Sunday, June 20, 2021

14 दुर्लभ उपदेश (Jagadguruttam Diwas Special) Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj Pravachan - Full Transcript Text

 



14 दुर्लभ उपदेश (Jagadguruttam Diwas Special) Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj Pravachan

 

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14 दुर्लभ उपदेश (Jagadguruttam Diwas Special) Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj Pravachan.mp4


 

0.04 रोज सोचो 2-3 मिनट निष्पक्ष होकर अकेले में भगवान को सामने बिठाकर

0.15 तुम जो चाहे छोड़ सकते हो,  प्रतिज्ञा कर लो,  आदमी हार जाता है अपने मन से, दो चार बार लड़ो तो सफलता मिले

0.31 अब मैं आपका एक एक शब्द सुनता हूँ, लगता है कोई अमृत झ रहा है, जितनी बार सुनता हूँ संसार भूल जाता हूँ

0.52  जिसका मन भगवान की शरण में चला जाता है, बस वोही विजयी होता है, सबसे बढ़िया दवा है कि मन को भगवान के चरणों में डालो, उनके चिंतन में लगाओ, वो बचायेंगे माया से

1.23 सात अरब लोगों में से सत करोड़ भी ऐसे नहीं है जिन पर भगवान की कृपा से उनहें कोई महापुरुष मिल जाए जो उन्हें बताए कि क्या करने से तुम्हारे दुःख मिट जाएंगे और परमानंद मिल जायेगा और जिन लोगों को ये सौभाग्य प्राप्त भी हुआ है यानी जान चूके हैं दुख निवृत्ति का मार्ग वो भी दुबारा 84,00,000 योनियों का हिसाब बिठा रहे हैं, क्यों : एक ही उत्तर है, लापरवाही

2.11 हमारे पास दो चीज़ है एक शरीर, एक आत्मा - जब हम जान गए की आत्मा का कल्याण ही असली कल्याण है शरीर को तो दो रोटी मिल जाये तो बस ठीक है, सब लोग अकेले में सोचे की शरीर के लिए हम 24 घंटे में से कितना समय देते हैं और आत्मा के लिए कितना समय देते हैं 24 घंटे में, रोज सोचो 2-3 मिनट निष्पक्ष होकर अकेले में भगवान को सामने बिठाकर, हम आत्मा के लिए कितना समय बचा सकते थे मगर नहीं बचाया, हमने कितना समय व्यर्थ की बातों में गंवाया, जितना शरीर के लिए कम से कम समय हम लगा सकें और बाकी समय आत्मा के कल्याण के लिए वो ही उचित है

4.33 हम प्रतिज्ञा कर लें कि मन को हम हर डालेंगे यदि मन ने आत्मा के कल्याण में अवरोध (opposition) किया तो

4.46 श्रवण ऐसा होना चाहिए की उसमें मन और बुद्धि संजोग से लगे एक एक शब्द पर, अभी एक सज्जन मिले थे मुझे, उन्होंने कहा अब मैं आपका एक एक शब्द सुनता हूँ, लगता है कोई अमृत झर रहा है, जितनी बार सुनता हूँ संसार भूल जाता हूँ

6.02 इसी प्रकार कीर्तन में भी मन और बुद्धि का संजोग हो, रूप ध्यान सामने हो

6.10 ये तीन भक्ति सबसे प्रमुख है : श्रवण कीर्तन और रूप स्मरण , नवधा (9 types) भक्ति में, मन भगवान ने सभी को एक सा दिया है भगवान में लगाने के लिए चाहे आंख कान मुँह किसी के पास ना भी हो

6.41 बिना मन के कोई आत्मा होती ही नहीं, इसलिए मन से स्मरण करो

6.48  मन सबसे बड़ा दुश्मन है जिसने बड़े बड़े योगियों को पछाड़ दिया है इसलिए सावधान रहो, ये ऐसे मिठास के साथ पकड़ता है

7.04 एक बार शराब पी लें, चुपके से, किसी को बताएंगे नहीं, एक बार और -  फिर शराब ने पकड़ लिया, बड़े बड़े पाप हम करते जाते हैं ऐसे ही, लोग प्रतिज्ञा नहीं करते मन को जीतने की, हमारे ही भाई तो बड़े बड़े महापुरुष बने हैं, तुम जो चाहे छोड़ सकते हो,  प्रतिज्ञा कर लो,  आदमी हार जाता है अपने मन से, दो चार बार लड़ो तो सफलता मिले - जीव मन को surrender कर जाता है इसीलिए 84,00,000 योनियों में घूम रहा है

9.13 इसीलिए कहा है मन को भगवान का निरंतर क्षण क्षण समरण करने के लिए

9.23 भगवान अपने आप को मोहित कर लेते हैं और अपनी भगवत्ता (Godliness grandeur) को लीन (hide) करा देते हैं, तब वो हम सब जीवों के साथ प्रेम कर सकते हैं

10.46 भगवान की सब शक्तियां छुप जाती है और भगवान हमारे बराबर के स्तर पर आ जाते हैं, इसी बात पर भक्त भगवान पर बलिहार जाता है कि हमारे लिए भगवान ने अपनी भगवत्ता छोड़ दी

11.19 यदि हम हरी गुरु को सदा अपने साथ मान लें तो फिर ना किसी साधना की आवश्यकता है और ना कुछ गडबड होगी, हम अपराध इसीलिए कर बैठते हैं जब हम मान लेते हैं की हम अकेले हैं हम यह भूल जाते हैं की हमारे पापा जी हमारे हृदय में बैठकर नोट कर रहें हैं, इसलिए केवल जानने से काम नहीं बनेगा, इसका अभ्यास करना होगा

11.56 मत करिए अभ्यास, फिर मरने के बाद 84,00,000 योनियों में घूमिए, चप्पल जूते खाईए

12.05  एक रोटी के टुकड़े के लिए कुत्ता बिल्ली गधे बनकर करोड़ों कल्प दुख भोगिये, फिर कभी मानव देह मिलेगा, फिर कोई कृपालु मिलेंगे, और फिर आप कहेंगे हाँ हम ये सब जानते हैं, मानेंगे नहीं,  शायद दुख भोगने का शौक है,  अनंत जनम बीत गए ये शौक अभी तक पूरा नहीं हुआ, पाप से पेट नहीं भरा

12.41  भगवान से भी चोरी और गुरु से भी चोरी, double अपराध, भगवान की भक्ति का अभ्यास करें तो ठीक है नहीं तो करोड़ो जगतगुरु मिले, हमारी जिद हमें 84,00,000 योनियों में घुमाएगी

13.12  और अगर हम अपनी गलती मान लेंगे और सुधरने का प्रयत्न करेंगे, हमें निरंतर समरण रखना पड़ेगा कि वो अंदर बैठे हैं, नोट कर रहे हैं हमारी प्रत्येक सोच

13.29 ये हम जो पाप कर्म का सोच रहे है हमें क्या मिलेगा, क्यों शौक सवार है दुख भोगने का, सहा नहीं जाएगा इतना दुख होगा, चीख चीख कर रोओगे,  कोई सुनने वाला नहीं होगा उस समय कृपालु या भगवान कुछ भी नहीं कर सकते

14.01 भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए दुर्वासा ऋषि के आगे, दुर्वासा ने अपनी गलती मानी, भगवान ने कहा "अहम भक्त पराधीन", लोग कहते है की मैं सबसे बड़ा हूँ सब का स्वामी हूँ, लेकिन practical में ये गलत है, मैं भक्त का दास हूँ,  और थोड़ी देर के लिए नहीं सदा के लिए

14.58 भगवान बोले मैं अपनी आत्मा से भी कोई आशा नहीं रखता, अपने भक्तों से आशा रखता हूँ, जो भक्त मुझ में शरणागत हो गए हैं, ऐसे भक्त को छोड़कर मैं किसकी सुनूंगा, किसकी दासता (service)  करूँगा, मेरे भक्त मेरा हृदय हैं और उनका हृदय मैं हूँ, मेरे अतिरिक्त वो कुछ नहीं जानते, मानते, चाहते

16.12 हनुमान जी दास्य भाव के भक्त हैं राम जी के, राम हनुमान को कहते हैं, मैं तुम्हारे एक उपकार के बदले में अपना प्राण भी दे दूँ, तो भी उऋण (debt free) नहीं होउँगा और तुम्हारी तो अनेक उपकार है मुझ पर, मैं तो सदा तुम्हारा ऋणी ही रहूंगा

16.55 भगवान ने गोपियों को भी यही कहा था कि देवताओं की उम्र पाकर भी, मैं तुमसे उऋण (debt free) नहीं हो सकता

 17.15 भगवान या महापुरुष गलत काम नहीं कर सकते, तो वो जो भी कर रहे हैं ठीक कर रहे हैं, तो फिर हम उनकी बात में टांग क्यों अड़ाते है इसका तात्पर्य ये हुआ कि महापुरुष भी बेवकूफ, भगवान भी बेवकूफ, और हमारा निष्कर्ष सही है, और तत्वज्ञान कहाँ चला गया, शरणागति कहाँ चली गयी

 17.53 गुरु और भगवान जो आज्ञा हमें दे रहे हैं हमारा उसी में कल्याण है, जहाँ हमने "क्यों" किया तो हो गया गलत, शरणागति के खिलाफ़ चला गया, "अनुकूलयेन कृष्णा अनुशीलनम"  (अनुकूलयेन = as per the desires of, अनुशीलनम = to follow with serious intent) ही सही शरणागति और भक्ति है

18.40 कृष्णा के दर्शन की कामना सकाम (to expect fruits of effort - this is contemptuous in pure devotion) नहीं है, कृष्णा को हमारी हर इंद्री (our senses) से चाहना सकाम नहीं है (बल्कि एकमात्र लक्ष्य है जीवन का), ये हमारी चाहत की परिकाष्टा (peak) है लेकिन केवल उनके सुख के लिए

 19.37 ये बड़ी बिमारी है हम में मांगने की, ये कि संसार में सुख है इस का भ्रम (illusion) हमारी बुद्धि में हैं, इसलिए हम भगवान की पूजा भी संसार मांगने के लिए करते हैं

19.55 ध्यान रहे की राम अपने पिता श्री दशरथ को भी नहीं बचा सके, अभिमन्यु को कोई नहीं बचा सका - ना उनके पिता अर्जुन ना उनके मामा कृष्ण, ना उनका ब्याह कराने वाले वेद व्यास (जो स्वयं भगवान के अवतार हैं), अभिमन्यु की 16 वर्ष की पत्नी उत्तरा विधवा हो गई  

20.32 और आप लोग मंदिरों में घूमते हैं कि भगवान हमारी सांसारिक इच्छा पूरी कर देंगे, हमारे मरते हुए पुत्र को जिंदा कर देंगे, प्रारब्ध (result / reaction of accumulated sins) भोगना पड़ेगा सभी को, भागवत प्राप्त संत को भी प्रारब्ध भोगना पड़ता है और सब की बात तो क्या करें, ये गोबर निकाल दो दिमाग से

21.07  भगवान से कुछ नहीं मांगना,  मर जाएंगे मांगेंगे नहीं कुछ, तब भगवान का सिर हिलता है कि इस भक्त पर तो कृपा करनी ही पड़ेगी

21.35  लोग अक्सर ऐसा समझते हैं भ्रम (illusion) या मिथ्या अहंकार (false ego) के कारण कि "हम सब समझ गए"

22.08 साधारण अवस्था में तो आप हर समय साधना कर ही नहीं सकते, आप और आपका मन थक जाता है, आप कहते हैं "बोर" (bore) हो गए

22.33 इसलिए वेद व्यास जी ने वेदान्त में एक सूत्र बना दिया कि "उपदेश को बार बार सुनो" (श्रोतव्य), मंतव्य - यानी उपदेश का बार बार मनन भी करो, अभी वर्तमान में तो समझ में आया मगर भविष्य में ये खो जाएगा

23.17 साधारण सी सांसारिक बातें आप भूल जाते हैं, कलयुग में स्मरण शक्ति बहुत कमजोर हो गई है, इसीलिए बार बार सुनना और मनन करना (repeat the same thought in mind), जब बार बार मनन होगा तभी दृढ़ होगा, तब practical होगा सदा

24.35 और क्योंकि हम तत्व ज्ञान को बार बार भूल जाते हैं, इसीलिए क्रोध, लोभ, अज्ञान,  मोह, काम, दूसरे को दुख देना वगैरह दोष बार बार सामने आते हैं

25.08 ये माया चली जाए इसके लिए कोई साधन नहीं होता, साधन यानी बल, बलवान को भगवान नहीं मिल सकते, भगवान साधन हीन (who has no dependence on physical means) को मिलते हैं

25.27 हमारा शरीर हमारा पैसा, हमारी post, ये सब बीमारियाँ हम ने पाल रखी हैं इन्हें हटा दें और कहें कि हम भगवान के नित्य दास है, ये सही बात को मान लेना चाहिए इसी से भगवान प्रसन्न होते हैं

25.52 हम लोग कामी हैं, क्रोधी हैं, लोभी हैं, मोही हैं, सब अवगुण है हम में जब तक भगवान प्राप्ति नहीं होती,  इस बात को कम से कम भगवान के सामने तो हम स्वीकार कर लें   

26.50 करोड़ों murder कर डाले हनुमान जी ने, अर्जुन ने, मगर इन्हें पाप नहीं लगता, क्योंकि उनके कार्य भगवान ने कराए हैं

27.27 सेवा तो व्यक्ति के हैसियत के अनुसार होती है, एक जीव की क्या हैसियत है केवल भगवान की शरणागति के अलावा, जैसे एक छोटा बच्चा माँ के शरणागत रहता है, केवल उसके रोने मात्र से माँ समझ जाती है कि बच्चे को क्या चाहिए

28.42 भगवान तो सब की सेवा करते हैं,  मगर हम ही लोगों में भरे पड़े हैं शिशुपाल जैसे लोग मा ऐम, भगवान को गाली देने वाले, यदि मंदिर जाने के बाद भी हमारी संसार की कामना पूरी न हो तो भगवान पर हम दोष लगाते हैं, लेकिन भगवान गुस्सा नहीं करते

29.28  रावण को भी भगवान कहते हैं मेरी पृथ्वी पर चल, पानी पी, वायु में सांस ले, तू पाप कर रहा है, मगर अभी नहीं मृत्यु के बाद दंड मिलेगा, भगवान तो नास्तिकों की भी सेवा करते हैं अपना बच्चा समझकर

30.05 भगवान का रूप ध्यान प्राण है, और बाकी सब साधनाएं केवल शरीर हैं, यदि प्राण निकल गया तो शरीर केवल मिट्टी है, ऐसे ही अगर भगवान का रूप ध्यान नहीं किया, केवल संसार का ध्यान किया, यदि आप भगवान का ध्यान नहीं करोगे तो संसार का ध्यान अपने आप ही होगा, होगा, पूरे विश्व में इसे कोई challenge नहीं कर सकता कि हम भगवान का भी ध्यान नहीं करेंगे, और संसार का भी नहीं करेंगे,

30.55 मन एक क्षण को भी चुप नहीं बैठ सकता, अगर भगवान में मन नहीं लगाया तो संसार में गया, तेजी से गया, ले जाना नहीं पड़ेगा, अपने आप जाएगा

31.08 जैसे एक मिट्टी का ढेला हो हाथ में पकड़े हुए, ज्यों ही छोड़ोगे तो मिट्टी अपने आप नीचे धरती पर गिर जाएगी

31.20 मन माया से बना है और संसार भी माया से बनी है,  इसलिए मन को संसार अपने आप खींच लेता है, चतुराई (smartness) उसी में है कि मन को भगवान में लगाते रहो, मन लगेगा नहीं, लगाना पड़ेगा

31.38 ये जो आप बोल देते हैं मन नहीं लगता भगवान में, बार बार बार बार मन को लगाओ भगवान में, तो लगने लगेगा, जैसे बार बार चाय पियो तो चाय में मन लग जाएगा, शराब में मन लग गया, सिगरेट (cigarette) में मन लग गया, पैदा होते ही किसी ने नहीं कहा शराब लाओ

32.03 इसी प्रकार भगवान में बार बार मन लगाओ तो फिर लगने लगेगा, फिर तो ऐसा मन लग जाएगा भगवान में कि सूरदास challenge करते है भगवान को कि "हमारे हृदय से निकल के दिखाओ तो मैं आपको मर्द मानूँ",  नहीं निकलते भगवान मन से, लेकिन पहले तो मन को  लगाना पड़ेगा

32.36 इसलिए साधना करो मगर पहले रूप ध्यान से शुरू करके

32.54 भक्ति का अर्थ यही है कि भगवान को सुख देना, उनकी इच्छा में इच्छा रखना, स्वयं को भले ही कष्ट मिले

33.30 "आज्ञा सम न सु साहिब सेवा" (there is no higher seva / service than obedience to Him / His or His guru's  sayings), गुरु जी को सुख मिल रहा है कि आप "राधे राधे" कर रहे हो  

34.0 एक शुद्ध भक्त भगवान को कहता है की मुझे केवल आपकी निष्काम भक्ति ही दीजिए, और कुछ नहीं दीजिये अगर आप देना ही चाहते हैं, वरना तो मांगना ही गलत है, निष्काम भक्ति भी मत मांगिये, भगवान तो सर्वज्ञ है उनसे मांगने की आवश्यकता ही क्या है

34.17  जो हमारे लिए सुंदर होगा वहीं भगवान हमें देंगे, बिना मांगे सबसे बढ़िया चीज़ मिलती है, यदि मांगोगे तो जो मांगोगे वो मिल जायेगा और कुछ नहीं मिलेगा, जैसी आपने मांगा कि  पृथ्वी के राजा बन जाओ तो बन जाओगे मगर मोक्ष नहीं मिलेगा, भक्ति नहीं मिलेगी   

34.49 भगवान तो जो आप मांगोगे, दे देंगे, मगर भक्ति बहुत ऊंची चीज़ है वो आसानी से नहीं देते क्योंकि उसमें भगवान को खुद गुलामी करनी पड़ती है भक्त की

34.57 कोई दास अपने स्वामी को कहे कि वो आपका जो almirah है जिसमे सारा भंडार भरा है, उसकी चाबी दे दो, तो दास ने तो बहुत ऊंची ची़ज मांग ली, ऐसे ही भगवान के लिए भगवान की भक्ति ही सबसे ऊंची चीज़ है

35.11 अर्जुन भगवान से कह रहे है कि मन बहुत चंचल है

35.28 भगवान ने admit  किया की निस्संदेह मन बहुत चंचल है

36.06 मन सबसे बलवान और दुर्जय दुश्मन है, ये किसी के वश में नहीं आता, योगी लोग भी इंद्रियों पर नियंत्रण कर लेते हैं मगर मन पर नहीं

36.35 जिसका मन भगवान की शरण में चला जाता है बस वही मन पर विजय पा सकता है, तो सबसे बढ़िया दवा है की मन को भगवान के चरणों में डालो, उनके चिंतन में लगाओ, वो बचाएंगे माया से

37.0 "अरे मन क्षण क्षण सुमीरण कर" श्री कृष्ण का