DIVINE GODLY) LEADS TO ETERNAL BLISS FOREVER IN GODLY ABODE & OTHER (WORLDLY) KEEPS YOU TRAPPED IN THE CYCLE OF 84 LAKH YONIS - TO BE BORN, TO SUFFER ALL SORTS OF MISERIES & TO DIE

 

 

 


Friday, June 11, 2021

Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj Pravachan Part 12 - Full Transcript Text

 


Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj | Pravachan | Part 12

https://www.youtube.com/watch?v=ILfP-J-VH5M

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6.46  तीन तत्व है जो अनादिकाल से सनातन है: 1. क्षर ब्रह्म (माया, जड़ प्रकृति), 2. अक्षर ब्रह्म (जीव आत्मा), 3. प्रेरक (शासक, नियामक ब्रह्म) - परमात्मा  

8.22 उस परमात्मा में ध्यान करने से मन का मोह दूर हो जाता है और माया की निवृत्ति हो जाती है

9.18 हे मनुष्य, तुम्हें केवल ये तीन तत्वों का ज्ञान लेना है और कुछ जानना नहीं, जो जान रहे हो उसे भी भुला दो

9.33 तीन तत्व को ये भी बोलते हैं : एक भोक्ता (जीव आत्मा), एक भोग्य (माया) और एक प्रेरक (परमात्मा)    

9.58 वेदों में ये भी कहा गया है की केवल एक ही तत्व है तीन नहीं, ये कहना भी सही है क्योंकि माया और जीव आत्मा दोनों ही परमात्मा की शक्तियां हैं

10.55 श्रीकृष्ण की दो शक्तियां हैं एक परा (श्रेष्ठ, Best, जीव आत्मा) और एक अपरा (निकृष्ट, Inferior, जड़), इन दोनों शक्तियों का शक्तिमान भगवान हैं, शक्ति और शक्तिमान में भेद नहीं होता इसलिए एक तत्व कह सकते हैं

11.32 और वेदों का ये कहना कि जीवात्मा और परमात्मा दो अलग अलग हैं, ये भी सही है

11.48 माया, जीवात्मा, परमात्मा तीनों अज (अजन्मा हैं, unborn), अनादी (beginning-less) हैं, ये भी सही है

12.02 अब उस प्रेरक ब्रह्म, परमात्मा भगवान श्री कृष्ण को कैसे प्राप्त किया जाए

12.50 प्रश्न : मनुष्य का क्या कर्तव्य है किसका स्मरण करे दोनों, किसका भजन करे, क्या सुने, क्या सोचे

13.47 उत्तर: 1. भगवान का श्रोतव्य, श्रवण (सुनना) अर्थात उनकी लीला, गुण, धाम, रूप, नाम का श्रवण 2. भगवान का कीर्तन भजन 3. स्मरण

14.07 मनुष्य के केवल यही तीन कर्तव्य है चौथा कुछ नहीं, वैसे भक्ति तो 30 प्रकार की है

14.22 & 15.28: सुख देव जी ने परीक्षित को कहा : इनमें से केवल तीन प्रकार की भक्ति आप करो यानि श्रवण, कीर्तन, स्मरण, क्योंकि आपको जल्दी ही भागवत प्राप्ति करनी है आपको 7 दिन में ही मरना है

14.37 श्रोतव्य (सुनना) महापुरुष के द्वारा सुनो, किसी ऐसे वैसे से मत सुनना, नहीं तो व्यर्थ सुनने से मन में शंकाएं पैदा हो जाएगी आप नास्तिक बन जाओगे

15.47 भगवान का स्मरण प्रमुख है

18.16 यदि कृष्ण भक्ति नहीं करेंगे तो पतन हो जाएगा


Thursday, June 10, 2021

Roopdhyan - [Best guide for meditation] Jagadguru Shree Kripaluji Maharaj pravachan

 

Roopdhyan - [Best guide for meditation] Jagadguru Shree Kripaluji Maharaj pravachan- Vishesh abhyas 

https://www.youtube.com/watch?v=3j354GTHyWU


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Roopdhyan - [Best guide for meditation] Jagadguru Shree Kripaluji Maharaj pravachan- Vishesh abhyas.mp4

 

0.10 भागवत प्राप्ति में बहुत सी बातों का ध्यान रखना है


0.30 तीन बातें हैं साधक (aspirant) साध्य (aim, Radha Krishna) और साधना (means ,i.e., Bhakti)


1.12 साधक को प्रमुख तौर पर जिंस बात पर ध्यान देना है वह है साध्य (aim, Radha Krishna & guru - in any combination) का रूप  ध्यान - मन में लगन लगानी है केवल ज़ुबान से नहीं

 

3.54 साधना में सबसे पहले साध्य का रूप ध्यान, और क्योंकि गुरु को तो आपने देखा है इसलिए गुरु का रूप ध्यान तो आसान है, मगर भगवान को तो आपने देखा नहीं तो उनका रूप ध्यान कैसे करें


4.23 राधा कृष्ण का रूप ध्यान, गुरु के रूप ध्यान से भी ज्यादा सरल है, क्योंकि भगवान ने नियम बनाया है कि मानव जो भी भगवान का रूप चाहे, उसे मान ले और भगवान भी उसी रूप को स्वीकार लेंगें, अन्यथा तो कोई भी जीव भगवत प्राप्ति कर ही नहीं सकता, क्योंकि पहले तो वो दर्शन देंगें नहीं 

 

5.12 जैसी आंख पसंद हो, जैसी नाक पसंद हो, जैसा मुख पसंद हो - जो भी मन भाता हो, आकर्षित करता हो


5.33 और उम्र भी अपनी इच्छा अनुसार बना लो, तुरंत पैदा हुए हों कृष्ण, एक वर्ष, दो वर्ष, 10 वर्ष, 16 वर्ष, 100 वर्ष, 1000 वर्ष (ideal age for meditation is upon Krishna of 16 years), लेकिन भगवान के तो अनंत रूप है कोई भी रूप मान लो

 

6.22  जो श्रृंगार आपको पसंद हो, वैसा बना लो

 

6.54 जैसे इस संसार में माँ अपने बच्चे को तरह तरह के कपड़े पहनाती है, श्रृंगार करती है

 

7.33 इस संसार में जैसे कुछ देशों में कानून है की मुंह ढक के चलो, बुरखा पहन कर चलो, मगर भगवान के यहाँ ऐसा कोई नियम नहीं हैं

 

8.28 आप सब प्रकार के जेवर (jewellery) पहना सकते हैं उन्हें, सब प्रकार की लीला करा सकते हैं, cricket खिलवा सकते हैं उनसे


8.46 कितना दयालु है भगवान सोचो


8.56 कोई भी नाम उनका, जो आपको पसंद हो, वो रख दीजिए


9.20 देखिए यशोदा मैया, सबसे बड़ा सौभाग्य जिनका, जिन्होंने श्याम सुंदर को अपनी गोद में खिलाया और जिनकी भौं (eyebrows) से डरते हैं भगवान, वो यशोदा अपने बालक को कहती है "कनुआ", अब ये कनुआ शब्द कौन से शास्त्र में लिखा है - कहीं नहीं,  सखा लोग भी कन्हैया कहते हैं, गोपियां तो उन्हें और भी बुरे शब्दों से पुकारतीं है, मगर प्रेम से - जैसे "लफंगे"

 

10.26 वेद कहता है कि सब शब्द भगवान के नाम हैं, अ यानि श्री कृष्ण, ऊँ यानि शंकर, म यानि माया, ऊ+मा = ऊमा यानि शंकर जी की योग-माया पार्वती, दुर्गा -  राधा, श्यामा, किशोरी कोई भी नाम से पुकारिए, यह नाम भी बदल बदल के बोल सकते हैं,

 

11.22 या भगवान का कोई भी गुण गाओ, सबकी अपनी अपनी पसंद है, किसी को कोई गुण पसंद है दूसरे को कुछ और


11.36 इसी प्रकार से किसी भी लीला का ध्यान करें, कितनी सुविधा दी है भगवान ने उनको स्मरण करने की


12.02 बस शर्त यही है की ऊनका ध्यान करें, मन को उन में उलझाए रहें, मन संसार में अटकने ना पावे, यदि मन संस्कार में लगा तो गोबर भरा - वो चाहे माँ के प्रति, बाप के प्रति, बीवी, पति, बच्चे कोई भी हो 

  

12.35 तो साधक को साध्य पाने के लिए पहला मूल मंत्र है: रूप ध्यान


12.46 दूसरा मूल मंत्र: अनन्य:, भगवान के अलावा कहीं भी मन का लगाव (आसक्ति) नहीं हो, यहाँ भगवान का मतलब:  उनका नाम, रूप, लीला, धाम, गुण, अथवा उनके जन (संत, गुरु) सब कुछ, तात्पर्य यह है कि संसार में मन नहीं जाए


14.08 दो बातें कही गयी हैं गीता में एक तो अनन्य हो और दूसरा स्मरण (ध्यान) करें


14.22: अन्य वस्तु में मन का लगाव नहीं हो, इसके लिए अगर मन जाता भी है संसार में, तो उसमें श्री कृष्ण को बिठा दो


15.04 दूसरी शर्त हुई अनन्यता, चार वस्तु हैं उनमें से पहले तीन "अन्य" हैं यानि सात्विक, राजसिक तामसिक, चौथी "अनन्य" हैं


15.28 सात्विक व्यक्ति या वस्तु (pious deeds, पुण्य कर्म) में भी अगर मन लगा तो वो भी अन्य हैं, अनन्य नहीं - ऐसा व्यक्ति स्वर्ग तो हो जाएगा मगर भगवान के धाम नहीं


15.49: राजसिक व्यक्ति या वस्तु में मन लगा, तो ये भी अन्य हैं, अनन्य नहीं, और वो मृत्युलोक में ही रहेगा, भगवान से कोई संबंध नहीं है उसका


16.05 तामस व्यक्ति या वस्तु में मन लगा, ये भी अन्य हैं, अनन्य नहीं,  और वो नरक में जाएगा - कुत्ते बिल्ली गधा कि योनि में जाएगा


16.30 जितने भी स्वर्ग के देवी देवता हैं, सब अन्य में आते हैं


16.39 ये दो शब्द देवी और देवता, इनका तात्पर्य समझ लो - देवी और देवता माया के आधीन भी होते हैं, जियें लौकिक देवी देवता कहते हैं         


और        


दूसरे आलौकिक देवी और देवता भगवान के धाम में भी होते हैं, जैसे राधा देवी, सीता देवी, लक्ष्मी देवी, श्री कृष्ण देव है मगर सर्वश्रेष्ठ और सबसे बड़े देव 


17.52 आलौकिकदेवी, देव यानी भगवान की शक्तियां हैं


18.16 जैसे पुरुष शब्द है संसार में भी होता है और भगवान को भी पुरुष कहते हैं


19.02 भगवान को महापुरुष, परम पुरुष भी कहते हैं, संत को भी महापुरुष कहते हैं, और माया बद्धध (trapped in maya) को भी पुरुष कहते हैं

 

19.37  देवी देव माया के आधीन (लौकिक) में भी होते हैं और भगवान के धाम (लौकिक) में भी होते हैं , देवी देव जो माया के आधीन (लौकिक) हैं, इनमें मन का लगाव वर्जित है


20.01 आजकल तो मनगढ़ंत देवी देवताओं की भी पूजा होने लगी, जैसे संतोषी माँ जिनका शास्त्रों, पुराणों, वेदों में कहीं जिक्र नहीं

 

20.27 जैसे प्रेम शब्द है संसार में, पूछो की माँ से प्रेम करते हो, बोले हाँ, बाप से - बोले हाँ, बेटा बेटी से - हाँ, प्रेम का अर्थ जानते हो - नहीं

 

21.03 हम मन के स्वार्थिक लगाव को प्रेम का नाम दे देते हैं, स्वार्थ अधिक तो प्रेम अधिक ;  स्वार्थ कम तो प्रेम कम ;  स्वार्थ खत्म तो प्रेम खत्म


21.25 देवी देव जो माया के आधीन (लौकिक) हैं, इनमें मन का लगाव वर्जित है, मगर जो देवी देव भगवान के धाम (आलौकिक) होते हैं, उनमे ही मन को लगाना चाहिए

 

21.56 यानी अगर वस्तु या व्यक्ति या देवी देवता जो माया के अधीन है यानी जो माया के त्रिगुण सात्विक, राजसिक और तामसिक मैं बंधा है, वो चाहे माँ हो, बाप हो, बेटा बेटी, कोई भी हो-  तो उनमें मन लगाना वर्जित है और मरने के बाद जिस व्यक्ति में मन लगा था, उसी की योनि में हम भी जाएंगे, वो यदि गधा बना तो हम गधे के पुत्र बनेंगे  

 

23.0 जो माया के त्रिगुण सात्विक, राजसिक और तामसिक से परे है यानी भगवान, उनका नाम, रूप, गुण, लीला, धाम और उनका संत - केवल इन सब में मन को लगाव हो तो अनन्य भक्ति कहलाती है

 

23.40 तो अनन्य पर बहुत ध्यान देना है, वास्तव में हम सब भगवान से प्रेम करते हैं - कैसे ? हम सब आनंद चाहते हैं और सब कार्य उसी की पाने के लिए कर रहे हैं और भगवान का पर्यायवाची (synonym) शब्द है आनंद, वेद कह रहा है भगवान हैं : आनंदों ब्रह्म, रसौ वै स: (वे रस रूप आनन्द हैं)

 

24.12 संसार में भी ये जब कोई मुसीबत आती है तो सब लोग बोलते हैं, हे  भगवान बचाओ, नास्तिक भी आस्तिक बन जाता है, और जो सत्संग करते है वो तो विशेष अधिकारी हैं, भगवान से प्रेम तो करते ही हैं

 

24.31 लेकिन गड़बड़ कहाँ है कि अनन्य प्रेम नहीं है, त्वमेव (तुम "ही" ,i.e., only You, एव यानि "ही") माता नहीं लेकिन त्वमपी (तुम "भी", You also, अपि यानि "भी") माता के भाव से प्रेम करते हैं हम भगवान से  


24.53 एक माँ हमारी संसार में भी बैठी है उससे भी हम प्रेम करते हैं, और हे भगवान तुम भी हमारी माँ हो  - ऐसे विचार रखते हैं हम  

0.1% भी अगर संसार से प्यार है तो अनन्य नहीं कहलाओगे

 

25.40: यदि लोहा पारस को, जब तक छू नहीं जाए, सोना नहीं बनेगा - यदि बाल जितनी भी दूरी रह गई लोहे और पारस के बीच में, तो सोना नहीं बनेगा


26.05 तार में बिजली जा रही है जब तक उस तार को कोई छूता नहीं है तब तक बिजली अपनी ओर खींच नहीं पाएगी

 

26.17 इसलिए भगवान की अनन्यता की ये शर्त है की कहीं और दूसरे में मन का लगाव नहीं हो

 

26.35 प्रमुख बातें : 1. भगवान का रूप ध्यान  2. जो चाहे भगवान का रूप बना लो, नाम रख लो, श्रृंगार कर लो, जो इच्छा हो लीला का ध्यान करो 3. भगवान के प्रेम में अनन्यता हो 4. भगवान का स्मरण निरंतर हो

 

27.17 मान लो कुछ लोग घंटा, दो घंटा भगवान की पूजा करते है अनन्यता से भी करते हैं, मगर उसके बाद फिर भूल जाते हैं, ये हमेशा स्मरण रखें (realise करना है) कि वो हमारे साथ है हमारे अंदर बैठे हैं - इसका बार बार अभ्यास करना होगा - है तो यह सच्चाई (कि वो हमारे साथ है, हमारे अंदर बैठे हैं) मगर हम इसे जन्मों जन्मों से भूल बैठे हैं - जैसे आपको स्वयं का ध्यान सदैव naturally रहता है कि "मैं हूँ", इसी तरह से सदैव ये "feeling" रहे कि वो हमारे साथ है, हमारे अंदर बैठे हैं 

 

29.16 हमारे हृदय में हमारी आत्मा रहती है और हमारी आत्मा के अंदर भगवान रहते हैं, सदा से, अनंत काल से अनन्त काल तक

 

30.18 हमारा शरीर "ब्रह्म पुर" है, क्योंकि इसमें ब्रह्म रहते हैं

 

31.44 भोले भाले लोग समझते हैं कि भगवान केवल गो लोक में रहते हैं, उनसे अधिक समझदार समझते हैं कि वो सर्वव्यापक है और जो पूरे समझदार है वो ये समझते हैं कि हमारे भीतर भी भगवान हैं, हमे हमेशा यही समझ के साथ जीना चाहिए तो आप कोई भी विचार "privately" नहीं करोगे


32.07 मैं जो सोच रहा हूँ बीवी नहीं जानती, अरे भगवान तो जानता है क्योंकि वो अंदर बैठा है और वो आपका हर भाव, चिंतन, मन का विचार "नोट" करते हैं और उसी के अनुसार फल / दंड भी देते हैं

 

32.52 भगवान तो मन का कर्म / भाव को नोट करते हैं इंद्रियों के कर्म को नोट नहीं करते


32.59 हमने उल्टा सोचा, बस हो गया अपराध, पाप हो गया, अनन्यता से भटक गए, मन को गंदा कर लिया, साबुन से जो धोया था उसे फिर बिगाड़ लिया


33.20 इसलिए बड़ी सावधानी से, जहाँ भी जाएं, अपने ईष्ट को साथ में लिए रहें, वो हमारे भीतर बैठे हैं ये विश्वास जमाते रहें, इसका अभ्यास करते रहें   

 

33.50  और जब यह अभ्यास हो जायेगा तो इतनी शांति मिलेगी कि जैसे आप अनंतकोटी ब्रह्मांड के मालिक हैं, कितना आनंद मिलेगा हर समय, कोई दुख आए आपको महसूस भी नहीं होगा, क्योंकि आपको ये "feeling" है कि वह अंदर बैठा है


34.14 सनकादि परमहंस ऋषि बोलते हैं की हमें चाहे नरक भेज दो, बस ये "feeling" बनी रहे कि आप हमारे साथ हैं, हमारे अंदर बैठे हैं