Roopdhyan - [Best guide for meditation] Jagadguru Shree Kripaluji Maharaj pravachan- Vishesh abhyas
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Roopdhyan - [Best guide for meditation] Jagadguru Shree Kripaluji Maharaj pravachan- Vishesh abhyas.mp4
0.10 भागवत प्राप्ति में बहुत सी बातों का ध्यान रखना है
0.30 तीन बातें हैं साधक (aspirant) साध्य (aim, Radha Krishna) और साधना (means ,i.e., Bhakti)
1.12 साधक को प्रमुख तौर पर जिंस बात पर ध्यान देना है वह है साध्य (aim, Radha Krishna & guru - in any combination) का रूप ध्यान - मन में लगन लगानी है केवल ज़ुबान से नहीं
3.54 साधना में सबसे पहले साध्य का रूप ध्यान, और क्योंकि गुरु को तो आपने देखा है इसलिए गुरु का रूप ध्यान तो आसान है, मगर भगवान को तो आपने देखा नहीं तो उनका रूप ध्यान कैसे करें
4.23 राधा कृष्ण का रूप ध्यान, गुरु के रूप ध्यान से भी ज्यादा सरल है, क्योंकि भगवान ने नियम बनाया है कि मानव जो भी भगवान का रूप चाहे, उसे मान ले और भगवान भी उसी रूप को स्वीकार लेंगें, अन्यथा तो कोई भी जीव भगवत प्राप्ति कर ही नहीं सकता, क्योंकि पहले तो वो दर्शन देंगें नहीं
5.12 जैसी आंख पसंद हो, जैसी नाक पसंद हो, जैसा मुख पसंद हो - जो भी मन भाता हो, आकर्षित करता हो
5.33 और उम्र भी अपनी इच्छा अनुसार बना लो, तुरंत पैदा हुए हों कृष्ण, एक वर्ष, दो वर्ष, 10 वर्ष, 16 वर्ष, 100 वर्ष, 1000 वर्ष (ideal age for meditation is upon Krishna of 16 years), लेकिन भगवान के तो अनंत रूप है कोई भी रूप मान लो
6.22 जो श्रृंगार आपको पसंद हो, वैसा बना लो
6.54 जैसे इस संसार में माँ अपने बच्चे को तरह तरह के कपड़े पहनाती है, श्रृंगार करती है
7.33 इस संसार में जैसे कुछ देशों में कानून है की मुंह ढक के चलो, बुरखा पहन कर चलो, मगर भगवान के यहाँ ऐसा कोई नियम नहीं हैं
8.28 आप सब प्रकार के जेवर (jewellery) पहना सकते हैं उन्हें, सब प्रकार की लीला करा सकते हैं, cricket खिलवा सकते हैं उनसे
8.46 कितना दयालु है भगवान सोचो
8.56 कोई भी नाम उनका, जो आपको पसंद हो, वो रख दीजिए
9.20 देखिए यशोदा मैया, सबसे बड़ा सौभाग्य जिनका, जिन्होंने श्याम सुंदर को अपनी गोद में खिलाया और जिनकी भौं (eyebrows) से डरते हैं भगवान, वो यशोदा अपने बालक को कहती है "कनुआ", अब ये कनुआ शब्द कौन से शास्त्र में लिखा है - कहीं नहीं, सखा लोग भी कन्हैया कहते हैं, गोपियां तो उन्हें और भी बुरे शब्दों से पुकारतीं है, मगर प्रेम से - जैसे "लफंगे"
10.26 वेद कहता है कि सब शब्द भगवान के नाम हैं, अ यानि श्री कृष्ण, ऊँ यानि शंकर, म यानि माया, ऊ+मा = ऊमा यानि शंकर जी की योग-माया पार्वती, दुर्गा - राधा, श्यामा, किशोरी कोई भी नाम से पुकारिए, यह नाम भी बदल बदल के बोल सकते हैं,
11.22 या भगवान का कोई भी गुण गाओ, सबकी अपनी अपनी पसंद है, किसी को कोई गुण पसंद है दूसरे को कुछ और
11.36 इसी प्रकार से किसी भी लीला का ध्यान करें, कितनी सुविधा दी है भगवान ने उनको स्मरण करने की
12.02 बस शर्त यही है की ऊनका ध्यान करें, मन को उन में उलझाए रहें, मन संसार में अटकने ना पावे, यदि मन संस्कार में लगा तो गोबर भरा - वो चाहे माँ के प्रति, बाप के प्रति, बीवी, पति, बच्चे कोई भी हो
12.35 तो साधक को साध्य पाने के लिए पहला मूल मंत्र है: रूप ध्यान
12.46 दूसरा मूल मंत्र: अनन्य:, भगवान के अलावा कहीं भी मन का लगाव (आसक्ति) नहीं हो, यहाँ भगवान का मतलब: उनका नाम, रूप, लीला, धाम, गुण, अथवा उनके जन (संत, गुरु) सब कुछ, तात्पर्य यह है कि संसार में मन नहीं जाए
14.08 दो बातें कही गयी हैं गीता में एक तो अनन्य हो और दूसरा स्मरण (ध्यान) करें
14.22: अन्य वस्तु में मन का लगाव नहीं हो, इसके लिए अगर मन जाता भी है संसार में, तो उसमें श्री कृष्ण को बिठा दो
15.04 दूसरी शर्त हुई अनन्यता, चार वस्तु हैं उनमें से पहले तीन "अन्य" हैं यानि सात्विक, राजसिक तामसिक, चौथी "अनन्य" हैं
15.28 सात्विक व्यक्ति या वस्तु (pious deeds, पुण्य कर्म) में भी अगर मन लगा तो वो भी अन्य हैं, अनन्य नहीं - ऐसा व्यक्ति स्वर्ग तो हो जाएगा मगर भगवान के धाम नहीं
15.49: राजसिक व्यक्ति या वस्तु में मन लगा, तो ये भी अन्य हैं, अनन्य नहीं, और वो मृत्युलोक में ही रहेगा, भगवान से कोई संबंध नहीं है उसका
16.05 तामस व्यक्ति या वस्तु में मन लगा, ये भी अन्य हैं, अनन्य नहीं, और वो नरक में जाएगा - कुत्ते बिल्ली गधा कि योनि में जाएगा
16.30 जितने भी स्वर्ग के देवी देवता हैं, सब अन्य में आते हैं
16.39 ये दो शब्द देवी और देवता, इनका तात्पर्य समझ लो - देवी और देवता माया के आधीन भी होते हैं, जियें लौकिक देवी देवता कहते हैं
और
दूसरे आलौकिक देवी और देवता भगवान के धाम में भी होते हैं, जैसे राधा देवी, सीता देवी, लक्ष्मी देवी, श्री कृष्ण देव है मगर सर्वश्रेष्ठ और सबसे बड़े देव
17.52 आलौकिकदेवी, देव यानी भगवान की शक्तियां हैं
18.16 जैसे पुरुष शब्द है संसार में भी होता है और भगवान को भी पुरुष कहते हैं
19.02 भगवान को महापुरुष, परम पुरुष भी कहते हैं, संत को भी महापुरुष कहते हैं, और माया बद्धध (trapped in maya) को भी पुरुष कहते हैं
19.37 देवी देव माया के आधीन (लौकिक) में भी होते हैं और भगवान के धाम (आलौकिक) में भी होते हैं , देवी देव जो माया के आधीन (लौकिक) हैं, इनमें मन का लगाव वर्जित है
20.01 आजकल तो मनगढ़ंत देवी देवताओं की भी पूजा होने लगी, जैसे संतोषी माँ जिनका शास्त्रों, पुराणों, वेदों में कहीं जिक्र नहीं
20.27 जैसे प्रेम शब्द है संसार में, पूछो की माँ से प्रेम करते हो, बोले हाँ, बाप से - बोले हाँ, बेटा बेटी से - हाँ, प्रेम का अर्थ जानते हो - नहीं
21.03 हम मन के स्वार्थिक लगाव को प्रेम का नाम दे देते हैं, स्वार्थ अधिक तो प्रेम अधिक ; स्वार्थ कम तो प्रेम कम ; स्वार्थ खत्म तो प्रेम खत्म
21.25 देवी देव जो माया के आधीन (लौकिक) हैं, इनमें मन का लगाव वर्जित है, मगर जो देवी देव भगवान के धाम (आलौकिक) होते हैं, उनमे ही मन को लगाना चाहिए
21.56 यानी अगर वस्तु या व्यक्ति या देवी देवता जो माया के अधीन है यानी जो माया के त्रिगुण सात्विक, राजसिक और तामसिक मैं बंधा है, वो चाहे माँ हो, बाप हो, बेटा बेटी, कोई भी हो- तो उनमें मन लगाना वर्जित है और मरने के बाद जिस व्यक्ति में मन लगा था, उसी की योनि में हम भी जाएंगे, वो यदि गधा बना तो हम गधे के पुत्र बनेंगे
23.0 जो माया के त्रिगुण सात्विक, राजसिक और तामसिक से परे है यानी भगवान, उनका नाम, रूप, गुण, लीला, धाम और उनका संत - केवल इन सब में मन को लगाव हो तो अनन्य भक्ति कहलाती है
23.40 तो अनन्य पर बहुत ध्यान देना है, वास्तव में हम सब भगवान से प्रेम करते हैं - कैसे ? हम सब आनंद चाहते हैं और सब कार्य उसी की पाने के लिए कर रहे हैं और भगवान का पर्यायवाची (synonym) शब्द है आनंद, वेद कह रहा है भगवान हैं : आनंदों ब्रह्म, रसौ वै स: (वे रस रूप आनन्द हैं)
24.12 संसार में भी ये जब कोई मुसीबत आती है तो सब लोग बोलते हैं, हे भगवान बचाओ, नास्तिक भी आस्तिक बन जाता है, और जो सत्संग करते है वो तो विशेष अधिकारी हैं, भगवान से प्रेम तो करते ही हैं
24.31 लेकिन गड़बड़ कहाँ है कि अनन्य प्रेम नहीं है, त्वमेव (तुम "ही" ,i.e., only You, एव यानि "ही") माता नहीं लेकिन त्वमपी (तुम "भी", You also, अपि यानि "भी") माता के भाव से प्रेम करते हैं हम भगवान से
24.53 एक माँ हमारी संसार में भी बैठी है उससे भी हम प्रेम करते हैं, और हे भगवान तुम भी हमारी माँ हो - ऐसे विचार रखते हैं हम
0.1% भी अगर संसार से प्यार है तो अनन्य नहीं कहलाओगे
25.40: यदि लोहा पारस को, जब तक छू नहीं जाए, सोना नहीं बनेगा - यदि बाल जितनी भी दूरी रह गई लोहे और पारस के बीच में, तो सोना नहीं बनेगा
26.05 तार में बिजली जा रही है जब तक उस तार को कोई छूता नहीं है तब तक बिजली अपनी ओर खींच नहीं पाएगी
26.17 इसलिए भगवान की अनन्यता की ये शर्त है की कहीं और दूसरे में मन का लगाव नहीं हो
26.35 प्रमुख बातें : 1. भगवान का रूप ध्यान 2. जो चाहे भगवान का रूप बना लो, नाम रख लो, श्रृंगार कर लो, जो इच्छा हो लीला का ध्यान करो 3. भगवान के प्रेम में अनन्यता हो 4. भगवान का स्मरण निरंतर हो
27.17 मान लो कुछ लोग घंटा, दो घंटा भगवान की पूजा करते है अनन्यता से भी करते हैं, मगर उसके बाद फिर भूल जाते हैं, ये हमेशा स्मरण रखें (realise करना है) कि वो हमारे साथ है हमारे अंदर बैठे हैं - इसका बार बार अभ्यास करना होगा - है तो यह सच्चाई (कि वो हमारे साथ है, हमारे अंदर बैठे हैं) मगर हम इसे जन्मों जन्मों से भूल बैठे हैं - जैसे आपको स्वयं का ध्यान सदैव naturally रहता है कि "मैं हूँ", इसी तरह से सदैव ये "feeling" रहे कि वो हमारे साथ है, हमारे अंदर बैठे हैं
29.16 हमारे हृदय में हमारी आत्मा रहती है और हमारी आत्मा के अंदर भगवान रहते हैं, सदा से, अनंत काल से अनन्त काल तक
30.18 हमारा शरीर "ब्रह्म पुर" है, क्योंकि इसमें ब्रह्म रहते हैं
31.44 भोले भाले लोग समझते हैं कि भगवान केवल गो लोक में रहते हैं, उनसे अधिक समझदार समझते हैं कि वो सर्वव्यापक है और जो पूरे समझदार है वो ये समझते हैं कि हमारे भीतर भी भगवान हैं, हमे हमेशा यही समझ के साथ जीना चाहिए तो आप कोई भी विचार "privately" नहीं करोगे
32.07 मैं जो सोच रहा हूँ बीवी नहीं जानती, अरे भगवान तो जानता है क्योंकि वो अंदर बैठा है और वो आपका हर भाव, चिंतन, मन का विचार "नोट" करते हैं और उसी के अनुसार फल / दंड भी देते हैं
32.52 भगवान तो मन का कर्म / भाव को नोट करते हैं इंद्रियों के कर्म को नोट नहीं करते
32.59 हमने उल्टा सोचा, बस हो गया अपराध, पाप हो गया, अनन्यता से भटक गए, मन को गंदा कर लिया, साबुन से जो धोया था उसे फिर बिगाड़ लिया
33.20 इसलिए बड़ी सावधानी से, जहाँ भी जाएं, अपने ईष्ट को साथ में लिए रहें, वो हमारे भीतर बैठे हैं ये विश्वास जमाते रहें, इसका अभ्यास करते रहें
33.50 और जब यह अभ्यास हो जायेगा तो इतनी शांति मिलेगी कि जैसे आप अनंतकोटी ब्रह्मांड के मालिक हैं, कितना आनंद मिलेगा हर समय, कोई दुख आए आपको महसूस भी नहीं होगा, क्योंकि आपको ये "feeling" है कि वह अंदर बैठा है
34.14 सनकादि परमहंस ऋषि बोलते हैं की हमें चाहे नरक भेज दो, बस ये "feeling" बनी रहे कि आप हमारे साथ हैं, हमारे अंदर बैठे हैं